Wednesday, 25 August 2021

प्रवीण झा - भारतीय पुनर्जागरण का इतिहास - एक (13)

बोला तब इंद्रजीत, 
“क्षत्र-कुल का तू है कलंक, 
तुझे धिक् है लक्ष्मण! 
नहीं है तुझे लज्जा किसी बात की
मूँद लेगा कान वीर-वृन्द घृणा करके,
सुन कर तेरा नाम
दुष्ट! इस गृह में चोर सा प्रविष्ट हुआ है तू
अभी दण्ड दे करता हूँ निरस्त हे नीच!”
- माइकल मधुसूदन दत्त (मेघनाध-वध काव्य में)

आज जब नव-प्रवासियों को देखता हूँ कि चार दिन विदेश में रह कर उनके रंग-ढंग मे ढल जाते हैं, तो सोचता हूँ कि उस वक्त तो अंग्रेज़ ही शासक थे। हर शहर में लाट साहब दिखते, हर कॉलेज में अंग्रेज़ शिक्षक, और गोरी अंग्रेज़ लड़कियाँ। क्या उस समय एक नवयुवक को उनकी संस्कृति से, उनके पहनावे, रहन-सहन, धर्म से आकर्षण न होता होगा? यह मोह न होता होगा कि उनके परिवेश में रह कर कुछ धन, कुछ यश पाया जाए? लंदन घूम कर आया जाए?

मधुसूदन पैदा अंग्रेज़ नहीं हुए थे, बल्कि एक संभ्रांत कायस्थ बंगाली परिवार में हुए। लेकिन, उनका मन अंग्रेज़ था। वह गाँव से उसी वक्त कलकत्ता पढ़ने आए, जब लॉर्ड मकाले अपना भाषण देकर गए थे। हिन्दू कॉलेज में उनके सीनियर अंग्रेज़ होते जा रहे थे। उनके गुरु डेविड रिचर्डसन एक लब्धप्रसिद्ध अंग्रेज़ी कवि थे। मधुसूदन  भी उनकी ही तरह बनना चाहते थे। लेकिन, उनके पिता को जब उनकी मंशा पता लगी तो गाँव में शादी तय कर दी। मधुसूदन ने इस विवाह से मुक्ति पाने के लिए और अपनी इच्छा से वह ईसाई बन गए! ज़ाहिर है, विवाह रद्द कर दिया गया। 

ईसाई बनते ही उन्हें ‘हिन्दू’ कॉलेज से भी निकाल दिया गया, और उन्होंने हुगली पार के बिशप कॉलेज में दाखिला लिया। उनके पिता मन मार कर धन भेजते रहे कि शायद बेटा वापस हिन्दू बन जाए। वह तो ईसाई-बहुल कॉलेज था, जहाँ वह ग्रीक, लैटिन और अंग्रेज़ी साहित्य पढ़ने लगे और एक पादरी के घर में रहने लगे। आखिर, उनके पिता ने सहयोग बंद कर दिया। मधुसूदन पढ़ाई बीच में छोड़ कर एक नाव से मद्रास की ओर निकल पड़े! 

तीन हफ्ते तक नाव में बैठे-बैठे वह मद्रास पहुँचे। वहाँ वह एक अनाथों के ईसाई स्कूल में पढ़ने लगे, जहाँ एक फ़िरंगी विद्यार्थी रिबेक्का से उन्होंने विवाह कर लिया। इसी विवाह के प्रमाण-पत्र में उन्होंने पहली बार अपना नाम लिखा- ‘माइकल’ मधुसूदन दत्त, और इस नए नाम से एक कविता लिखी- ‘द कैप्टिव लेडी’। उनके चार बच्चे भी हुए, लेकिन इस मध्य उन्हें एक और फ़िरंगी लड़की हेनरिएट से प्रेम हो गया। अब वह इस नयी प्रेमिका के साथ वापस कलकत्ता भाग आए।

