पलामू के दोनों किलों को देखने के बाद वापस बेतला लौट आए। सूरज डूब चुका था, लेकिन उजाला अभी बाक़ी था। बेतला नेशनल पार्क अपनी नाइट सफ़ारी के लिए मशहूर है। दो हथिनी बाहर खड़ी थीं, जो कभी पर्यटकों को जंगल के अंदर ले ज़ाया करती थीं। चूँकि कोरोना के कारण हाथी पर चढ़ कर जंगल घूमने पर प्रतिबंध लगा दिया गया है, इसलिए उनके महावत गेट के बाहर अपनी-अपनी हथिनी को लेकर करतब दिखाने में मशगूल थे। कोई कुछ दे दे तो दे दे। कोरोना ने हथिनी और महावत दोनों का रोज़गार छीन लिया है। कुछ देर तक हम भी इनका करतब देखते रहे। रात जब घिरने लगी, तब गाड़ी से जंगल घूमने का मन बनाया। रात साढ़े सात पर जंगल का गेट खुला और हम इस रिज़र्ब फ़ॉरेस्ट में दाखिल हुए। जिस कच्ची सड़क पर गाड़ी चल रही थी बस वही दीखती थी। बाक़ी दोनों तरफ़ घोर अँधेरा। आसमान में तारे यूँ छिटके जैसे जुगनूँ। गाइड बीच-बीच में जब टॉर्च से रोशनी दाएँ-बाएँ फेंकता तो कभी हिरणों का झुंड दिखता तो कहीं बारहसिंघा। एक जगह स्याही दिखी तो कहीं ख़रगोश खाने वाला बिलार। इस इलाक़े को पलामू टाइगर रिज़र्व भले कहा जाए लेकिन टाइगर अब इतिहास बन चुके हैं। तेंदुआ ज़रूर है। किंतु तेंदुआ बस्ती के पास रहना पसंद करता है। उसका मुख्य शिकार पालतू पशु, कुत्ते आदि होते हैं। मनुष्यों पर भी वह हमला करता है, लेकिन जब बहुत भूखा हो या आदमख़ोर बन गया हो, तब वह मनुष्यों को अपना शिकार बनाता है।
इस फ़ॉरेस्ट में भेड़िया भी नहीं है। हाँ सियार ख़ूब हैं। कहीं-कहीं जंगली सुअर हैं, भालू और हाथी हैं। लेकिन जंगली भैंसे बहुत अधिक हैं। क़रीब दस किमी आगे जाने के बाद एक चढ़ाई थी, वहाँ ऊँचे-ऊँचे वृक्षों से झाँकता शुक्ल पक्ष की तीज का चाँद दिखा। उस दृश्य की तस्वीर लेने की इच्छा मुझे हुई। मैंने कहा गाड़ी रोको, मुझे चंद्रमा की फ़ोटो लेनी है। हँसिये के आकार का चाँद मुझे बहुत प्यारा लग रहा था और उसके साथ का सितारा भी। गाड़ी रुकी, लेकिन चाँद पेड़ों की ओट में था। मैंने गाड़ी और पीछे कराई लेकिन चाँद पकड़ में नहीं आ रहा था। चाँद तो हर बार “तरु-पल्लव मा रहा लुकाई!” जैसा हो जाता। मैंने गाइड से पूछा कि मैं गाड़ी से उतर कर फ़ोटो खींच लूँ, लेकिन उसने मना कर दिया। बोला, यह जंगल है, यहाँ रात को टूरिस्ट के गाड़ी से उतरने की इजाज़त नहीं है। मैं मन मसोस कर उस दृश्य की फ़ोटो लेने से वंचित रह गया। क़रीब आधे घंटे तक गाड़ी और इधर-उधर घूमती रही लेकिन मैं अपने मन की न कर सका। हिरणों की फ़ोटो खींचने की मेरी इच्छा नहीं हुई।
जिस किसी ने भी बाँग्ला के सुप्रसिद्ध उपन्यासकार विभूति भूषण बंद्योपाध्याय का ‘आरण्यक’ पढ़ा होगा, उसे जंगल, रात, चाँदनी और एकांत के एकालाप का अंदाज़ होगा। चाँदनी रातों में जंगल का एकांत सम्मोहित करता है। और फिर विभूति बाबू ने पलामू के जंगलों और उनकी कटाई का अद्भुत वर्णन किया है। उनके इस आरण्यक उपन्यास का नायक कलकत्ता का पढ़ा-लिखा बेरोज़गार है। उसे उसका एक दोस्त कहता है कि बिहार के जंगलों में 15-20 हज़ार बीघा जंगल उसकी ज़मींदारी में है, तुम वहाँ जा कर उस जंगल को सलामी लेकर रैयत में बाँट दो। नायक जब कलकत्ता से इस जंगल में आता है तो शुरू-शुरू में यहाँ का एकांत उसे बहुत बेचैन करता। कई बार उसने इस बीहड़ जंगल से भाग जाने का मन बनाया। हफ़्तों यहाँ मनुष्यों के दर्शन नहीं होते। 50 गज चौड़े और इतने ही लंबे मैदान के पेड़ों को साफ़ कर कुछ झोपड़ियाँ बनायी गई थीं। नायक चूँकि इस जंगल के ज़मींदार का मैनेजर था, इसलिए उसकी झोपड़ी फूस का बँगला जैसी थी। बाक़ी एक मुंशी और एक चौकीदार। आने-जाने के लिए एक घोड़ा था। इस मैदान के मुख्य द्वार पर कुछ कँटीली झाड़ियाँ थीं, बस यही अवरोध था। लेकिन यह टोटका जैसा ही था। कुत्ता भी धक्का मारे तो यह द्वार खुल जाता। तीनों चूँकि अलग-अलग जाति से थे इसलिए उस समय की लोक परंपरा के अनुसार अपनी रसोई भी ख़ुद बनाते। यहाँ कोई ब्राह्मण रसोईया भी नहीं था। ऐसे निर्जन में रहना भला एक कलकतिया बाबू को कैसे रास आता?
लेकिन जैसे-जैसे दिन बीतते गए, नायक को जंगल के एकांत से प्रेम होने लगा। जब कभी देर रात मैनेजर बाबू घोड़े पर सवार होकर जंगल के दूसरे किनारे पर बनी कचहरी से लौटते तो उन्हें कभी यन न महसूस होता कि यह जंगल पराया है अथवा यहाँ मनुष्यों का वास नहीं है। जंगल की माया विचित्र होती है। उसमें आदमी फँस गया तो निकलना मुश्किल। जब कभी फुलकैया बहार में वे चाँदनी रात में होते उसके रूप-पाश में बँध जाते। ठीक वैसा ही दृश्य था, जैसा मैथिली शरण गुप्त अपने खंड काव्य “पंचवटी” में लिखते हैं-
चारु चंद्र की चंचल किरणें, खेल रही थीं जल-थल में।
स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई थी अवनि और अम्बर तल में।
( जारी.... बाक़ी का वर्णन अगली किस्त में )
© शंभूनाथ शुक्ल
लातेहार यात्रा (3)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/08/3.html
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