सोम जिस ‘सम्’ मूल से निकला है, उसके दो अवांतर रूप ‘चम’ और ‘शम्’ हैं। इन सभी का अर्थ जल है। एक सोम में दिखाई देता है तो दू सरा शंबर और शंभु में। ‘सम्-’ और इसका घिसा रूप ‘स-’ अच्छाई, संगति,, धनात्मकता आदि आशयों में उपसर्ग के रूप में अधिक व्यवहृत है, इसलिए इसका जल वाला पक्ष ओझल हो जाता है। आर्द्रता के आशय को ‘समोना’, ‘समसना’ में पहचाना जा सकता है। इसका गति वाला भाव समीर (सम्+इर = दोनों जल सूचक और गति सूचक भी) में, समय = गतिशशील (समयः समयति, तु. करें - कालः कलयति, यामः याति) में मिलता है। जल का प्रकाश वाला भाव सोम (चंद्रमा मे), अ. शम्स, शमा; जलाने वाला भाव, सं. समिधा, शमी, त. समैत्तल - पकाना; शांति वाला पक्ष सौम्य, त. समाळि - मोद में, और रस वाला भाव मुंज प्रजाति के रसीले पौधे और उसके रस के लिए प्रचलित रहा है जो सामान्य रूप में किसी भी पौधे के रस के लिए प्रयोग में आ सकता था और आता रहा है। जल सबसे बड़ा धन है इसलिए धर्म और द्रव्य के लिए सभी शब्द जलवाची है। इसी कारण सोम का प्रयोग धन और इसके किसी रूप, जैसे लाजवर्त के लिए किया गया है। हिंदी में धन के लिए सोम का प्रयोग नहीं होता, परंतु तेलुगु में धन के लिए सोम्मु और हिं. में कंजूस के लिए सूम, सोमी, सूमड़ा का चलन है। इसलिए जब वैदिक कवि कहता है की समस्त सृष्टि की उत्पत्ति सोम से हुई है, तो इसके मूल अर्थ से अलग नहीं जाता। परंतु यदि सोम नाम की किसी एक वनस्पति का प्रश्न आए तो वह रसराज गन्ना ही हो सकता हैा। हमारे लिए जो अर्थ और रूप बाह्य हो चुके हैं, वैदिक कवियों के लिए वे जीवन्त थे और वे एक आशय से दूसरे आशय में उसी तरह यात्रा करते हुए बाधगम्य को भी दुर्बोध बनाने का प्रयत्न करते थे।
अब हम एक सूक्त के माध्यम से अपनी समझ की सीमा में इसे स्पष्ट करने का प्रयत्न करेंगे। यह सूक्त जिस मंडल में आया है वह हिल्लेब्रांट की दृष्टि में सबसे पुराना है, इसलिए यह समझने में भी सहायक है कि किसी एक मूल से समस्त ब्रह्मांड की उत्पत्ति की अवधारणा बहुत बाद में विकसित नहीं हुई अपितु बहुत पहले से थी। इस सूक्त को पहले न जाने कितनी बार पढ़ा होगा परंतु पहले कभी उस पक्ष की ओर मेरा ध्यान नहीं गया था, जो अकस्मात, शिथिलता के एक क्षण में कौंध गया। सूक्त की पहली ऋचा रूप में निम्न प्रकार है:
स्वादुष्किलायं मधुमाँ उतायं, तीव्रः किलायं रसवाँ उतायम् ।
उतो नु अस्य पपिवांसं इन्द्रं, न कश्चन सहत आहवेषु ।। 6.47.1 (अर्धविराम मेरी ओर से)
हम शौनकाचार्य के उस कथन का हवाला दे आए हैं जिसके अनुसार इंद्र का काम है रस ग्रहण करना और वृत्र (विघ्न बाधाओं. और विघनकारी तत्वों) का निवारण करना (‘रसादानं तु कर्मास्य वृत्रस्य च निबर्हणम्।....बृहद्देवता, २/६) और इसलिए वह रस केवल एक वनस्पति का नहीं ग्रहण करता है, अपितु आर्द्रता के समस्त स्रोतों से उनकी आर्द्रता ग्रहण करता है। यह क्रिया निरंतर चलती रहती है, परंतु यदि ग्रीष्म ऋतु में सूर्य के ताप से अधिकांश वनस्पतियों के सूख जाने की क्रिया से जोड़कर इसे पान को देखा जाए तो इसका चित्र अधिक स्पष्ट होगा।
