Friday, 9 April 2021

श्रीमंत पेशवा बाजीराव प्रथम का वंश - 3 - चौथी पीढ़ी.

बांदा के नवाब श्रीमंत शमशेर बहादुर द्वितीय और नवाब श्रीमंत ज़ुल्फ़िक़ार बहादुर प्रथम...

इस सिरीज़ के पिछले लेख में मैने आपको श्रीमंत बाजीराव पेशवा प्रथम और उनकी दूसरी पत्नी अखंड सोभाग्यवती मस्तानी बाई साहेब के पोते और श्रीमंत शमशेर बहादुर के पुत्र श्रीमंत अली बहादुर प्रथम के बारे में जानकारी दी थी। आज उन्हीं के बारे में कुछ और जानकारियां साझा करेंगे और उनके पुत्रों के बारे में जानेंगे-

तो श्रीमंत अली बहादुर(बुंदेलखंड विजेता) की मृत्यु 1802 में कालिंजर पठार पर एक युद्ध मे घायल हो जाने के बाद हुई। हालांकि 1787 से लगा कर 1802 यानी कुल पंद्रह सालों में अली बहादुर ने लगभग पूरे बुंदेलखंड पर अपना एक तरह से आधिपत्य जमा लिया था। वो हिस्सा जो उनके दादा बाजीराव को महाराजा छत्रसाल ने उपहार स्वरूप दिया था, वो तो वापस लिया ही, साथ में दूसरे हिस्सों से भी चौथ वसूल किया। यहां तक कि रीवा राज्य जो बुंदेलखंड का नहीं, विंदय का हिस्सा था, उससे भी सीधे चौथ वसूला, वरना रीवा नरेश अब तक सीधे मुग़लों को चौथ की रक़म देते थे। 

बावजूद इस सब के वे कभी पूरे कालिंजर पर जीत हासिल नहीं कर पाए। वैसे कालिंजर था भी बहुत टेढ़ी खीर। इसे समझना बहुत ज़रूरी है। कालिंजर कोई एक किला नहीं था। ये एक पठार था, जो तीन हिस्सों में था(जैसे आज का सियाचिन) और ये तीनों किले तीन पहाड़ियों पर बसे थे और तीनों अलग-अलग शासकों के क़ब्ज़े में थे। वैसे कालिंजर कोई राज गद्दी वाला किला नहीं था, यहां पर तो सेनाएं हुआ करती थीं, निगरानी के लिए। एक हिस्सा पहले से मराठा सरदार (मान सिंह भट) के क़ब्ज़े में था, एक बुंदेलों के और एक रीवा नरेश के क़ब्ज़े में। श्रीमंत अली बहादुर ने 15 साल में चार बार कालिंजर पर सैन्य अभियान किया और दो हिस्से उनके क़ब्ज़े में आसानी से आ गए। रीवा नरेश वाला हिस्सा वे बहुत आसानी से जीत गए थे। मान सिंह भट पानीपत के वक़्त महाराष्ट्र से आए थे, लेकिन उत्तर में ही रुक गए थे। तब राघोबा के विश्वासपात्र थे और अली बहादुर के बुंदेलखंड आने के बाद मानसिंह और उनका कुनबा अली बहादुर से जुड़ गया था और हर मुहीम में वे उनके साथ रहे(इन्हीं में एक यशवंतराव भट भी थे) तो ये हिस्सा भी आसानी से उनके क़ब्ज़े में आ गया। इस तरह दो हिस्सों पर उनका क़ब्ज़ा हो गया था।

सिर्फ बुंदेलों वाला हिस्सा वे नहीं जीत पाए थे। बुंदेलों और मानसिंह भट के बीच इस दौरान कई झड़पें हो चुकी थीं। 28 अगस्त 1802 में यही बुंदेलों के क़ब्ज़े वाला हिस्सा जीतने की मुहिम में अली बहादुर कालिंजर पठार में ही घायल हुए थे। तब एक वक्त उनके ख़ास रहे हिम्मत  गुसाईं(चतीर्वेदी) ने उनके साथ ग़द्दारी की थी और बांदा आते-आते वे वीर गति को प्राप्त हो गए थे। लेकिन उन्हें बांदा में नहीं दफनाया गया, बल्कि उन्हें दिल्ली के मेहरौली स्थित मुग़लों के शाही क़ब्रिस्तान में दफनाया गया। अब इसके पीछे की वजह भी बहुत दिलचस्प है।

