ब्रिटिश राज में पहले विश्वविद्यालय उस वक्त खुले, जिस समय स्वतंत्रता संग्राम चल रहा था। 1857 में एक साथ कलकत्ता, बंबई और मद्रास में यूनिवर्सिटी बनाए गए। कलकत्ता में सबसे पहले। इसी क्रम में भारतीय रिनैशां भी आया। अगर वारेन हेस्टिंग्स मद्रास में ही रह जाते, कलकत्ता को केंद्र न बनाते, तो संभवत: मद्रास में पहले आता। मैं बंगालियों की नहीं, मद्रासियों की कथा कह रहा होता। हालाँकि अगली कथाएँ मद्रासियों की भी होगी, क्योंकि यह पुनर्जागरण उनके बिना पूर्ण होगा ही नहीं। दिल्ली और आगरा में यूनिवर्सिटी उस वक्त नहीं खुली। आखिर यह कोई मामूली वर्ष नहीं था। यह 1857 था!
मैं स्वतंत्रता संग्राम की चर्चा यहाँ नहीं करूँगा, वह अलग ही धारा है। लेकिन, कुछ विडंबनाएँ तो धीरे-धीरे दिखेगी ही। खैर।
महाविद्यालय और विश्वविद्यालय में क्या अंतर है? हिन्दू कॉलेज, संस्कृत कॉलेज, बिशप कॉलेज, ला मार्टिनिएर आदि तो कलकत्ता में थे ही। फिर कलकत्ता यूनिवर्सिटी से आखिर क्या होता? अब तो हम जानते हैं कि लोग पढ़ते कॉलेज में हैं, डिग्री यूनिवर्सिटी देती है। दिल्ली विश्वविद्यालय में ऐसी एक इमारत या कैम्पस नहीं, जिसे पूरा विश्वविद्यालय कहा जा सके। नॉर्थ कैम्पस से साउथ कैम्पस जाने के लिए पूरे दिल्ली का ही चक्कर लगाना पड़ जाए।
यह ब्रिटिश पद्धति है। ऑक्सफ़ोर्ड या कैम्ब्रिज रिटर्न का अर्थ यह न समझा जाए कि सब एक ही कॉलेज से पढ़ कर आए। वहाँ भी स्टीफेंस, वेंकी, हिंदू, सत्यवती कॉलेज हैं। अमरीकी विश्वविद्यालयों में कुछ अंतर है। वहाँ अमूमन एक भौगोलिक क्षेत्र में यूनिवर्सिटी मिल जाएँगे, भले उनके संकाय दूर-दूर हों। यह नहीं दिखता कि एक ही डिग्री, एक ही कोर्स एक ही यूनिवर्सिटी के बीस कॉलेजों में पढ़ाया जा रहा हो।
उस समय अंग्रेज़ों के विश्वविद्यालय का ध्येय शिक्षा को व्यवस्थित और स्थापित करना था, जिससे उनके अधिकारी, मुंशी, इंजिनियर, चिकित्सक, सैनिक, शिक्षक आदि तैयार हो सकें। 1854 में चार्ल्स वुड द्वारा लॉर्ड डलहौज़ी को लिखा पत्र भारत में अंग्रेज़ी शिक्षा का ‘मैग्ना कार्टा’ कहलाता है। उन्होंने लिखा,
“प्राथमिक शिक्षा भारतीय भाषा में ही दी जाए। हाइ स्कूल भारतीय और अंग्रेज़ी भाषा मिला कर। कॉलेज शिक्षा का माध्यम अंग्रेज़ी हो।”
पहले से चल रहे निजी कॉलेजों को विश्वविद्यालय में शामिल कर लिया गया। जैसे हिन्दू कॉलेज का नामकरण प्रेसिडेंसी कॉलेज हो गया। संस्कृत कॉलेज और कलकत्ता मेडिकल कॉलेज भी जुड़ गये। अन्य जितने छोटे-बड़े कॉलेज चल रहे थे, वे अर्जी देने लगे कि उन्हें भी मिला लिया जाए।
इंजीनियरिंग कॉलेज की शुरुआत कलकत्ता में नहीं हुई, बल्कि पहला कॉलेज संयुक्त प्रांत (अब उत्तराखंड) के शहर रुड़की में खुला। इसका आरंभिक उद्देश्य नहर और सिंचाई इंजीनियर तैयार करना था, जो थॉमसन कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग रूप में 1847 में स्थापित हुआ। अब यह आइआइटी रूप में है।
उन दिनों विज्ञान की अलग से पढ़ाई नहीं होती थी। मेडिकल, इंजीनियरिंग और कानून से इतर सभी डिग्री BA और MA ही कहलाते थे। गणित, भौतिकी, रसायन आदि की शिक्षा दी जाती थी, लेकिन आर्ट्स संकाय में ही। जबकि असल आर्ट जैसे कला और संगीत की शुरुआत में कोई जगह नहीं थी।
यूनिवर्सिटी खुलते ही यहाँ दूर-दूर से विद्यार्थी आकर पढ़ने लगे। चूँकि अब तीन स्तर की ब्रिटिश शिक्षा लागू थी, तो गाँव से पढ़ कर शहर के हाइ-स्कूल, और वहाँ से निकल कर कलकत्ता, बंबई, मद्रास। यह एक नियम बन गया। पहले पच्चीस वर्ष में कुल 1726 ग्रैजुएट तैयार हो गए। यह भले कम नज़र आए, मगर उस वक्त ग्रैजुएट तो क्या मैट्रिक पास होना आसान न था।
जब 1858 में पहली बीए परीक्षा हुई, तो दस परीक्षार्थी शामिल हुए। छह विषय थे। सभी के सभी फेल। दो विद्यार्थी ऐसे थे, जिन्होंने पाँच विषय पास किए थे, और छठे में सिर्फ़ छह अंक से फेल थे। उनको ‘ग्रेस मार्क्स’ से पास किया गया, और भारत के पहले दो ग्रैजुएट तैयार हुए। एक का नाम था जदू नाथ बोस।दूसरे का नाम था बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय!
(क्रमशः)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
भारतीय पुनर्जागरण का इतिहास - एक (14)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/08/14.html
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