“राम मोहन ईसाई के समक्ष ईसाई, और हिन्दू के समक्ष हिंदू था। एक बात ज़रूर थी कि वह मूर्ति-पूजन का घोर विरोधी था। लेकिन वह अपने ब्राह्मण अधिकार नहीं खोना चाहता था। अन्यथा, वह अपनी जाति, अपनी संपत्ति, अपना प्रभाव, अपना सब कुछ खो देता।”
- विलियम एडम, ईसाई इकाईवादी (यूनिटैरियन) एक पत्रकार के प्रश्न ‘क्या राम मोहन ईसाई था’ के उत्तर में
गांधी ने एक बार कटक में कहा कि चैतन्य महाप्रभु, गुरु नानक या कबीर जैसों के समक्ष राम मोहन राय एक ‘पिग्मी’ थे। हालाँकि इस कथन को अधिक तूल नहीं देनी चाहिए। यह उन्होंने भारतीय भाषा में संवाद पर बल देते हुए कहा था। उनके अनुसार राम मोहन राय अंग्रेज़ी में संवाद करते, इसी कारण आम-जन जुड़ नहीं पाते। अगर तुलना करें, तो गांधी और राम मोहन राय में कई साम्य भी दिखेंगे।
जैसे गांधी के शुरुआती दिनों में ट्रेन से धक्का दी जाने वाली घटना है। राम मोहन की भी शुरुआत भागलपुर की ऐसी घटना से हुई। 1809 ई. में।
वह उस वक्त वहाँ मुंशी हुआ करते, तो एक पालकी में बैठ कर जा रहे थे। उनकी पालकी एक ईंट भट्ठी के बगल से गुजरी, जहाँ कलक्टर डेविड हेमिल्टन खड़े थे। क़ायदे से उन्हें पालकी से उतर कर सलाम ठोकना था। मगर वह आगे बढ़ गए। हेमिल्टन ने आवाज़ लगायी, फिर भी पालकी नहीं रुकी। आखिर राम मोहन को पालकी से उतार कर गालियाँ दी गयी। राम मोहन ने भी सीधे गवर्नर जनरल लॉर्ड मिन्टो को शिकायती चिट्ठी लिख दी।
एक साधारण भारतीय मुंशी की चिट्ठी से लॉर्ड मिन्टो का कोई सरोकार नहीं होता, मगर वह चिट्ठी लंदन तक पहुँच गयी। एक भारतीय व्यक्ति की ऐसी उच्च कोटि की अंग्रेज़ी कभी देखी-सुनी नहीं गयी थी। ब्रिटिश को अपनी भाषा का बहुत गर्व था, और यहाँ ऐसे व्यक्ति ने लिख मारा था जो न कभी इंग्लैंड गया, न किसी स्कूल में सीखा, न कॉलेज में।
मैंने उस चिट्ठी की भाषा पढ़ी है। यह बिल्कुल गांधी की शैली से मिलती-जुलती है, जिसमें ब्रिटिश अफ़सरों का आदर करते हुए शिकायतों का घोल बनाया जाता है। ऐसी नैतिकता की नींव पर खड़ी, जिसका दमन कठिन हो।
मूर्ति-पूजा के विरोध में राम मोहन राय ने पहले एक पूरी पुस्तक लिखी, जिसमें वेदों और ग्रंथों के संदर्भ दिए। उस समय फ़ोर्ट विलियम कॉलेज के संस्कृत पंडित ने उनके जवाब में बंगाली और अंग्रेज़ी में लेख लिखा। राम मोहन राय ने भी दोनों भाषाओं में जवाबी लेख लिखा। उन लेखों में कहीं भी क्रोध का पुट नहीं, बल्कि यूँ लगता है कि कोई शास्त्रार्थ चल रहा हो। बाद में, गांधी ने भी इस चिट्ठियों और लेखों से सवाल-जवाब को खूब अपनाया।
गांधी के मन में भी धार्मिक प्रश्न खूब उठते थे, और ईसाई धर्म से वह प्रभावित थे। हमें उस समय के माहौल को समझना चाहिए, जब धर्म से कहीं अधिक ब्रिटिश तौर-तरीकों का आकर्षण था। वे शासक-वर्ग थी, उनकी डिग्रियाँ, उनकी नौकरियाँ, उनका वेतन। उनके रंग में ढल रहे एक युवक के लिए ऐसे प्रश्न स्वाभाविक थे। मिशनरियों की गिद्ध-दृष्टि और सौम्य भाषा तो खैर थी ही।
जब सती-प्रथा पर प्रश्न उठने शुरु हुए, तो अंग्रेज़ों ने यह प्रस्ताव रखा कि एक ‘कानूनी सती’ और एक ‘ग़ैरक़ानूनी सती’ होगी। यानी, स्वेच्छा से कोई सती होना चाहे, तो हो जाए। धर्म-सभा ने इसके पक्ष में एक अंग्रेज़ वकील को नियुक्त किया। राम मोहन राय स्वयं तो वकील थे नहीं कि कचहरी में लड़ते। उन्होंने एक पुस्तिका लिखी, जिसमें एक वकील और उसके विपक्षी के मध्य इसी विषय पर ज़िरह थी। एक तरह से देखें तो शास्त्रार्थ, जिसके दोनों पक्ष स्वयं उन्होंने ही लिखे। बाद में ऐसी सवाल-जवाब शैली की पुस्तिका गांधी ने भी लिखी, जिसका नाम था ‘हिन्द स्वराज’।
(क्रमशः)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
भारतीय पुनर्जागरण का इतिहास - एक (5)
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