1886 में पेशवा के आदेश पर महादजी शिन्दे के नेतृत्व में मराठों ने शाह आलम द्वितीय को बंगाल से लाकर दिल्ली के तख़्त पर फिर बिठा दिया था। ये वही शाह आलम थे, जिनकी आंखें रोहिला सरदार ग़ुलाम क़ादिर ने फोड़ दी थीं। इसी ग़ुलाम क़ादिर को अली बहादुर ने मेरठ के पास गिरफ्तार किया था, तब महादजी भी दिल्ली के आस-पास की मुहिम पर थे। जब अली बहादुर ग़ुलाम क़ादिर को लेकर दिल्ली जा रहे थे, तो रास्ते मे उनकी भेंट महादजी से हुई और उन्होंने ग़ुलाम क़ादिर को महादजी के सुपुर्द कर दिया और कहा कि इसे शाह आलम के पास ले जाना, वे ही बताएंगे कि इसका क्या करना है। महादजी उसे लाल किले पर ऐसे ले कर आए जैसे खुद पकड़ा हो। लिहाज़ा शाह आलम ने महादजी को इसी से ख़ुश होकर वजीर ए मुतलक़(मुग़लों का प्रधानमंत्री) का ख़िताब दिया था। जब ये बात अली बहादुर को पता चली तो वे शाह आलम के पास पहुंचे और उन्हें पूरी बात बताई, उस वक़्त महादजी भी मुग़ल दरबार मे मौजूद थे, उन्हीने चुप्पी साध ली और शाह आलम सब कुछ समझ गए। अली बहादुर को इसी के इनाम के तौर पर, शाह आलम ने अपनी भांजी से उनका निकाह कराया और उन्हें मेहरौली स्थित शाही क़ब्रिस्तान में 7 लोगों को दफनाने की जगह दी, क्योंकि वे अब मुग़लों के रिश्तेदार भी हो गए थे। यही वजह रही कि अली बहादुर की मृत्यु तो बांदा में ही हुई, लेकिन उन्हें दफनाया गया मेहरौली में मुग़लों के शाही क़ब्रिस्तान में। 

श्रीमंत अली बहादुर प्रथम के कुल दो पुत्र थे। पहली शादी जो पुणे में हुई थी, उनसे शमशेर बहादुर द्वितीय और शाह आलम की भांजी से जो शादी हुई थी, उनसे ज़ुल्फ़िक़ार बहादुर प्रथम। 28 अगस्त 1802 को अली बहादुर की बांदा में मृत्यु के समय अली बहादुर के बड़े पुत्र शमशेर बहादुर द्वितीय पुणे में थे और जुल्फिकार बहादुर प्रथम बांदा में। तब ज़ुल्फ़िक़ार की उम्र मात्र 2 वर्ष की थी, इसी का फायदा उठा कर अली बहादुर के साले और जुल्फिकार बहादुर के मामा ग़नी बहादुर और हिम्मत गुसाईं ने मिलकर सत्ता हथियाने के उद्देश्य से दो साल के ज़ुल्फ़िक़ार बहादुर को बांदा का नवाब घोषित कर दिया और उनका मामा ग़नी बहादुर उनका संरक्षक बन गया। इसी बीच अली बहादुर की मृत्यु की ख़बर शनिवारवाड़ा पुणे में शमशेर बहादुर को मिली, तो वे पुणे से सैन्य दल के साथ फौरन बुंदेलखंड की ओर चल दिए। गनी बहादुर और हिम्मत बहादुर में उसका सामना करने का नैतिक साहस नहीं था, क्योंकि शमशेर बहादुर द्वितीय अली बहादुर के बड़े बेटे होने के नाते उनके वैद्य उत्तराधिकारी थे। इसीलिए किसी ने भी उनका विरोध नहीं किया। शमशेर बहादुर ने आते ही सेना की कमान अपने हाथों में ली और विधिवत बांदा के नवाब बने। गद्दी पर बैठते ही उन्होंने सौतेले मामा ग़नी बहादुर की सारी संपत्ति जब्त कर ली और उसको अजय गढ़ के किले में कैद कर दिया जहां वो कुछ समय बाद जहर देकर मार डाला गया ।

