वर्ष 1907 में काणे को मुंबई के एलफिंस्टन कॉलेज में संस्कृत के मुख्य अध्यापक के रूप में नियुक्त किया गया। यह पद उनके शोध कार्यों के अनुकूल था। इसी वर्ष उन्होंने 'प्राचीन भारतीय साहित्य' पर अपना एक अन्य शोध कार्य पूर्ण किया और उन्हें पुन: 'वी.एन.मॉडलिंग स्वर्ण पदक' से सम्मानित किया गया। वर्ष 1908 में डॉ. काणे ने एल.एल.बी. (वकालत) की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। सन् 1909 में जब वे एलफिंस्टन कॉलेज में संस्कृत के प्राध्यापक के पद पर थे, वहाँ पर अपनी योग्यता और प्रतिभा की अनहोनी होती देख उन्होंने त्यागपत्र देकर वकालत प्रारम्भ की। वकालत के साथ साथ वे संस्कृत भाषा और प्राचीन भारतीय संस्कृति पर शोध कार्य करते रहे और इन विषयों से सम्बन्धित व्याख्यान भी निरंतर देते रहे।
पांडुरंग वामन काणे का सबसे बड़ा योगदान उनका विपुल साहित्य है, जिसकी रचना में उन्होंने अपना महत्त्वपूर्ण जीवन लगाया। वे अपने महान ग्रंथों - 'साहित्यशास्त्र' और 'धर्मशास्त्र' पर 1906 ई. से कार्य कर रहे थे। इनमें 'धर्मशास्त्र का इतिहास' सबसे महत्त्वपूर्ण और प्रसिद्ध है। पाँच भागों में प्रकाशित बड़े आकार के 6500 पृष्ठों का यह ग्रंथ भारतीय धर्मशास्त्र का विश्वकोश है। इसमें ईस्वी पूर्व 600 से लेकर 1800 ई. तक की भारत की विभिन्न धार्मिक प्रवृत्तियों का प्रामाणिक विवेचन प्रस्तुत किया गया है। हिन्दू विधि और आचार विचार संबंधी उनका कुल प्रकाशित साहित्य 20,000 पृष्ठों से अधिक का है।
● धर्म की व्याख्या
काणे ने धर्म की व्याख्या उसके उदार रूप में की है। उन्होंने छुआछूत का विरोध किया, अंतर्जातीय और विधवा विवाह का समर्थन किया। परिस्थिति उत्पन्न होने पर वे महिलाओं के तलाक़ के अधिकार के भी समर्थक थे। उनकी मान्यता थी कि हिन्दू धर्म के मूल में राष्ट्रीयता, लोकतंत्र और विश्वबंधुत्व की भावना विद्यमान है। वे कहते थे कि धर्मशास्त्र के ग्रंथ 'अनित्य' हैं और समय के साथ धर्म में भी परिवर्तन होना चाहिए।
● प्राच्यविधा कांग्रेस की अध्यक्षता
काणे को उनके योगदान के लिए अनेक सम्मान मिले। कई विश्वविद्यालयों ने 'डॉक्टरेट' की डिग्री दी। मुम्बई विश्वविद्यालय के कुलपति रहे। भारतीय इतिहास कांग्रेस और प्राच्यविधा कांग्रेस की अध्यक्षता की। 1948, 1951 और 1954 में प्राच्य विद्याविदों के अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में भारतीय प्रतिनिधि मंडल का नेतृत्व किया।
पांडुरंग वामन काणे ज्ञान के अद्भुत भंडार थे। उनका हिन्दी, संस्कृत भाषा के अतिरिक्त जर्मनी, अंग्रेज़ी, फ्रेंच, उर्दू, फारसी आदि भाषाओं पर समान अधिकार था। वे हिन्दू धर्म और संस्कृति के अटूट रक्षक थे। उन्होंने मानवता और सत्यता के आधार पर कट्टर ब्राह्मण होते हुए भी हरिजनों के उद्धार के लिए भी महत्त्वपूर्ण कार्य किए। उन्होंने ' मुस्लिम लॉ' का भी गहरा अध्ययन किया। उन्होंने मुस्लिमों के अधिकारों के लिए भी संघर्ष किया। डॉ. काणे अद्भुत व्यक्तित्व के स्वामी थे।
