नचिकेता ताल के बाबा जी की बातें रोचक थीं। वे मनुष्यों से दूर थे, लेकिन उनमें ह्यूमर ग़ज़ब का था। मैंने पूछा, बाबा जी यहाँ हिंसक जानवर भी आते होंगे? बोले, किंतु दो-पायों से कम हिंसक। क्योंकि वे हिंसा अपनी मौज-मस्ती के लिए नहीं अपनी क्षुधा की शांति के लिए करते हैं। अब जिसका जो भोजन है, वह तो करेगा ही। बाबा जी ने कहा ये जिन्हें आप हिंसक पशु कहते हैं, वे दरअसल देवी-देवता हैं। और जब उनकी इच्छा होती है, वे आप जैसे लोगों को दर्शन देते हैं। उन्होंने बताया, कि आज तक किसी पशु ने उनको नुक़सान नहीं पहुँचाया।
अब शाम के पाँच बज रहे थे। हमारा यहाँ से निकलना ज़रूरी था, क्योंकि हम बाबा जी की तरह वीतरागी नहीं हो पाए थे। बाबा जी को कुछ राशि भेंट करनी चाही तो वे बोले अंदर रख दो, जिसे ज़रूरत होगी ले जाएगा। हम लोग अंदर पाँच-पाँच सौ के दो नोट रख आए। हम निकले पहले तो विकट चढ़ाई और उसके बाद निरंतर उतराई। पंडित जी का बेटा इसी इलाक़े का था, इसलिए उसे वे रास्ते भी पता थे, जिन पर घसियारिनें चलती हैं। अर्थात् सीधी पगडंडी। मगर इन पर फिसलने का ख़तरा भी था। यूँ मैं स्पोर्ट्स शू पहनता हूँ, लेकिन उस दिन पंडित जी की ससुराल जाने के चक्कर में लेदर शू पहने थे। साथ में गरम कुर्ता व पायजामा था, ऊपर से जैकेट। यह ड्रेस असुविधाजनक थी। जूते फिसल रहे थे। अंत में दीपांशु मुझे हाथ पकड़ कर ले गया। यह दूरी लौटने में हमने आधा घंटे में पार कर ली।
चौरंगी खाल गेट पर मैगी पॉइंट्स खुले थे। हमने मैगी खाई और चाय पी। तब तक अंधेरा हो गया था। कुछ ही दूर चले होंगे कि देखा, छह फुट लम्बा और तीन फुट ऊँचा एक चितकबरा पशु सड़क को भाग कर पार कर रहा है। हम रुक गए। यह तेंदुआ था। यह बिल्ली प्रजाति का एक पशु है और बहुत फुर्तीला होता है। यूँ तेंदुआ कुत्तों या अन्य पालतू पशुओं का ही शिकार करता है, किंतु यदि यह आदमख़ोर हो जाए तो मनुष्यों को भी हलाल कर देता है। यह पशु सीधे गर्दन पर हमला करता है और एक ही झटके में गर्दन तोड़ देता है। यह अक्सर चुपके से घात लगा कर हमला करता है। सड़क पार कर रहा तेंदुआ बिजली की सी फुर्ती से ढलान वाले जंगलों में गुम हो गया।
कुछ ही देर में हम मानपुर पहुँच गए। आज रात मानपुर में ही गुज़ारने का लक्ष्य था। नौटियाल जी का भरा-पूरा परिवार है। उनके दो बेटों में से एक हैदराबाद में अध्यापक है। ख़ाली समय में पुरोहिताई भी कर लेता है। उसकी पत्नी भी अध्यापक है। दूसरा पहले दिल्ली के आदर्श नगर में एक मंदिर का पुजारी था। पर अब गाँव आ गया है, क्योंकि उसके पिता अब 78 पार कर चुके हैं। यूँ भी दिल्ली में मंदिरों पर क़ब्ज़ा स्थानीय कमेटी का होता है। वे पुजारी को न के बराबर वेतन देते हैं और कहते हैं अगर कोई दर्शनार्थी आपको कुछ भेंट करे वह आपका लेकिन जो कुछ मंदिर की मूर्तियों पर चढ़ाया जाएगा अथवा दान पेटी में डाला जाएगा, वह कमेटी का होगा। वे बताते हैं, कि ये कमेटी वाले इतनी नीच मानसिकता के होते हैं कि यदि किसी दिन पुजारी को दक्षिणा अधिक मिलने लगे तो वे पुजारी से पैसा माँगने लगते हैं। उन्होंने गर्भ गृह में सीसीटीवी कैमरे लगवा रखे हैं। इसलिए उनका मन ऊब गया और वे छोड़ कर गाँव आ गए। उनकी बेटी ने बी. फ़ार्मा किया हुआ है और दामाद ने भी। बेटा होटल मैनेजमेंट का कोर्स करने के बाद तीन महीने पहले तक मालदीव के एक होटल में काम कर रहा था। लेकिन पर्यटन उद्योग ठप होने से वह अब गाँव आ गया है। उसकी पत्नी ने बीडीएस कर रखा है और उसका उत्तरकाशी में क्लीनिक है।
