युद्ध से नुकसान भले जनता को हुआ, फ़ायदा भी किसी न किसी को तो हुआ ही। पाकिस्तान की नज़र से देखें तो तीन चीजें हुई।
पहला यह कि अयूब ख़ान का मिलिट्री शासन इस युद्ध की असफलताओं के बाद हिल गया। इसका अर्थ था, लोकतंत्र की वापसी। दूसरा यह कि पूर्वी पाकिस्तान ने अपने अलग होने का मन बना लिया। उन्हें लग गया कि पश्चिमी पाकिस्तान में अधिक दम नहीं। तीसरा यह कि पाकिस्तान ने अमरीका से मुँह मोड़ कर चीन और सोवियत की ओर झुकना शुरू कर दिया।
विडंबना यह थी कि ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने ताशकंद समझौते का ठीकरा अयूब ख़ान पर डाल दिया। युद्ध की योजना उनकी ही थी, और अब वह अयूब ख़ान को जिम्मेदार ठहरा रहे थे। जैसा पहले लिखा है, भुट्टो राजनीति के खिलाड़ी थे, जबकि अयूब ख़ान इस खेल में कमजोर थे।
यह वर्णित है कि भुट्टो की माँ एक गुजराती हिन्दू थी, जिन्हें जूनागढ़ रियासत में उनके पिता शाहनवाज़ भुट्टो से प्रेम हो गया था। उसके बाद वह कैलिफ़ोर्निया और ऑक्सफ़ोर्ड में पढ़ कर आए, और मात्र तीस वर्ष की उम्र में केंद्रीय मंत्री बन गए। फिर विदेश मंत्री बने, युद्ध की योजना बनायी, उसके बाद अयूब ख़ान को नीचा दिखा कर इस्तीफ़ा दे दिया। अपनी पाकिस्तान पीपल्स पार्टी (PPP) बना ली।
अयूब ख़ान ने शुरू में बलप्रयोग करना चाहा। उन्होंने भुट्टो को हिरासत में भी लिया। वहीं पूर्वी पाकिस्तान में शेख मुजीबुर्र रहमान आज़ादी का आंदोलन छेड़ चुके थे, तो उन्हें भी गिरफ़्तार कर लिया गया। मगर अब जनता इस बल-प्रयोग के विरोध में खड़ी हो रही थी, तो इन्हें छोड़ना पड़ा। एक मशहूर अफ़वाह घूम रही थी कि मात्र बाइस परिवारों के पास पूरे पाकिस्तान का धन जमा है। यह बात वैसे काफ़ी हद तक सही थी। देश का धन कुछ पूंजीपतियों की जेब में ही था। भुट्टो ने लगभग उसी तरीके से अपने नारे बनाए, जैसा भारत की नयी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी बना रही थी।
‘गरीबी हटाओ’, ‘रोटी कपड़ा और मकान’, ‘राष्ट्रीयकरण करो’, ‘चलो नया पाकिस्तान बनाएँ’।
आखिर 1969 में अयूब ख़ान ने अपनी गद्दी त्याग कर जनरल याह्या ख़ान को पकड़ायी, और देश के मंचों से सदा के लिए गुम हो गए। याह्या ख़ान भी ठहरे फौजी। उन्हें क्या राजनीति आएगी? उन्होंने मार्शल लॉ लगा दिया, और 1970 में आम चुनाव की घोषणा कर दी। पाकिस्तान का पहला राष्ट्रीय आम चुनाव होने जा रहा था, जिसमें भुट्टो की जीत तय थी। इस जीत में एक बड़ा काँटा था।
समस्या यह थी कि जब मतदाता-सूची बनी तो लगभग तीन करोड़ मतदाता पूर्वी पाकिस्तान में थे, और ढाई करोड़ पश्चिमी पाकिस्तान में। इसका अर्थ यह था कि प्रधानमंत्री पूरब से ही चुना जाएगा। वहाँ अवामी लीग का रुतबा था, भुट्टो का नहीं। अवामी लीग का मुद्दा अलगाववादी था। वह बंगाल की स्वायत्तता चाहते थे। उनके अनुसार मात्र रक्षा और विदेश विभाग इस्लामाबाद देखेगा, बाकी ढाका खुद सँभाल लेगी।
जब जनवरी, 1971 में चुनाव हुए तो शेख मुजीबुर्र रहमान की अवामी लीग ने 300 में 160 सीट जीत लिए। भुट्टो के हिस्से मात्र 81 सीटें आयी। अगर शेख मुजीब को प्रधानमंत्री बनने दे दिया जाता, तो पाकिस्तान के दो टुकड़े नहीं हुए होते। मगर बंगाल को स्वायत्तता संभवत: मिल जाती।
भुट्टो नहीं माने। उनका कहना था कि अवामी लीग पाकिस्तान को तोड़ना चाहती है। उन्होंने चुनाव रैलियों में कहा था कि वह हज़ार वर्षों तक हिंदुस्तान से लड़ते रहेंगे। लेकिन अब लड़ाई वह हिंदुस्तान से नहीं, अपने देशवासियों से ही लड़ने वाले थे। भुट्टो की अनुशंसा पर याह्या ख़ान ने बंगालियों का दमन शुरू कर दिया।
अपने जेल डायरी में गांधी को जादूगर कहने वाले शेख मुजीब ने जनता का आह्वान किया। 7 मार्च को उन्होंने ढाका में हज़ारों की भीड़ को कहा, “ढाका से चित्तगोंग तक की सड़के हम बंगालियों के खून से सन रही है। अब असहयोग संग्राम होगा स्वाधीनता के लिए। जय बांग्ला!”
(क्रमश:)
प्रवीण झा
( Praveen Jha )
पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 13.
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/04/13_27.html
#vss
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