क्या विविधता वाकई देशों को तोड़ती है? अगर यूरोप पर नज़र डालें तो यह आदर्श उदाहरण है। यहाँ की सीमा-रेखाएँ भाषा और संस्कृति के आधार पर है। जहाँ तनिक भी विविधता आयी, जैसे युगोस्लाविया, तो वहाँ युद्ध और विभाजन हो गया। क्षेत्रीय अस्मिता के चरम के उदाहरणों में यह उदारवादी महादेश है। अन्यथा स्कैंडिनैविया के पाँच टुकड़ों का कोई अर्थ ही नहीं। हर देश अपनी भाषा के आधार पर बँट गया है।
भारत इकलौता देश है, जहाँ इतनी विविध भाषाएँ और संस्कृतियाँ जैसे-तैसे जमी हुई हैं। किंतु ऐतिहासिक रूप से ही यह भिन्न-भिन्न राज्यों में बँटा ही हुआ है। भिन्न राजा, भिन्न प्रशासन, और उनके आपस में युद्ध या समझौते। ब्रिटिश भारत से पहले यही कमो-बेश स्थिति थी। पाकिस्तान का भारत से अलग होना भी एक धार्मिक विविधता से उपजाए गए अलगाववादी द्वंद्व का ही परिणाम था। इसी तरह ऐसे संगठन हैं, जो कश्मीर, पंजाब, असम, नागालैंड, अरुणाचल, मेघालय, या तमिल राज्य (देश) बसाना चाहते हैं। असम में तो एक तीस हज़ार की जनसंख्या वाले समुदाय भी अपना देश माँग रहे हैं। अगर हम बांग्लादेश के बंगालियत को समर्थन देते हैं, तो उन असमियों की भी माँग ठीक ही लगेगी।
देश को जोड़ कर रखना आसान नहीं होता। दोनों ही ताकतें मौजूद होती हैं। शेख मुजीब बंगालियत के नाम पर अलग देश रचना चाहते थे। जबकि इसी बंगाल के नेता विभाजन के वक्त पाकिस्तान का झंडा बुलंद किए थे और ‘डायरेक्ट ऐक्शन डे’ पर कलकत्ता में दंगे हो रहे थे। आप बंगाल के दो टुकड़े कर बंगालियत की रट कैसे लगा सकते हैं?
पूर्वी पाकिस्तान को सँभालने की अयूब ख़ान ने यथासंभव कोशिशें की। एक संवैधानिक भाषा के रूप में बंगाली पहले से मौजूद थी, और वहाँ कोई आपत्ति थी ही नहीं। तृतीय पंचवर्षीय योजना में एक बड़ा हिस्सा ढाका को दिया गया। पूर्वी पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था वृद्धि दर में चार प्रतिशत का इज़ाफ़ा हुआ था, जो ठीक-ठाक बढ़त थी। 1965 के युद्ध की हानि भी पश्चिम को ही मुख्यत: हुई। इन सबके बावजूद अगर पहले ही दिन से ‘बंगाली अस्मिता’ के नाम पर कॉकस बनाया जाए, अलगाववादी आंदोलन किए जाएँ, भेद-भाव के मुद्दों को आग दी जाए, और देश के शत्रु यानी ‘भारत’ से गुप्त समर्थन बटोरे जाएँ, तो इसे क्या कहा जाना चाहिए?
ऊर्दू भाषी पाकिस्तान ने बंगालियों को अगर अपना नहीं समझा, तो क्या बंगालियों ने उनको अपना समझा? अपने ही देश में बिहार से आए ऊर्दू भाषियों के साथ उनका क्या रवैया रहा? बंगालियत का क्या अर्थ था? इसमें भारतीय बंगाल की बंगालियत जुड़ी हुई थी, या नहीं? क्या भविष्य में वे एक कश्मीर की तरह एक बंगाल की मांग रख सकते हैं? ये सभी काउंटर-क्वेश्चन हैं जिसकी चर्चा कम होती है। मगर ‘डेविल्स एडवोकेट’ रूप में मैं ये प्रश्न रखूँगा ही।
1968 छात्र आंदोलनों का वर्ष था। हिप्पियों और क्रांतियों का। पूरी दुनिया के बीस देशों में छात्र आंदोलन हुए। हर किसी को आज़ादी चाहिए थी। देश की नहीं, अपनी आज़ादी। ढाका विश्वविद्यालय में नियमित मंच पर कोई बंगाली छात्र खड़े होकर अपनी अस्मिता की याद दिलाता, शोषण की कहानी कहता, और सभी हुंकार भरते। अवामी लीग का केंद्र यह विश्वविद्यालय था, जिसके कैम्पस में सात हज़ार विद्यार्थी थे, कैम्पस से बाहर लगभग पच्चीस हज़ार। युवा जोश और राजनीति का कॉकटेल, और सामने खड़े मिलिट्री रूल के फौजी। यह तो आदर्श द्वंद्व था, जो उन्होंने चे गुवैरा के गुरिल्ला आंदोलन में पढ़ रखा था। उन्हें बस वही दोहराना था।
एक बांग्लादेश इतिहासकार लिखते हैं, “वह समय ऐसा था कि हर विद्यार्थी मार्क्स, लेनिन और माओ की किताबें पढ़ता था। उन पर क्रांति का भूत सवार था।”
क्रांति के लिए दुनिया में ज़मीन और कारणों की कमी नहीं। बंगाल तो खैर क्रांति का केंद्र ही है। जब ढाका में मार्क्स और लेनिन पढ़े जा रहे थे, तो कलकत्ता में भी वही पढ़े जा रहे थे। मुक्ति के वाहकों की बन रही थी मुक्तिवाहिनी।
(क्रमश:)
प्रवीण झा
( Praveen Jha )
पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 14.
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/04/14_28.html
#vss
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