अब वक्त आ गया है कि हम ‘हीनभावना’ वाली बात पर पुन: लौटें। आखिर यह भारतीयों के अंदर कौन डाल गया? कैसे हज़ारों वर्ष की सभ्यता और संस्कृति में कमजोरियाँ न सिर्फ़ दिखने लगी, बल्कि हम जाने-अनजाने इससे नफ़रत करने लगे? पश्चिम की श्रेष्ठता के सामने शीश झुकाने लगे? अंग्रेज़ों के चले जाने के बाद भी?
राम मोहन राय समाज के नैतिक पतन के आलोचक अवश्य थे, किन्तु उनकी नींव उपनिषद और वेदांत थे। उनके तर्क पश्चिमी सिद्धांतों पर नहीं, बल्कि भारतीय ग्रंथों और तत्त्वमीमांसा (मेटाफिजिक्स) पर आधारित थे। सर विलियम जोन्स और हेनरी कोलब्रुक जैसे ब्रिटिश भी प्राच्यविद (ओरियेंटलिस्ट) थे, जिन्होंने भारतीय ग्रंथों का अध्ययन किया था और उन्हें उच्च कोटि का माना था।
यह एक आश्चर्य है कि भारत का भविष्य उन लोगों ने नहीं, बल्कि ऐसे नामाकूल लोगों ने लिखा जिन्होंने भारत में बहुत कम समय बिताया। एक ने तो कभी इस धरती पर कदम भी नहीं रखा!
ब्रिटिश भारत का पहला विस्तृत इतिहास लिखने वाले जेम्स मिल कभी भारत आए ही नहीं। वह अपने पुस्तक की भूमिका में कुतर्क देते हैं,
“एक सुशिक्षित व्यक्ति इंग्लैंड में एक साल बंद कमरे में बैठ कर भारत के विषय में इतना जान सकता है, जितना भारत में वर्षों रह कर अपना कान और आँख लगा कर नहीं जान सकता”
यह बात इंटरनेट युग में थोड़ी-बहुत मानी जा सकती है, मगर उस वक्त? ऐसी बंद कमरे में लिखी पुस्तक न सिर्फ़ पढ़ी गयी, बल्कि इसके कई संस्करण निकले और ब्रिटिश अधिकारियों के लिए यह अनिवार्य पाठ रखा गया। उन्होंने इसी छद्म इतिहास के आधार पर भारत की छवि बनायी, और प्रशासनिक निर्णय लिए।
मिल ने लिखा- ‘भारत का संपूर्ण साहित्य छंदयुक्त है। विज्ञान, इतिहास, खगोलशास्त्र और दर्शन छंदों में ही अंकित हैं। भारतीय इस तुकबंदी में ही खोए रह गए, और आगे नहीं बढ़ पाए।’
यह बात कुछ हद तक सही थी कि राजतरंगिणी, हर्षचरितम, या कालिदास की रचनाएँ छंदयुक्त ही थी। लेकिन, उस काल की पाश्चात्य या ग्रीक रचनाएँ भी छंदयुक्त ही होती थी।
रामायण और महाभारत की वह प्रशंसा करते हैं, मगर उसके साथ यह जोड़ देते हैं कि ये इतिहास से अधिक मिथक नजर आते हैं। भगवद्गीता पर उनकी व्यंग्यात्मक टिप्पणी थी कि “इसके अनुवादक ने यूँ प्रस्तुत किया है जैसे कि यही संपूर्ण भारतीय दर्शन हो”।
अभिज्ञान शाकुन्तलम् पर उनकी टिप्पणी है- ‘कुछ छंद अच्छे हैं, किंतु इससे एक असभ्य समाज के विचार झलकते है।’
गणित और खगोलशास्त्र पर मिल लिखते हैं कि यह भारतीयों की खोज नहीं लगती। उन्होंने ज़रूर फ़ारस या ग्रीस से सीखा होगा।
उन्होंने सर विलियम जोन्स और अन्य प्राच्यविदों को सिरे से ख़ारिज करते हुए लिखा कि वे ख़्वाह-म-ख़्वाह भारत की तारीफ़ के पुल बाँध रहे थे, जबकि यह संस्कृति एक स्थूल और निस्तेज संस्कृति है, जो कभी प्रगति पथ पर गयी ही नहीं।
इतिहास में रुचि वाले व्यक्ति के लिए यह पुस्तक एक आदर्श उदाहरण है कि ‘इतिहास कैसे नहीं लिखनी चाहिए’। कैसे इतिहास लेखन एक देश का भविष्य बरबाद कर सकती है। यह बात सिर्फ़ मैं नहीं कह रहा, बल्कि थॉमस ट्रॉटमैन ने लिखा, “यह एक पुस्तक ब्रिटिशों में भारतीयों के प्रति घृणा का सबसे बड़ा स्रोत बना”
बाद में इसी पुस्तक का संपादन करने वाले होरेस विल्सन ने प्रस्तावना में लिखा,
“मैं इस पुस्तक की तमाम कमियों को सुधारने का प्रयास इसलिए कर रहा हूँ ताकि भविष्य में इस ग़लत और अशुद्ध इतिहास के क्रूर परिणामों से बचा जा सके”
विल्सन के इस संपादन और सुधार में बहुत देर हो गयी। थॉमस मकाले वह ग़लत इतिहास पढ़ कर ही भारत आए, और भारत पर आंग्लवाद का एक ऐसा स्थायी, दीर्घकालिक ठप्पा लगा कर चले गए जिसकी छाप इस लेखक के माथे पर भी है।
(क्रमशः)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
भारतीय पुनर्जागरण का इतिहास - एक (1)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/08/7_18.html
#vss
No comments:
Post a Comment