ऋग्वेदिक की कविता एक दार्शनिक सत्य पर केन्द्रित है। वह है सृष्टि का रहस्य - परम सत्ता की अवधारणा। वह सत्ता अपने अव्यक्त रूप में एक और अनन्य है, व्यक्त रूप में उसके असंख्य रूप हैं। समस्त ब्रह्मांड मे विविध रूपों मे विद्यमान जो सत्ताएं हैं, उनमें वह गूढ़ रूप में विद्यमान है। वे हैं पर होकर भी मात्र प्रतीति हैं, वे परिवर्तनीय और नश्वर हैं, सबके भीतर वही विद्यमान है जो अपरिवर्तनीय और अनश्वर है। इसी का विकास अद्वैत में हुआ, ब्रह्म और माया में हुआ, आत्मा और जीव के भेदाभेद में हुआ। यही मधुविद्या का सार है, यही वेदांत, सूफी दर्शन और काव्य, सन्त आन्दोलन और सन्त साहित्य का प्राण है और यही यूरोप के रोमांटिक दर्शन, कला और काव्य की प्रेरणा बना, पर रोमांसवाद के साथ समाप्त नहीं हो गया, बाद के दर्शनों, कला और काव्यान्दोलनों में निथरता हुआ उतरा।
यह स्थापना,सच होते हुए भी, अतिरंजित लग सकती है। कुछ माह पहले तक मुझे इस तरह का दावा करने का साहस न होता। यह सच है कि ऋग्वेद के नए मंडलों में अमूर्त चिंतन बहुत स्पष्ट दिखाई देता है। इन्हीं में भाषा की उत्पत्ति, उसके व्याकरण, सृष्टि, परम सत्ता, कालचक्र और दूसरे गूढ़ विषयों पर विचार अधिक प्रखर रूप में आया है; इन्हीं में विश्व प्रपंच पर तरह-तरह की पहेलियाँ बुझाई जाती हैं और लगता है यह सामान्य शामिल सामाजिक विनोद का हिस्सा बन चुका था। इन सूक्तों की भाषा भी अलग है । पुराने माने जाने वाले वंश मंडलों की योजना, और कुछ अन्य विशेषताएँ भी नए मंडलों में नहीं मिलतीं। इसलिए मैं भी मानता था कि सृष्टि विषयक यह चिंता, जिसमें ब्रह्म और मायाका की अवधारणा जन्म लेती है, नए मंडलों के दौर में आरंभ हुई। इससे पिछले चरण पर विश्व की रचना के विषय में ऊहापोह किंचित् स्थूल था या उसी स्तर का था, जो चीनी और सामी आदि दूसरी परंपराओं में पाया जाता है। इनमें एक अवधारणा निर्माण से प्रेरित थी, ब्रह्मांड को भी एक भवन के रूप में ही कल्पित किया गया था, और इस दृष्टि से भवन और भुवन में कोई अंतर नहीं, आश्चर्य इस बात पर अवश्य प्रकट किया गया था, भवन की छत आधार पर टिकी होती है परंतु आकाश रूपी छत बिना किसी आधार के टिका हुआ है ( किं स्विद्वनं क उ स वृक्ष आस यतो द्यावापृथिवी निष्टतक्षुः । मनीषिणोमनसा पृच्छतेदु तद्यदध्यतिष्ठद्भुवनानि धारयन् ।। 10.81.4) और इसका समाधान उन्होने न्यूटन से पाँच हजार साल पहले इस रूप में किया था कि विष्णु ने अपनी रश्मियों से सर्वतः धरती और आकाश को सहारा दे रखा है - व्यस्तभ्ना रोदसी विष्णवेते दाधर्थ पृथिवीमभितो मयूखैः ।। 7.99.3। एक दूसरी कल्पना धातु विद्या के अनुरूप थी। जैसे धातुकर्मी भाथी से धौंक दे कर धातु को इचअछित आकार देता है, उसी तरह की विधाता ने संसार की रचना की- अध स्म यस्यार्चयः सम्यक् संयन्ति धूमिनः । यदीमह त्रितो दिव्युप ध्मातेव धमति शिशीते ध्मातरि यथा ।। 5.9.5 एक तीसरी धारणा कटाह में सोमरस पकाने के क्रम में ज्ञान पर आधारित थी इसने आगे चलकर सांख्य दर्शन का रूप लिया। इसके अनुसार रूपी आदि सत्ता ने अपने को क्रमशः श्रम पूर्वक नए रूपों में रूपांतरित किया और इस क्रम में द्रव, पंक, मृदा, पाषाण, वायु, आकाश सभी का निर्माण होता चला गया। सृष्टि का एक अन्य रूप कृषि के अनुभव पर आधारित, जो इतना जटिल है उसकी व्याख्या के लिए अलग से एक अध्याय की जरूरत हो सकती है, जिसका बहुत उलझा सा प्रस्तुतीकरण पुरुष सूक्त में मिलता है। मोटे तौर पर इसे एक समाज के आंतरिक विभाजन आत्मा और भूत जगत के विषय में विकसित चेतना और ब्रह्मांड की समझ, साहित्य, कला और दर्शन का चित्रण है। मैं इसी रूप में पिछले चरण के ऊहापोह को सीमित मानता था।बारीकी से इसकी छानबीन करने की कभी कोशिश नहीं की थी। परंतु अब जांचने पर पता चला नए पुराने का यह बँटवारा इस मामले में अधिक सहायक नहीं होता। जिसे पहले पुराने चरण की सोच मानता था, उसका चित्रण तो नए माने जाने वाले मंडलों में ही है। अब चुनौती का रूप बदल गया। विकास क्रम को ध्यान में रखते हुए मेरी समझ में कोई अंतर नहीं आया। हुआ यह कि मैंने पाया पुरानीअवधारणाओं को भी परंपरा निरमा करते हुए बाद की कृतियों में भी उन्हें तो लाया गया है। ‘जोड़ने के जो भी संभव है छोड़ेंगे कुछ भी नहींकी ‘ यथा वैदिक काल का या कहें भारतीय परंपरा का चरित्र। परंतु इसी का एक उल्टा पाठ बनता था, कि जिसे संवाद की कृतियों में विश्वसनीय रूप में पाते हैं क्या उस चिंता धारा का उद्गम पीछे नहीं हो सकता?