इस ऋचा में जिस पान का वर्णन है उसमें स्वादिष्ट/मधुर, रसीले और तीखे (कड़वे) रसों का ही उल्लेख है।
यदि हम यह मान लें कि इंद्र (सूर्य रश्मियाें के माध्यम से और वायु की सहायता से) सोम नाम की किसी एक लता या पादप का ही रस ग्रहण करते हैं तो इन सभी विशेषताओं को, विरोधी प्रकृति होने पर भी उसी पौधे में तलाशना होगा। इसके लिए विरोधी गुणों का अनुकुलन करना होगा। तीव्र का अर्थ है तीखा, तिक्त या कटु है। इसका मधुर से कोई मेल नहीं है। इसे नशीलेपन की ओर माेड़ कर और मधुर को मद या मदिर का पर्याय बनाना होगा और तब सोम नाम के उस पौधे में, जिसके माधुर्य को अलौकिक मान कर उद्भावनाओं की वह महायात्रा आरंभ हुई थी और जिसका अंत तत्वदर्शन या वैज्ञानिक निष्कर्ष में हुआ उसमें केवल मादकता बची रह जाएगी। ऐसा ही किया जाता रहा है। यह उस नैसर्गिक तथ्य से अनमेल है जिसमें इन्द्र को सोमपायी या रसपायी के रूप में मूर्त किया गया था। पहले हम अंतर्विरोध की बात लें।
यदि हम मधु/ मीठा के लाक्षणिक प्रयोगों (मधु वाता ऋतायते, मधु क्षरन्ति सिन्धवः, या मीठी आवाज, मीठी हवा, मीठा स्वभाव आदि) तो तीव्र या तीखे से इसके विरोध से इनकार नहीं किया जा सकता। मधुर का अर्थ है मंद, प्रीतिकर और तीव्र का अर्थ है प्रखर, अप्रिय, क्षोभकर। सूर्य के ताप और वायु के शोषण के सामान्य धर्म को लें तो अर्थ होगा यह तो स्वादिष्ट है और मधुर भी है, और यह तीखा है यद्यपि रसीला भी है। अर्थात् दो भिन्न स्वादों और प्रभावों, व्याज रूप में कहें तो, सभी प्रकार के स्वादों वाली वनस्पतियों ही नहीं, रुचिकर अरुचिकर, पवित्र और अपवित्र, गलित-पचित, स्रोतों के रस को भी ग्रहण करता है। सूर्य-रश्मियाँ तप्त और शुष्क हैं, उनके प्रतीक इंद्र का पिपासु होना स्वाभाविक है। वह सभी प्रकार के रसों का पान कर जाते हैं।
वनस्पतियों का अपना स्वाद (मधुर या कटु) रुचिकर-अरुचिकर स्वाद एक तरह का प्रतिरोध है। इन्द्र पिपासु रूप में सभी स्रोतों का आर्द्रता को, जिसकी शुद्धता उसके स्वाद, गंध, रंग से रहित होने में है, इसलिए सभी तरह के स्वाद शुद्ध सोम या अविकारी जल के ग्रहण में बाधक और उनके अपने रक्षा कवच या दुर्ग है। इन रसों को वनस्पतियों से ग्रहण करना अपने आप में एक युद्ध सा है। वे अपने मधुर, कड़वे, कसैले स्वादों से शुद्ध रस का पान करने वाले को विरत करना चाहती हैं, परन्तु इन्द्र को रसपान से रोक नहीं पाती। इस रसपान के संदर्भ में आहव का प्रयोग इसी प्रतिरोध और उसे विफल करते हुए उनका अवशोषण करने को एक युद्ध के में चित्रित किया गया है।[1] अनुवादकों और भाष्यकारों ने इस ब्यौरे में न जाकर मधुर और तीव्र दोनों गुणों का आरोपण सोमवृक्ष/लता पर करते हुए इसको प्रस्तुत किया है। ग्रिफिथ के अनुवाद में :
YEA, this is good to taste and full of sweetness, verily it is strong and rich in flavour.
No one may conquer Indra in the battle when he hath drunken of the draught we offer.