पंडित दयानंद नौटियाल का परिवार अब गाँव में है, इसलिए मकान भी पहले की तुलना में खूब भव्य बन गया है। तीन नाली से अधिक के इस मकान में तीन तो हिस्से हैं। तथा सामने विशाल मैदान या आँगन है। चारों तरफ़ ऊँचे-ऊँचे पहाड़ और नीचे बहती इंद्रवती नदी। इस आँगन में सूर्य की चमक और धूप खूब रहती है, लेकिन जाड़े में बर्फ़ भी पाँच इंच मोती परत वाली पड़ती है। दिल्ली में पुजारी रह चुके इनके बेटे ने बताया कि उसने गोमुख से रामेश्वरम तक की पदयात्रा की हुई है तो मेरी उनमें दिलचस्पी बढ़ी। उन्होंने पूरा वर्णन यूँ किया। एक बार वर्ष 2004 में उनके मन में तरंग उठी, कि गोमुख से गंगा जल लूँ और जाकर रामेश्वरम स्थित शिवलिंग का अभिषेक करूँ। वह भी पद-यात्रा करते हुए। यह अत्यंत कष्टसाध्य काम था। पर ठान ही लिया तो चल दिए। उन्होंने कर्मनाशा से बचने के लिए पहले हरिद्वार फिर सोनभद्र गया होते हुए ओड़िसा का रूट पकड़ा। पुरी, भुवनेश्वर, विशाखापटनम होते हुए वे रामेश्वरम पहुँचे। पूरी यात्रा उन्होंने नंगे पाँव की और गंगा जल से भरे कलश को कहीं भी नीचे ज़मीन पर नहीं रखा। सिर्फ़ मंदिरों में ही रात्रि गुज़ारते और इस तरह तीन महीने 21 दिन बाद वे रामेश्वरम पहुँच गए।
मैंने अनुमान लगाया कि जिस रूट से ये गए, उस रूट से यह दूरी कम से कम 5000 किमी की होगी। ये कितनी स्पीड से चले। मैंने बहुत पहले जब मेरी उम्र कुल 27 साल की थी तब कानपुर ज़िले के बेहमई नर संहार कांड को कवर किया था। तब एक दिन में क़रीब 45 किमी चला था। राजपुर से बेहमई और फिर वहाँ से सिकंदरा तक पैदल चला था। यह दूरी 40-45 किमी की रही होगी। इसके अगले रोज़ मेरी टांगें जवाब दे गईं। लेकिन इन्होंने कैसे यह दूरी तय की होगी? किंतु किसी की आस्था का मज़ाक़ उड़ाना मेरे स्वभाव में नहीं है, इसलिए मैंने यह मान लिया। पर उनके बिहार और ओडीसा के संस्मरण रोचक थे। मैंने रात के खाने में पहाड़ी भोजन के लिए कहा था। इसलिए मेरी रुचि का खाना बना। भट की दाल, मड़ुआ के आटे की रोटी, चटनी, सब्ज़ियाँ और पहाड़ का ख़ुशबूदार चावल। रात को सोने गए तो मुझे वह बैठका दिया गया, जिसमें अटैच्ड बाथरूम था। लेकिन यहाँ अकेले पड़े रहने से अच्छा था कि ऊपर की मंज़िल में बने हाल में जाकर सोना, जहाँ पाँच चारपाई बिछी थीं। मैंने कहा कि रात को एक बार लघुशंका के लिए आना पड़ेगा, तो नीचे आ जाऊँगा लेकिन सब के साथ सोने व बतियाने की बात ही अलग है।
सुबह पाँच बजे उठा और बाथरूम जाने लगा तो देखा कि बुजुर्ग नौटियाल जी 78 की उम्र के बावजूद स्नान कर चुके हैं और एक लोटा जल लेकर छत पर तुलसी के पौधों में पानी ढारने जा रहे हैं। मैंने भी तभी नहाने का मन बनाया और छह बजे तक स्नान कर चुका था। कुछ देर टहला। आठ बजे तक सूरज निकल आया और धूप बाहर के आँगन में आ गई। नाश्ते में पकौड़ियाँ, गज़क और चाय आई। इस मकान के नीचे नौटियाल जी का किन्नू का बाग था। कुछ किन्नू और नींबू तोड़ लाए।
(जारी)
शंभूनाथ शुक्ल
( Shambhunath Shukla )
गंगोत्री यात्रा के पड़ाव (7)
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