व्हाट इस दिस से विचार करने पर सारा जखीरा ही बिखर गया। हमें प्राचीन कृतियों में भी मधुविद्या के नीचे दिखाई देगी । ऋग्वेद के नासदीय सूक्त पूर्वपीठिका तो पुराने मंडलों में भी है। इस बोध ने मेरे पचास सालों के संचित और व्यवस्थित ज्ञान को छिन्न-भिन्न कर दिया, परन्तु यह हुआ मात्र एक ऋचा पर नए सिरे से ध्यान देने के कारण। इस पर आज बात नहीं की जा सकती। इसे हम कल के लिए स्थगित रख सकते हैं।
ऋग्वेद युद्ध के वर्णनों से भरा हुआ है। जहां-जहां इंद्र वहां वहां युद्ध। इन्हीं के आधार पर आर्यों के आक्रमण का सिद्धांत रचा गया था। सायणाचार्य जिस कृष्णदेव राय के द्वारा वैदिक रचनाओं के भाष्य के लिए नियुक्त किए गए थे उनकी सबसे बड़ी महत्वाकांक्षा प्राचीन हिंदू राजाओं की तरह दिग्विजय करते हुए अपने साम्राज्य का विस्तार करने की थी। इसलिए उनको इन संघर्षों को युद्ध के रूप में चित्रित करने की आवश्यकता भी थी और संभवतः इसी दिशा में उनकी सोच के आगे बढ़ जाने के कारण अपने असाधारण भाषा ज्ञान के बाद भी वह वैदिक विशेषतः ऋग्वेद की रचनाओं को बहुत सही संदर्भ में नहीं रख सके। दान दक्षिणा के प्रलोभन ने अधिकांश रचनाओं को याजिकीय रंगत देने को बाध्य किया और इसके कारण वह पुष्यमित्र शुंग के अश्वमेध के पुरोधा पतंजलि से भी कम भरोसे के रह जाते हैं। उनकी इस असावधानी का लाभ पाश्चात्य वैदिक विद्वानों ने उठाया और इसी के आधार पर आर्यों के आक्रमण का सिद्धांत रच डाला।
मैंने अपने अध्ययन के क्रम में पाया कि जिन्हें इन्द्र के युद्धों के रूप में चित्रित किया गया है वे युद्ध नहीं है। जिन पुरों के भेदन के कारण इंद्र को पुरंदर की संज्ञा मिली हुई है, वे पुर न तो नगर हैं, न ही दुर्ग। भोजपुरी में पूर बांधना बादलों के जमाव को कहते हैं, जिसके लिए घटाटोप का प्रयोग चलता है। इस में जो वृष्टि होती है उसके लिए हिंदी में आकाश फटना और अंग्रेजी में क्लाउडबर्स्ट का प्रयोग होता है। ऋग्वेद में पुर शब्द के सभी संदर्भों का अध्ययन करने के बाद मैंने 1984 में ही एक लेख में यह प्रतिपादित किया था कि इनका उल्लेख बादलों के लिए किया गया है। वृत्र और शंबर का प्रयोग एकवचन और बहुवचन दोनों रूपों में हुआ है इसलिए मुझे यह भ्रम था कि ये पर्वतीय क्षेत्रों के घुमक्कड़ कबीले रहे हो सकते हैं जो वैदिक व्यापारियों के माल की लूटपाट किया करते थे। पर अब इस पर पुनर्विचार की आवश्यकता अनुभव हो रही है। क्यों? इसके विस्तार में हम नहीं जाना चाहते।
ऋग्वेद में असुरों के रूप में कुयव, शुष्ण, चुमुरि, धुनि, अशुष, आदि का उल्लेख है। मैंने यह पाया कि ये विविध प्रकार के बादलों के प्रतिरूप हैं। यह कोई नई सोच भी नहीं थी। मुझसे पहले ग्रिफिथ आदि ने भी यह संकेत दिया है कि यह बादल हो सकते हैं परंतु वे दुसरी व्याख्या की जगह बनाए रखते थे इसलिए वे इन्हें फींड या दुरात्मा के रूप में चित्रित करते थे। इसकी गुंजाइश भी हमारी पारंपरिक व्याख्या में थी। इसलिए दूसरों को कोसने के आसान रास्ते को छोड़कर हमें स्वयं अपनी समस्याओं का समाधान तलाशना होगा। वास्तविकता यह है कि आज मैं इस समझ को भी पंगु पाता हूं। कितना विचलित करने वाला है यह बोध कि पहले जो सही लगता था वह गलत है और जिसे गलत मानता था वह सही न भी हो तो सही हो सकता है।
भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )
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