Monday, 19 April 2021

पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 6.

“जब डंडे की मार पड़ी, तब जाकर मुल्क रास्ते पर आया।”
- एक पाकिस्तानी बुजुर्ग

पाकिस्तान ने पहले दशक में सात प्रधानमंत्री देखे। लियाकत अली ख़ान को छोड़ कर बाकी दो साल से भी कम टिके। कोई राष्ट्रीय चुनाव नहीं हुआ। प्रांतीय चुनावों में खूब धांधली होती। बलूचिस्तान और पख़्तूनिस्तान अपनी आज़ादी चाह रहे थे। पूर्वी पाकिस्तान भी बस खिसकने ही वाला था। अशिक्षा और गरीबी बढ़ती जा रही थी। अहमदिया पंथ के कट्टर धर्मियों की सुन्नी मुसलमानों से भिड़ंत हो रही थी। 

अमरीका ने अयूब ख़ान को चेतावनी दी कि कमान हाथ में लेनी होगी, अन्यथा डॉलर नहीं मिलेंगे। 

7 अक्तूबर, 1958 को राष्ट्रपति इसकंदर मिर्जा ने मार्शल लॉ की घोषणा की, और अयूब ख़ान को कमान सौंपी। मगर 24 अक्तूबर को वापस ले ली। 27  अक्तूबर को अयूब ख़ान ने राष्ट्रपति को ही गिरफ्तार कर लिया। सुहरावर्दी जो कुछ महीनों पहले प्रधानमंत्री थे और पाकिस्तान निर्माताओं में थे, उनको जेल में बंद कर दिया। फिर शुरू हुई तानाशाही, जो कमो-बेश अगले दशक तक रही। प्रेस सेंसर कर दिए गए। रेडियो पाकिस्तान पर फौज ने कब्जा कर लिया। ख़िलाफ़त करने वालों को जेल। 

हालांकि, मार्शल लॉ ने भटकते गिरते पाकिस्तान को एक दिशा भी दी। 

अपनी आत्मकथा में अयूब ख़ान लिखते हैं, “भ्रष्ट राजनीतिज्ञों के हाथ में देश देने से देश भी भ्रष्ट होता जा रहा था...मार्शल लॉ लगते ही 170 करोड़ रुपए के कर जमा कराए गए। मैंने एक व्यापारी से पूछा कि अपनी सही आय क्यों बता दी। उसने कहा कि आपकी वह तस्वीर दीवालों पर लगी देख ली जिसमें आपकी उंगली हमारी तरफ तनी होती और चेहरे में गुर्राहट दिखती, हम डर जाते कि यह आदमी माफ़ नहीं करेगा।”

तीन हज़ार भ्रष्ट या ढीले-ढाले काम करने वाले अधिकारियों को नौकरी से निकाल दिया गया। अपराधियों को सजा देने के लिए ‘फास्ट कोर्ट’ बन गए।उनके शासन में एक व्यक्ति को अधिकतम पाँच सौ एकड़ उपजाऊ जमीन की इजाज़त थी। बाकी की जमीन छीन कर भूमिहीनों में बाँट दी गयी। 

अमरीका के कहने पर उन्होंने एक नयी साफ-सुथरी राजधानी बना ली, जिसका नाम ‘इस्लाम’ के नाम पर रखा गया- इस्लामाबाद। यह फौजी बेस रावलपिंडी के निकट था, तो सेना पर नियंत्रण भी सुलभ था। एक और वजह थी कि कराची में यूपी-बिहार से आए और कुछ बेहतर पढ़े-लिखे मुसलमान भरे थे, जिनके तौर-तरीके उन्हें पसंद नहीं थे।

अयूब ख़ान उलेमाओं (धर्मगुरुओं) को भी कम तवज्जो देते। अपनी आत्मकथा में वह उन्हें पाकिस्तान को कट्टर और सनकी बनाने का जिम्मेदार लिखते हैं। उन्होंने बिना पहली पत्नी के इजाजत के दूसरी पत्नी रखने पर पाबंदी लगा दी, बच्चों की पैदाईश पर सख्ती कर दी, यहाँ तक कि महिलाओं को बुरकों से निकलने को कहा। 

उन्होंने कहा, “बीसवीं सदी के मुसलमान को सदियों पुराने रस्मों से खुद को सच्चा मुसलमान नहीं सिद्ध करना। आज की दुनिया के नियमों से जीना है।”

हद तो तब हो गयी जब उन्होंने ‘इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ पाकिस्तान’ का नामकरण ‘रिपब्लिक ऑफ पाकिस्तान’ कर दिया। हालांकि, 1962 में उन्हें वापस ‘इस्लामिक’ लगाना ही पड़ा। 

इन सब के बावजूद पाकिस्तान की तरक्की कम ही हो रही थी। जनता का भरोसा टूट रहा था। अमरीका में जॉन एफ केनेडी राष्ट्रपति बन गए, जिनका झुकाव भारत की तरफ था। अयूब ख़ान ने जनता का विश्वास जीतने के लिए चुनाव की घोषणा कर दी। मरे हुए लोकतंत्र में चुनाव तो खैर मामूली औपचारिकता ही होती है। 

कुछ-कुछ जेपी के अंदाज़ में एक नेता अपने लंबे राजनैतिक संन्यास से लौटी; और अयूब ख़ान के तानाशाही के खिलाफ खड़ी हो गयी। अयूब ख़ान के लिए यह मुकाबला कठिन था। आखिर यह वो नाम था जो पाकिस्तान का वजूद था।

अयूब ख़ान के सामने थी कायद-ए-आजम की बहन और पाकिस्तान की ‘मादर-ए-मिल्लत’ (राष्ट्रमाता) फ़ातिमा जिन्ना! 
(क्रमशः)

प्रवीण झा
( Praveen Jha )

पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 5.
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/04/5_19.html
#vss

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