शमशेर बहादुर ऐसे समय मे नवाब बने थे जब उनके पुणे से जाते ही पुणे में घमासान शुरू हो गया था। इससे पहले उनके लाख समझाने के बावजूद पेशवा ने यशवंतराव होलकर के सगे भाई विट्ठोजी होलकर(तुकोजीराव होलकर प्रथम के पुत्र) को दौलतराव शिन्दे (महादजी के दत्तक) के बहकावे में आकर हाथी के पैरों तले कुचलवा दिया था। शमशेर बहादुर के पुणे से निकलने के बाद पेशवा के इस कृत्य से तिलमिलाए यशवंतराव होलकर ने पुणे पर हमला बोल दिया। पुणे के पास हदसर में यशवंतराव होलकर ने पेशवा और शिन्दे(सिंधिया) की संयुक्त सेना को हरा दिया और राघुनाथ राव के दत्तक पुत्र अमृतराव को पेशवा बना कर पुणे की गद्दी पर बैठा दिया। पेशवा बाजीराव द्वितिय एक बार फिर दौलतराव शिन्दे के बहकावे में ग़लती कर गए और अंग्रेज़ों की शरण में वसई पहुंच गए। अंग्रेज़ों ने उन्हें शरण तो दी मगर ऐसी अपमानित शर्तों पर, जिनसे पेशवा, इतिहास में पहली बार लज्जित हुए थे। 31 दिसंबर को पेशवा बाजीराव और ईस्ट इंडिया कम्पनी के बीच जो संधि हुई, उसने पेशवाओं के इतिहास में एक शर्मनाक अध्याय जोड़ दिया। यही थी वो ऐतिहासिक "वसई की संधि", जिसके तहत मराठा साम्राज्य काफी हद तक अंग्रेज़ों का हो गया  और इस संधि के सूत्रधार थे अंग्रेज़ों के मदद से अब ग्वालियर के हो चुके महाराज दौलतराव शिन्दे.....और अंग्रेज़ों की ही मदद से अब सूबेदार से बड़ोदा के मजाराज बन चुके आनंदराव गायकवाड़।

लेकिन अब भी कई मराठा सरदार ऐसे थे, जो अंग्रेजों के साथ संधि के खिलाफ थे, इनमें प्रमुख थे यशवंतराव होलकर और धार के पंवार। सिर्फ खिलाफ नहीं थे, बल्कि उन्होंने संधी को माना ही नहीं। इसीलिए इसके बाद भी दूसरा और तीसरा आंग्ल-मराठा युद्ध हुआ। इन्हीं मराठों में से एक थे बांदा के नवाब श्रीमंत शमशेर बहादुर द्वितीय। उन्होंने भी वसई की संधि को नहीं माना और द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध के तहत अंग्रेज़ों से उन्होंने भी युद्ध किया। 1803 में बांदा में एक बार फिर हिम्मत गुसाईं ने ग़द्दारी की और उसी की मदद से अंग्रेजों ने नवाब शमशेर बहादुर को युद्ध में हराया और मजबूरन उन्हें भी अंग्रेजों की अधीनता स्वीकारना पड़ी। उधर पुणे में 13 मई 1803 को बाजीराव द्वितीय, अंग्रेज़ों की मदद से एक बार फिर पेशवा बना दिए गए। 

