भारत के प्राचीन किलों में से कोई भी क़िला कब बना, कब ध्वस्त हुआ और कब इसका पुनर्निर्माण हुआ, इसका कोई लिखित प्रमाण मौजूद नहीं है। अलबत्ता मुग़ल शासकों द्वारा दिल्ली और आगरा में बनवाए गए किलों, इमारतों की तिथियाँ ज़रूर मिलती हैं। यही हाल पलामू के क़िले का है। उसकी बनावट, अभेद्यता और हवा-पानी से इसकी प्राचीरों में आई घिसावट से लगता है कि यह क़िला कम से कम छह से सात सौ साल पुराना है। पर जिन चेरो राजवंश के राजाओं ने उस क़िले पर राज किया, उनका इतिहास 400 साल पहले शुरू होता है। कुछ लोग इसे चेरों के पहले यहाँ राज कर रहे राजपूत राजवंश (रेकसोल) से इसे जोड़ते हैं। परंतु क़िले में जगह-जंगल मुग़ल शैली के गुंबद कंफ़्यूज़्ड करते हैं।
यहाँ दो क़िले हैं। एक जो कुछ अधिक प्राचीन है वह समतल ज़मीन पर है। इसकी बनावट से यह बहुत पुराना लगता है। सीढ़ियाँ घिसी हुई और प्राचीर पर लगी काई को समझें तो यह 14वीं शताब्दी से पहले का है। मुग़लों के पूर्व तुर्क तो यहाँ नहीं आए किंतु सासाराम के अफ़ग़ान शासक शेरशाह सूरी ने इस क़िले पर धावा बोला था। लेकिन इस्लामी स्थापत्य के जो गुम्बद यहाँ हैं, उन्हें देख कर लगता है कि किसी इस्लामी शासक ने इस क़िले में कुछ वर्षों के लिए ही सही आधिपत्य जमाया था। पर ऐतिहासिक प्रमाण सिर्फ़ औरंगज़ेब के वक्त को ही मानते हैं। जब उसके सेनापति ने यह क़िला जीता था और चेरों वंश के एक राजा ने इस्लाम स्वीकार कर लिया था। यह भी प्रमाण है कि धर्मांतरित शासक को कुछ ही महीनों बाद उसके भाइयों ने मार दिया और फिर से यहाँ चेरो राजवंश के शासक आ गए। इसलिए हो सकता है, कि इस दौरान इसके स्थापत्य में कुछ फेर बदल हुआ हो।
यहाँ जो सबसे बड़ा हमला हुआ वह मुग़लों के एक सूबेदार शाइस्ता ख़ान ने किया था। जिसके चलते यहाँ के शासकों को कुछ दूर 500 मीटर ऊँची पहाड़ी पर दूसरा क़िला बनवाना पड़ा था। यह क़िला अपेक्षाकृत नया है और उसके एक द्वार पर कैथी लिपि में एक इबारत उत्कीर्ण है। इसके अनुसार यह क़िला 1670 विक्रमी (अर्थात् 1613 ईस्वी) में बना। उस समय दिल्ली की गद्दी पर शाहजहाँ शासन कर रहा था। स्थापत्य की दृष्टि से यह क़िला भव्य न हो लेकिन रणनीतिक दृष्टि से यह सुरक्षित और दुश्मन के लिए अभेद्य है। इस क़िले के ऊपर से जंगल, पहाड़ और कुछ दूरी पर बह रही औरंगा नदी का विस्तार मन मोह लेता है।
यह भी विचित्र है कि नीचे समतल पर बने क़िले को रानी महल कहा जाता है। इसकी प्राचीर कोई 25 से 30 फ़िट ऊँची हैं और चौड़ी इतनी की एक साथ दो घोड़े दौड़ सकें। पाँच किमी में फैले इस क़िले में किसी भी देवी-देवता की मूर्ति नहीं है। एक कुआँ है जो काफ़ी गहरा है। कहते हैं रानी यहाँ स्नान करती थीं। पर कोई जगत नहीं है। इस कुएँ में नीचे जाने का रास्ता एक सुरंग से है। एक और सुरंग है जो क़िले से बहुत दूर जंगल में खुलती है। इस क़िले में जितनी देर रुका जाए उतना ही इसका आकर्षण अपनी तरफ़ खींचता है। जंगलों के बीच ऐसा दुर्ग शायद बुडापेस्ट में हो। एक घंटे बाद वहाँ से बाहर निकले तो सूरज डूबने को आ गया था। पर हमारे साथ गए एक स्थानीय प्रधान नज़ीर मियाँ हमें पहाड़ी वाले क़िले में ले गए। ऊबड़-खाबड़ और सीधी चढ़ाई वाला रास्ता था। हमारी गाड़ी ऊपर तक पहुँच गई। यह क़िला अपेक्षाकृत नया था। इसका स्थापत्य इसे 400 वर्ष से अधिक पुराना नहीं बता रहा था। वहाँ उत्कीर्ण शिलालेख और लोक मान्यताओं के अनुसार यह क़िला चेरो राजा भगवंत राय ने बनाया था। नज़ीर मियाँ ने बताया कि शाइस्ता ख़ान इस क़िले को नहीं ले पाया। क्योंकि मुग़ल सेना नीचे रहती, ऊपर से चेरो सेना के लोग पत्थर व तीरों की बौछार करते।
इसी वंश के एक प्रतापी राजा मेदिनी राय ने 1658 से 1674 तक यहाँ राज किया। पर जब औरंगज़ेब ने बिहार की दीवानी सँभाली तब यहाँ पर तगड़ा हमला हुआ और राजा मेदिनी राय कुछ दिनों के लिए क़िला छोड़ गए। क्योंकि दाऊद खान के साथ दरभंगा के फ़ौजदार मिर्जा खान, चैनपुर के जागीरदार, मुंगेर के राजा बहरोज, कोकर के नागवंशी राजा भी थे। यह भी बताया गया कि दाऊद खान को औरंगजेब से आदेश मिला कि चेरो राजा को इस्लाम अपनाने को कहा जाए। मेदिनी राय जंगल में भाग गए। दोनों किलों पर मुग़ल फ़ौज का क़ब्ज़ा हो गया। बताया जाता है, कि तब यहाँ के मंदिर तोड़ दिए गए और आस-पास की प्रजा को इस्लाम क़ुबूल करने को कहा गया। लेकिन जल्दी ही मेदिनी राय ने फिर इन दोनों किलों को अपने क़ब्ज़े में ले लिया था।
हम क़िले के अंदर जा कर उसके शिखर पर पहुँचे। दूर औरांग नदी बाह रही थी और जंगलों के बीच यह क़िला शान से खड़ा था। लग रहा था, मानों आज हम शिखर पर हों। दूर नीचे पुराना क़िला था। देखते-देखते सूरज डूबने लगा और तब हम भी लौट पड़े।
(जारी)
© शंभूनाथ शुक्ल
लातेहार यात्रा (2)
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