ऋग्वेद युद्ध के वर्णनों से भरा हुआ है। जहां-जहां इंद्र वहां वहां युद्ध। इन्हीं के आधार पर आर्यों के आक्रमण का सिद्धांत रचा गया था। सायणाचार्य जिस कृष्णदेव राय के द्वारा वैदिक रचनाओं के भाष्य के लिए नियुक्त किए गए थे उनकी सबसे बड़ी महत्वाकांक्षा प्राचीन हिंदू राजाओं की तरह दिग्विजय करते हुए अपने साम्राज्य का विस्तार करने की थी। इसलिए उनको इन संघर्षों को युद्ध के रूप में चित्रित करने की आवश्यकता भी थी और संभवतः इसी दिशा में उनकी सोच के आगे बढ़ जाने के कारण अपने असाधारण भाषा ज्ञान के बाद भी वह वैदिक विशेषतः ऋग्वेद की रचनाओं को बहुत सही संदर्भ में नहीं रख सके। दान दक्षिणा के प्रलोभन ने अधिकांश रचनाओं को याजिकीय रंगत देने को बाध्य किया और इसके कारण वह पुष्यमित्र शुंग के अश्वमेध के पुरोधा पतंजलि से भी कम भरोसे के रह जाते हैं। उनकी इस असावधानी का लाभ पाश्चात्य वैदिक विद्वानों ने उठाया और इसी के आधार पर आर्यों के आक्रमण का सिद्धांत रच डाला।
मैंने अपने अध्ययन के क्रम में पाया कि जिन्हें इन्द्र के युद्धों के रूप में चित्रित किया गया है वे युद्ध नहीं है। जिन पुरों के भेदन के कारण इंद्र को पुरंदर की संज्ञा मिली हुई है, वे पुर न तो नगर हैं, न ही दुर्ग। भोजपुरी में पूर बांधना बादलों के जमाव को कहते हैं, जिसके लिए घटाटोप का प्रयोग चलता है। इस में जो वृष्टि होती है उसके लिए हिंदी में आकाश फटना और अंग्रेजी में क्लाउडबर्स्ट का प्रयोग होता है। ऋग्वेद में पुर शब्द के सभी संदर्भों का अध्ययन करने के बाद मैंने 1984 में ही एक लेख में यह प्रतिपादित किया था कि इनका उल्लेख बादलों के लिए किया गया है। वृत्र और शंबर का प्रयोग एकवचन और बहुवचन दोनों रूपों में हुआ है इसलिए मुझे यह भ्रम था कि ये पर्वतीय क्षेत्रों के घुमक्कड़ कबीले रहे हो सकते हैं जो वैदिक व्यापारियों के माल की लूटपाट किया करते थे। पर अब इस पर पुनर्विचार की आवश्यकता अनुभव हो रही है। क्यों? इसके विस्तार में हम नहीं जाना चाहते।
ऋग्वेद में असुरों के रूप में कुयव, शुष्ण, चुमुरि, धुनि, अशुष, आदि का उल्लेख है। मैंने यह पाया कि ये विविध प्रकार के बादलों के प्रतिरूप हैं। यह कोई नई सोच भी नहीं थी। मुझसे पहले ग्रिफिथ आदि ने भी यह संकेत दिया है कि यह बादल हो सकते हैं परंतु वे दुसरी व्याख्या की जगह बनाए रखते थे इसलिए वे इन्हें फींड या दुरात्मा के रूप में चित्रित करते थे। इसकी गुंजाइश भी हमारी पारंपरिक व्याख्या में थी। इसलिए दूसरों को कोसने के आसान रास्ते को छोड़कर हमें स्वयं अपनी समस्याओं का समाधान तलाशना होगा। वास्तविकता यह है कि आज मैं इस समझ को भी पंगु पाता हूं। कितना विचलित करने वाला है यह बोध कि पहले जो सही लगता था वह गलत है और जिसे गलत मानता था वह सही न भी हो तो सही हो सकता है।
( भगवान सिंह )
ऋग्वेद की रहस्यमयता (1)
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