थॉमस मेकाले की छवि एक खड़ूस व्यक्ति की है जो भारतीय संस्कृति तो क्या, भारतीय मौसम से भी नफ़रत करते थे। वह ईस्ट इंडिया कंपनी से इतने चिढ़े हुए थे, कि उसके प्रशासन की एक लंबी आलोचना ब्रिटिश संसद में की। उस ‘गवर्नमेंट ऑफ इंडिया’ भाषण (1833) के बाद ही उन्हें भारत भेजा गया।
उस भाषण में उन्होंने कहा था, “अगर किसी राज्य को एक न्याय-संहिता की जरूरत है, तो वह है भारत। आज जब भी वहाँ कोई हिन्दू मुद्दा उठता है, तो पंडित को कचहरी बुलाया जाता है। जब किसी मुसलमान की बात हो, तो क़ाज़ी को। भला हम ऐसे कैसे प्रगति कर पाएँगे? वहाँ एक ही कानून हो, जो वर्तमान सभ्य दुनिया में लागू होता है।”
यह बात कुछ हद तक ठीक थी कि कंपनी ने धर्मगुरुओं को ऊँची जगह दी थी। पंडित रामलोचन जैसे लोग तो फ़ोर्ट विलियम में लाट साहेबों के साथ बैठते थे। कलकत्ता में भद्रलोक समाज ब्राह्मण-बहुल था, और उनके कंपनी से प्रगाढ़ संबंध थे। संस्कृत और अरबी शिक्षा में कॉलेजों के अध्यापक पंडित, मौलवी और प्राच्यवादी (ओरिएंटलिस्ट) यूरोपीय थे। विद्यार्थी भी इसी समाज से थे।
मेकाले के आने से डेढ़ दशक पहले ही हिन्दू कॉलेज स्थापित था, जो अंग्रेज़ी में शिक्षा दे रहा था। यह भद्रलोक हिंदू समाज के बच्चों के लिए था। इसके प्रधान राधानाथ देब कर्मकांडी पंडित और हिन्दू धर्मसभा के अग्रणी सदस्य थे। जिस ‘रंग से भारतीय, स्वाद से अंग्रेज़’ की कल्पना मेकाले ने की, वैसे लोग तो पहले से कलकत्ता में घूम रहे थे। बल्कि, उन सवर्णों के अनुसार तो उनका रंग भी अंग्रेज़ों की तरह गोरा ही था। गोरे रंग और अंग्रेज़ी चाल-ढाल से प्रेम लॉर्ड मेकाले ने थोपा, या भारतीय स्वयं अपने मुँह पर पोत रहे थे, यह उत्तर तो सोचा जा सकता है।
लेकिन, मेकाले के ‘मिनट्स ऑफ एजुकेशन’ में कई दोष स्पष्ट हैं। पहला तो यही कि मेकाले स्वयं एक तरफ कहते हैं कि वह अरबी और संस्कृत नहीं जानते, दूसरी तरफ उसे एक निकृष्ट साहित्य कहते हैं। एक अज्ञानी भला यह कैसे कह सकता है, जब उन्हीं के देश के लोग इन ग्रंथों का गहन अध्ययन कर उच्च कोटि का मान चुके थे?
दूसरा यह कि उन्होंने यह कहा कि भारतीय भाषाओं में कुछ लिखा नहीं जा रहा। उन्होंने अरबी और संस्कृत ग्रंथों के विषय में कहा, लेकिन संपूर्ण भक्ति-आंदोलन, तुलसीदास, मलिक मुहम्मद जायसी, विद्यापति, तमिल साहित्य, बंगाली साहित्य पर चर्चा नहीं की। अवधी, बंगाली, खड़ी बोली, भोजपुरी, मैथिली, कन्नड़, मलयालम आदि पर बात नहीं की। वह भारतीय भाषाओं को छोड़ कर सीधे अंग्रेज़ी पर आ गए। अगर संस्कृत पंडितों की भाषा थी, और अधिकांश भारत के लिए असहज थी, तो ऐसी लोक-भाषाएँ मौजूद थी जो सहज थी।
यह बात ज़रूर है कि भारत में विज्ञान रुका रह गया। आर्यभट्ट का नाम लेने वाले यह भूल जाते हैं कि आर्यभट्ट तो पाँचवी सदी में थे। उसके बाद क्या हुआ? हज़ार वर्षों से अधिक समय था, तो भारत चाँद पर क्यों नहीं पहुँच गया? आयुर्वेद में कौन से वैज्ञानिक शोध हुए?
मगर, पश्चिम भी धीरे-धीरे ही आगे बढ़ रहा था। न्यूटन और गैलीलियो के सिद्धांत आ गए थे, जेम्स वाट ने भाप इंजन बनाया था, लेकिन एक भी एंटीबायोटिक की खोज नहीं हुई थी। ब्रह्मांड के रहस्य सुलझने बाकी थे।
मकाले ने कहा कि भारतीय भाषाओं में गद्य नहीं, गुणवत्ता नहीं। पश्चिम में डॉन क्विक्जोट, रॉबिंसन क्रूसो और शेक्सपीयर के गद्य आ चुके थे। मेकाले के बाद देवकीनंदन खत्री से बंकिमनाथ चट्टोपाध्याय जैसे हुए, जिन्होंने गद्य की लड़ी लगा दी। ऐसा लगता है कि अपनी निंदाओं से, और पश्चिमी शिक्षा लाकर, मेकाले ने भारत को जगाया भी। बंगाल में उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में इतना बंगाली साहित्य रचा गया, जितने पिछली कई सदियों में नहीं लिखा गया। कलकत्ता विज्ञान का केंद्र बन गया, और अगले सौ वर्षों में एक से एक भौतिक जन्मे। यह भी सत्य है कि अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ स्वतंत्रता संग्राम से लेकर राष्ट्रवादी आंदोलन भी इसी समय हुए।
मैकाले के बाद दो तरह के भारतीय पैदा होने शुरू हुए। एक धोती-कुर्ता पहने, भारतीय भाषा (जैसे बंगाली) और संस्कृत में पढ़ते-लिखते हुए, समाज को जगाने लगे। दूसरे, सूट-बूट में, तंबाकू भरी पाइप मुँह में लगाए फ़र्राटे अंग्रेज़ी में बोलते हुए लाटसाहेबों के साथ उठने-बैठने लगे। गोरी मेमों से प्रेम भी करने लगे।
मुझे एक चिट्ठी मिली जो वर्साय (फ़्रांस) से कलकत्ता लिखी गयी थी, “मुझे फ्रांस के जेल जाना पड़ रहा है। मेरी पत्नी की मदद तुम ही कर सकते हो।”
चिट्ठी पढ़ने वाले थे धोती-चद्दर में बैठे पंडित ईश्वरचंद विद्यासागर, और लिखा था सूट-बूट धारी और हैंडलबार मूँछों वाले माइकल मधुसूदन दत्त ने।
(क्रमशः)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
भारतीय पुनर्जागरण का इतिहास - एक (9)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/08/9.html
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