Friday, 16 April 2021

मीडिया का दुंदुभिवादन

जब किसी का गुब्बारा इतना फुला दिया जाता है, तो वह कभी न कभी बर्स्ट होता ही है। इसीलिये ज़रूरत है समय समय पर हवा निकालते रहिये। आत्मश्लाघा एक भाव है और यह सभी मनुष्यों में समान रूप से है। देवताओं का तो यह एक स्थायी भाव है। असंख्य स्तुतिया, और उन असंख्य स्तुतियों पर देवताओं का प्रसन्नवदनं हो कर अवतरित हो जाना और फिर तथास्तु कह कर अंतर्ध्यान हो जाने की अनेक कथाएं हमारे कथा सागर में जगह जगह, अलग अलग संदर्भों सहित उपलब्ध हैं। 

पर यही आत्मश्लाघा का भाव जब किसी व्यक्ति का स्थायी भाव बन जाता है या परम चाटुकारों द्वारा उसे निरन्तर इंजेक्ट किया जाता रहता है तो वह, उस व्यक्ति को प्रभा मंडल के एक ऐसे आवृत्त में पहुंचा देता है, जहां से वह व्यक्ति, गढ़े गए प्रकाश पुंज के कारण कुछ देख ही नहीं पाता है और उसे उस अंधकार का एहसास ही नहीं होता है कि उस अंधकार में क्या क्या दुश्वारियां हैं।

यह खबरे भारतीय मीडिया, विशेषकर टीवी चैनल, या गोदी मीडिया के पतनकाल के दस्तावेज के रूप में याद की जायेंगी। जब भी कभी भारतीय टीवी पत्रकारिता के वर्तमान काल खंड का इतिहास लिखा जाएगा, यह सब याद किया जाएगा। पत्रकारिता न तो मेरा पेशा रहा है और न ही मैं इसकी बारीकियां जानता हूँ। पत्रकारों से मित्रता रही है और आज भी बनी हुयी है। मेरी टिप्पणी एक पाठक और दर्शक के ही रूप में है। 

पर एक नागरिक के तौर पर जब टीवी मीडिया के इस स्वरूप को देखता हूँ तो यह मीडिया तंत्र, सत्ता का विद्रूपता से भरी पीआर एजेंसी से अधिक मुझे नहीं लगता है। यह बात हो सकती है कुछ मित्रो को यह सब लिखना, आहत कर जाय पर आप जब इन शब्दों के तीखेपन से हट कर भी सोचेंगे तो, इसी निष्कर्ष पर पहुंचेंगे। 

( विजय शंकर सिंह )

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