( 83साल पहले,5 दिसंबर 1936 को बिहार प्रांतीय कांग्रेस समाजवादी सम्मेलन के अध्यक्षीय भाषण में डॉ राममनोहर लोहिया ने दंगों के बारे में जो कहा था, वह दंगों से पीड़ित आज के हिंदुस्तान के संदर्भ में भी एकदम सामयिक है।प्रस्तुत है उस ऐतिहासिक भाषण के अंश!)
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...अब हम अपने साम्राज्य विरोध की उस कमजोरी का मुआयना करें जो हमारी विफलता का, अमूमन,बहुत बड़ा सबब मानी जाती है।मेरा मतलब मजहबी झगड़ों और मनमुटाव से है।यह बात तो सच है कि इन आपसी झगड़ों के कारण हमारे साम्राज्य विरोध को धक्का पहुंचता है।हमारी आजादी की पलटन में काफी दरार रह जाती है।लेकिन यहाँ यह कह देना भी जरूरी है कि ये झगड़े इतने विकराल नहीं हैं जितना तूल इन्हें दिया जाता है।अगर कहीं दंगा एक शहर के कुछ मोहल्लों में हो भी गया तो हमें इस बात को भी स्मरण रखना चाहिए कि सारे देश का दैनिक जीवन तो हमेशा की तरह चलता रहा ।लेकिन अगर हम इस बात को भूलकर उसे ही जादा तूल देते हैं तो हम डर, शक़ और मजहबी मनमुटाव की मात्रा ही बढ़ाते हैं!
लेकिन सवाल तो यह है कि ये झगड़े होते क्यों हैं?आपसी शक़ क्यों है और इनको मिटाने के तरीके क्या हैं?मजहबी झगड़ों के ऊपरी कारण तो कभी मस्जिद हैं कभी मंदिर।इन झगड़ों में कभी कभी पेशेवर बदमाशों का भी हाथ रहता है।जैसे, अबकी बार बम्बई के मवालियों और गुंडों का था।आर्थिक संघर्ष ही मजहबी दंगे का रूप अख्तियार करते हैं, वैसे ही, देश की जातियां अपने आर्थिक विकास और शिक्षा में बराबर नहीं हैं, हिन्दू, मुसलमानों की अपेक्षा जादा उन्नत हैं।फिर अगर किसान एक सम्प्रदाय का हुआ और जमींदार दूसरे सम्प्रदाय का, तो सहज ही उनका आर्थिक संघर्ष एक साम्प्रदायिक झगड़े का रूप ले लेता है।हाँ, इसमें शक़ नहीं कि आम जनता में धार्मिक कट्टरता तो नहीं, लेकिन एक ऐसी धार्मिक तबियत रहती है जो उकसाई जा सकती है और जिसके सबब कई तरह की शक्तियों को झगड़ा फसाद करने का मौका मिलता है।
इस मजहबी विभेद को हम कैसे मिटा सकते हैं?कुछ कहते हैं, धर्म की सच्चाई को समझाकर, कुछ दूसरे कहते हैं कि सच्ची राष्ट्रीयता की शिक्षा देकर।जहाँ तक धर्म की सच्चाई की शिक्षा का सवाल है, अनुभव से कहा जा सकता है कि यह दुधारी तलवार है।इससे तो अक्सर मजहबी मनमुटाव बढ़ जाता है।कम से कम इस शिक्षा से हम अपनी आजादी की पलटन की दरार नहीं पाट सकते, हाँ, सच्ची राष्ट्रीयता की शिक्षा एक दूसरे सिरे पर है।इसमें हमें सफलता मिलनी चाहिए।लेकिन अगर सच्ची राष्ट्रीयता के माने यह बतलाया जाता है कि सभी सम्प्रदाय और मजहब एक ही भारतमाता के लाडले भाई हैं और इसी भाईचारे की अपील से शक़,डर और झगड़े मिटाने की कोशिश होती है तो भले ही कुछ देर के लिए हम प्रेम के भाव जगा दें, वे टिकाऊ नहीं होंगे।सच्ची राष्ट्रीयता तो तभी जग सकती है जब सभी संप्रदायों की, हिन्दू-मुसलमानों की, आम जनता अपनी अवनति के कारण समझकर, साम्राज्यवाद के उन सभी किलों पर हमला करे जो इसकी उन्नति का रास्ता रोके हुए हैं।मजदूरी, कर, लगान, कर्जा, उद्योग नीति वगैरह के सवालों को उठाकर ही राष्ट्रीय एकता की पलटन बन सकती है।यह एकता टिकाऊ होगी।इसमें मजहबी तबियत को उकसाने की गुंजाइश नहीं होगी।
मजहबी विभेदों को मिटाने का यह रास्ता समाजवादी रास्ता कहा जाता है।इसमें समाजवाद की कोई खास बात नहीं है।हां, समझ जरूर है।समाजवादी को यह रास्ता इसलिए पहले मिलता है क्योंकि वह ऐतिहासिक विकास को वर्गसंघर्ष का फल समझता है।साम्राज्य विरोधी लड़ाई में यह देखना जरूरी हो जाता है कि कौन से तबके और वर्ग किस तरफ हैं?साम्राज्य विरोधी तबकों को उनकी हालत के मुताबिक तरक्की की मांगों पर संगठित किया जाता है और तभी वे मुल्की आजादी की लड़ाई में एक होकर, मिलकर आगे बढ़ते हैं।इसलिये अगर हमें हिन्दू, मुसलमान और दूसरे मजहबों के आपसी झगड़ों को हमेशा के लिए मिटाना है और इन्हें साम्राज्य विरोधी पलटन के रूप में, कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा करना है तो उनके संगठन की बुनियाद उनकी तरक्की की मांगें होंगीं!
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( स्त्रोत: 'समाजवादी आंदोलन के दस्तावेज',पेज147-148 )
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