एक ओर जहाँ वे भारतीय भाषा, धर्म, संस्कृति, के जीवंत कोश थे, वहीं दूसरी ओर अनेक विषयों पर अपनी वाकपटुता से ऐसा वातावरण बना देते थे कि व्यक्ति सबकुछ भूलकर उन्हीं को देखता और सुनता रहता था। उनकी विद्वता का सम्मान करते हुए सन् 1942 में उन्हें 'महामहोपाध्याय' की उपाधि से विभूषित किया गया। इसी वर्ष इलाहाबाद विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें 'डी.लिट.' की मानद उपाधि से समानित किया।
सन 1946 में वे नागपुर में आयोजित 'इडियन ओरिएंटल कांफ्रेंस' के अधिवेशन के अध्यक्ष बनाये गये। सन् 1947 में उन्हें 'बम्बई विश्वविद्यालय' का उपकुलपति बनाया गया। सन् 1953 और उसके बाद दो बार और उन्हें राज्यसभा का सदस्य मनोनीत किया गया। वर्ष 1959 में भारत सरकार ने उन्हें 'भारतीय प्राच्य विद्या' का 'राष्ट्रीय शिक्षक' नियुक्त किया। उनकी विद्वत्ता की प्रसिद्धि भारत में ही नहीं वरन विदेशों में भी थी। विश्व मंच के अंतर्राष्ट्रीय धर्म, भाषा, साहित्य सम्मेलनों में दो बार उन्होंने भारत का प्रतिनिधित्व किया।
डॉ. काणे की महानतम उपलब्धियों में उनके द्वारा लिखे गये महानतम ग्रंथ प्रमुख हैं, जिन्हें लिखने में उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश भाग लगा दिया था। डॉ. काणे ने कुल 18 ग्रंथ पुस्तकों और 21 शोध पत्रों का सृजन किया। इनके लिखे ग्रंथों में 'धर्मशास्त्र का इतिहास', 'संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास', 'भारतीय रीति रिवाज़' और 'आधुनिक विधान' उच्चकोटि के वे महानतम ग्रंथ हैं जिन्होंने डॉ. काणे को अंतर्राष्ट्रीय विश्व मंच पर भारतीय साहित्य के एक युग के रूप में प्रतिष्ठित किया।
'धर्मशास्त्र का इतिहास' 6500 पृष्ठों का ग्रंथ है। यह ग्रंथ इस बात का प्रमाण है कि डॉ. काणे ने अथक लगन और परिश्रम से इस ग्रंथ का निर्माण किया। डॉ. काणे के ये ग्रंथ अंग्रेज़ी भाषा में लिखे गये हैं। इस सब के पीछे शायद उनका यह उद्देश्य था कि अंग्रेज़ी भाषा में लिखे होने के कारण भारतीय धर्म, भाषा, संस्कृति की प्राचीनतम और अमूल्य धरोहर को विश्व के अधिकांश देशों में पढ़ा और जाना जा सका।
डॉ. पांडुरंग वामन काणे की महान उपलब्धियों के लिए भारत सरकार द्वारा सन् 1963 में उन्हें 'भारत रत्न' से सम्मानित किया गया।
डॉ. काणे का पूरा जीवन भारतीय धर्म, भाषा, संस्कृति के प्रचार प्रसार में लगा रहा। उनका पूरा जीवन भारतीय धर्म, भाषा, संस्कृति को सुदृढ़ करने में समर्पित रहा। डॉ. काणे आजीवन मुम्बई की 'रॉयल एशिया हिंद सोसायटी' और ब्राह्मण सभा मुम्बई से सम्बद्ध रहे। जीवनपर्यंत वे एक कर्मयोगी की भांति साहित्य की सेवा करने वाले इस महान साहित्यकार, धर्मशास्त्री और शिक्षाशास्त्री का 18 अप्रॅल, 1972 को निधन हो गया।
© प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी
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