मूल ऋचा में ऐसा कुछ नहीं है जिसका अनुवाद ‘when he hath drunken of the draught we offer’ किया जाए, पर इसके लिए अनुवादक को दोष नहीं दिया जा सकता। उसने यहाँ सायणाचार्य का अनुगमन किया है।[2]
[1] युद्ध के पर्याय तीन भिन्न क्रियाओं से निकले है। यह है गति, आवाज और एकत्र होना। आहव जिस हू धातु से निकला है उसका अर्थ है बुलाना जो आह्वान मैं देखने में आता है। परंतु यह ललकार, चुनौती, आदि का अर्थ ग्रहण करके युद्ध के लिए ही प्रयोग होता रहा है जैसे समिति, संगम, संगर, समोह आदि का प्रयोग अभिधा में कुछ और और व्यंजना में युद्ध हो जाता है।अपने नैसर्गिक चित्रण में ये वनस्पतियाँ विविध प्रकार की हैं सभी में जो रस है उसका नाम सोम है और इसके कारण सोम की वानस्पतिक पहचान में बाधा पैदा होती है और ऐसे विद्वान मिलते हैं जो कहते हैं सोम कोई एक पौधा नहीं था।
[2] सायण अपने भाष्य में ‘अयं’ की व्याख्या ‘अयं अभिषुत सोमः’ किया है जो खींचतान हुई। किसी कथन में अपनी ओर से कुछ जोड़ कर उसका आशय नहीं निकाला जा सकता। यह उसमें मनचाहा आशय घुसाना हुआ। अयं का अर्थ ‘यह’ है, ‘यह आसवित सोम’ नहीं। ‘किल’ का पहली बार वह ‘भवति’ और दुसरी बार ‘खलु भवति’ जब कि अर्थ है ‘खलु’, ‘निश्चय ही’ या ‘निःसंदेह’ । भवति की जगह ‘अस्ति’ करना अधिक सही होता। ‘तीव्र’ की व्याख्या ‘मदोत्पादने तीक्ष्णः’ पर इसमें मदोत्पादने जोड़ा गया है और इस तरह इसे एक मधुर नशीले पेय के अनुरूप ढालने का प्रयत्न किया गया है। ‘पपिवांसं’ को ‘पीतवंतं’, आहवेषु - संग्रामेषु और सहते - अभिभवति।ऋचा का शब्दशः अनुवाद हुआ : यह निश्चय ही स्वादिष्ट है, साथ ही मधुर भी है। और यह तीखा (तिक्त) है, और रसीला भी है। इन्द्र जब इनका पान करने पर आ जाते है तो कोई उन्हें रोक नही पाता।
अगली ऋचा है:
अयं स्वादुरिह मदिष्ठ आस यस्येन्द्रो वृत्रहत्ये ममाद ।
पुरूणि यश्च्यौत्ना शम्बरस्य नवतिं नव च देह्यो3 हन् ।। 6.47.2
इसका ग्रिफिथ ने जो अनुवाद किया है वह निम्न प्रकार है:
2 This sweet juice here had mightiest power to gladden: it boldened Indra when he slaughtered Vrtra,
When he defeated Sambara's many onslaughts, and battered down his nine and ninety.
अनुवाद का धनात्मक पक्ष यह है कि इसमें नशाखोरी पर बल नहीं है, जिसने सोम की पहचान करने वालों को मशरुम तक पहुँचा दिया, जिसकी प्राणघातक मादकता को पहचान कर इसे कुकुरमुत्ता का नाम दिया गया था कि कोई भूल कर भी इसका सेवन न कर बैठे, और दूसरे लोग और कोई चारा न देख कर भांग को सोम सिद्ध करते रहे। दूसरी बात यह कि वह दुर्ग या नगर प्राचीर तो किया है परंतु इंद्र को आक्रामक नहीं शंबर के द्वारा पेश की गई चुनौती का सामना करने के रूप में उनका ध्वंस दिखाया है।
इन्द्र वृत्रवध के समय जिस सोम का पान करके आवेश में आए थे, वह स्वादिष्ट था, (अर्थात् कड़वा, कसैला या खट्टा नहीं था) और इसके पीने से उत्साहित होकर उन्होंने शंबर की निन्यानबे ‘पुरियों’ को ध्वस्त कर दिया। नैसर्गिक क्रिया के रूप में इन्द्र किसी भी वनस्पति या स्रोत से शुद्ध जल ग्रहण करते हैं, इसका मीठापन, खारापन नहीं। समुद्र से वाष्पन के माध्यम से शुद्ध जल लेते हैं लवण और दूसरे तत्व नमक की खेती करने वालों के काम आते हैे, जिनकी उपज अब शुद्ध नमक के कारोबारियों के काम आती है।
इंद्र को जिन कारणों से मादकता प्रेमी दिखाया जाता रहा है वह शुद्धता का प्रेम है जो सभी विकारों से मुक्त है और इस सरल बात को समझना कितना मुश्किल है इसे हम सोम के विषय में अनाप-शनाप के इतिहास से ही समझ सकते हैं।
भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )
ऋग्वेद की रहस्यमयता (5)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/04/5.html
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