भागने की वजह प्रेमिका तो थी ही, दूसरी वजह थी कि उनके माता-पिता मृत्युशय्या पर थे। उनकी मृत्यु के बाद वह कलकत्ता में ही अपनी प्रेमिका हेनरिएट के साथ रहने लगे। कलकत्ता में उनके मित्र ईश्वरचंद्र विद्यासागर उनके अंग्रेज़पन के ठीक विपरीत बंगाली का प्रचार कर रहे थे। उन्होंने मधुसूदन को अपनी भाषा में लिखने के लिए प्रेरित किया हो, यह संभव है। 

मधुसूदन ने पहली बार बंगाली में नाटक लिखा- शर्मिष्ठा। यह राजा ययाति, रानी देव्यानी और सेविका शर्मिष्ठा के प्रेम-त्रिकोण पर आधारित था। इसे मधुसूदन अपने जीवन की दो प्रेमिकाओं की कथा से जोड़ पा रहे थे। 

मधुसूदन का यह नाटक लोकप्रिय हुआ। उन्होंने एक पत्र में लिखा है, “मेरे मुँह खून लगा गया, मैं और लिखने लगा”

खून लगा नहीं था, यही तो उनका असल खून था। वहीं चितपुर रोड के अपने घर में उन्होंने वह कालजयी काव्य लिखा- ‘मेघनाद-वध काव्य’। यह काव्य लक्ष्मण द्वारा मेघनाद वध पर आधारित था, जिसमें मेघनाद ही नायक थे। यह एक क्रांतिकारी रचना कई मामलों में थी। एक तो इसका विषय ही था। दूसरा, यह छंदमुक्त काव्य था, और इसकी भाषा तत्सम बंगाली होने के बावजूद पश्चिम का कलेवर लिए थी। इस काव्य की हज़ार से ऊपर प्रतियाँ बिक गयी। 

नीरद सी चौधरी ने लिखा है, “बंगाली घरों में उच्चारण सुधारने के लिए इस काव्य का पाठ किया जाता”

उन्होंने तिलोत्तमा पर भी एक काव्य लिखा, जो उनकी पत्नी हेनरिएट चाव से पढ़ती। वह भी अब बंगाली धारा-प्रवाह बोलने लगी थी। उन्होंने अपनी बेटी का नाम भी शर्मिष्ठा रखा। 

मगर माइकल के सर से अभी अंग्रेज़ भूत उतरा नहीं था। वह कविता त्याग कर बैरिस्टर बनने इंग्लैंड निकल गए। इस यात्रा में भी उनकी आर्थिक मदद ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने की। लंदन पहुँच कर उनका भ्रम टूट गया। 

वहाँ से उन्होंने लिखा, “यहाँ हम भारतीयों के साथ नीग्रो की तरह व्यवहार किया जाता है।"

माइकल वहाँ से भाग कर वर्साय (फ़्रांस) चले गए, लेकिन अंग्रेज़ी का प्रेम पूरी तरह खत्म नहीं हुआ था। वहाँ जब उनके शिशु का जन्म हुआ, उन्होंने उसका नाम अपने प्रिय कवि के नाम पर मिल्टन रखा। आखिर वह फिर से इंग्लैंड जाकर बैरिस्टर बने, और बड़े अरमानों से कलकत्ता लौटे।

उन दिनों भारतीय बैरिस्टर गिने-चुने ही थे। माइकल की शुरुआत तो ठीक-ठाक रही, लेकिन जल्द ही शराब की आदत ने उन्हें सड़क पर ला दिया। वह अंग्रेज़ों के मुहल्ले से निकल कर उत्तरपारा की गरीब बस्ती में आ गए। 26 जून, 1873 को वह कलकत्ता के एक अस्पताल में लेटे थे, जब उन्हें पता लगा कि उनकी प्रेमिका हेनरिएट की मृत्यु हो गयी। 

तीन दिन बाद बंगाल रिनेशां के इस इंद्रजीत ने भी दम तोड़ दिया। 
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha

भारतीय पुनर्जागरण का इतिहास - एक (12)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/08/12.html
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