नवाब श्रीमंत शमशेर बहादुर द्वितीय ने 1825 तक बांदा में शासन किया और अंग्रेज़ उन्हें 16 गन सेल्यूट भी देते थे। 1825 में उनकी मृत्यु दिल का दौरा पड़ने से बांदा में ही हुई और उन्हें भी दिल्ली के मेहरौली स्थित शाही क़ब्रिस्तान में उनके पिता अली बहादुर के पाँयती(पैरों के पास) दफनाया गया। उनके कोई औलाद नहीं हुई, इसी वजह से उनके सौतेले भाई श्रीमंत ज़ुल्फ़िक़ार बहादुर जिनकी आयु अब 25 वर्ष की थी, बांदा के नवाब बने।

नवाब श्रीमंत ज़ुल्फ़िक़ार बहादुर बहुत ही धार्मिक, दयालु और हिन्दू-मुस्लिम एकता के पक्षधर थे। बांदा रियासत में ज़्यादातर विकास कार्य उन्हीं के नवाबी काल मे हुए। उन्होंने बांदा के आस पास तमाम कुएं तालाब आदि का निर्माण कराया तथा हिन्दू मुस्लिम एकता को बरकरार रखते हुए शहर में मुस्लिमो के लिए जामा मस्जिद का निर्माण कराया तथा वहीं हिन्दुओं के लिए चौक बाजार स्थित माता महेश्वरी देवी के मंदिर का भी निर्माण कराया, जिसमें एक खास बात यह थी की अलीगंज की जामा मस्जिद और चौक बाजार की माता महेश्वरी देवी के मंदिर मैं जो भी निर्माण सामग्री लगी, वो एक साथ ही, एक ही स्थान पर एकत्र की जाती थी और फिर आवश्यकता के अनुसार मस्जिद और मंदिर को निर्माण के लिए भेजी जाती थी। नवाब ज़ुल्फ़िक़ार बहादुर ने एक बात का खासा ध्यान रखा था, कि उस समय जमीन तल से मस्जिद और मंदिर के चबूतरो की ऊंचाई लगभग एक ही थी। यानि मंदिर और मस्जिद के चबूतरो में ऊंचाई नीचाई का 1 इंच भी फर्क नहीं था, नवाब ज़ुल्फ़िक़ार बहादुर पूरे बुंदेलखंड में हिंदू मुस्लिम एकता के प्रतीक आज भी माने जाते हैं। उन्होंने वहां कलाकारों को भी बहुत प्रोत्साहन दिया। आज भी केन नदी से निकलने वाले पत्थरों पर जो विश्वविख्यात नक़्क़ाशी का काम होता है, वो उन्हीं ने शुरू करवाया था। सन 1850 ईसवीं में  50 साल की उम्र में नवाब श्रीमंत ज़ुल्फ़िक़ार बहादुर की भी मृत्यु हो गई। उन्हें भी दिल्ली के मेहरौली स्थित मुग़लों के शाही क़ब्रिस्तान में दफनाया गया। उनकी शादी विख्यात शायर मिर्ज़ा ग़ालिब की रिश्तेदारी में हुई थी। उनकी पत्नी ग़ालिब की मामी की बहन थीं और पठान थीं, जिनसे उन्हें एक पुत्र भी थे जो बांदा के अगले नवाब हुए। उनका नाम था नवाब श्रीमंत अली बहादुर द्वितीय, जो आगे चल कर 1857 की क्रांति के नायक हुए। झांसी की रानी लक्ष्मी बाई के राखी भाई और नाना साहेब पेशवा के चहेते, जिनके बारे में अगले अंक में बात करेंगे। धन्यवाद। 

नूह आलम  
( Nooh Alam )

नोट-इस सीरीज़ के ज़्यादातर संदर्भ तारीख ए बुंदेलखंड, विलियम विल्सन(1885) की किताब The Imperial gazzeteer of India और उसके अलावा अलग-अलग इतिहास की किताबों से लिये गए हैं।

श्रीमंत बाजीराव पेशवा का वंश - 2.
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/04/1_5.html

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