Saturday, 9 November 2019

अयोध्या मामले का न्यायिक समाधान / विजय शंकर सिंह



आज फैसला आ ही गया। पक्ष विपक्ष कोई भी हारा जीता हो, यह तो पक्षकार जाने,, पर एक बात तय हो गयी कि राम को उनका घर मिला और वह अब लामकां नहीं रहे। वही घर, जिसे 1992 में अराजक भीड़ ने उन्हीं के नाम पर सत्तानशीन होने के उन्माद ने तोड़ दिया था। साथ ही, मुस्लिम समाज को उनकी मस्जिद के लिये पांच एकड़ जमीन भी मिली, जहां वे अपने लिये एक मस्जिद बना सकते हैं। भव्य मंदिर भी और भव्य मस्ज़िद भी। सुप्रीम कोर्ट ने दोनों की ही सुनी। यह एक महा विवाद का अंत है। यह एक बड़े मुद्दे का न्यायिक समाधान है जिसकी आड़ में जीवन से जुड़े सारे मुद्दे ताख पर रख दिये जाते हैं। यह उन्माद की रोजी रोटी पर पलने वाले धर्मांध कट्टरपंथी  दबाव समूहों को अप्रासंगिक करने वाला फैसला है।

सबसे बड़ी बात यह है कि यह फैसला सर्वसम्मति से दिया गया है। सारे जज इस फैसले पर पर एक मत हैं। अब इस फैसले पर अमल करना, इसे लागू करना, यह सारा काम सरकार का है। उसे तीन महीने में ट्रस्ट बनाना है और तब उस ट्रस्ट द्वारा यह योजना बनानी है कि रामलला का मंदिर कैसे बने। साथ ही उसे मस्ज़िद के लिये पांच एकड़ जमीन भी अयोध्या में चिह्नित करनी है।

फैसले में मंदिर निर्माण के विंदु पर, सुप्रीम कोर्ट न तो निर्मोही अखाड़ा के इस तर्क को नहीं माना है कि मंदिर बनाने का हक़ उनका है, और उसका दावा भी खारिज कर दिया है। शिया वक़्फ़ बोर्ड का भी दावा अदालत ने खारिज कर दिया है।  विश्व हिंदू परिषद को अदालत ने मंदिर निर्माण संबंधी किसी  जिम्मेदारी से अलग रखा है।  इन सब के दखल को खारिज़ करते हुये यह जिम्मेदारी अब सरकार को दी गई  है कि वह तीन महीने में एक ट्रस्ट बनाये और आगे बढ़े। यह भी उचित ही है कि, राम मंदिर को इन सब विवादित और राजनैतिक पचड़ों से अलग रखा जाना चाहिये और अदालत ने इसे रखा भी है। अभी 2.77 एकड़ ज़मीन जिसके मालिकाना हक का यह मुक़दमा था, वर्तमान रिसीवर के पास ही रहेगी। रिसीवर मंडलायुक्त फैजाबाद होते हैं। जब ट्रस्ट बन जायेगा तब जैसा तय होगा वैसा किया जाएगा।

सुप्रीम कोर्ट ने 22 दिसंबर 1949 की रात में मूर्ति को रखने और 6 दिसंबर 1992 को विवादित ढांचा तोड़ने के कृत्य को गलत माना है। बात भी सही है जिसके जन्मने से सवर्त्र प्रकाश फैल गया हो, उसी रामलला को चोरी से एक वीरान इमारत में रात के अंधेरे में रख कर जन्म का नाटक किया जाना, राम के महान और मर्यादापुरुषोत्तम रूप का मज़ाक़ ही तो उड़ाना था। राममंदिर की ज़मीन पर भले ही विवाद रहा हो पर राम के अस्तित्व और इस सर्वकालिक मान्यता कि अयोध्या ही रामजन्मभूमि है पर कोई विवाद नहीं है। यह एक लोकमान्यता और आस्था की बात है। 

इसी प्रकार जब 6 दिसंबर 1992 को जब एक अराजक भीड़ द्वारा, विवादित ढांचा तोड़ा गया था, उस समय रामलला की वहां पूजा हो रही थी, और तब वह एक मंदिर ही एक प्रकार से था। उसे तोड़े जाने के खिलाफ आज भी लखनऊ की अदालत में आपराधिक मुकदमा चल रहा है, जिसमें एलके आडवाणी, उमा भारती आदि मुल्ज़िम हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इस मुक़दमे को निपटाने के लिये अपने असाधारण अधिकार का प्रयोग करते हुये लखनऊ जिला अदालत के जिला जज को सेवानिवृत्त होने के बाद भी इस मुक़दमे की सुनवाई करने और उसे शीघ्रता से निपटाने का निर्देश देते हुये उनकी सेवा एक साल के लिये बढ़ा दी है। 

यह फैसला एक बेहद महत्वपूर्ण और चर्चित मुक़दमे का है। जब आस्था, कानून, शांति व्यवस्था और जनभावना के सारे सवाल बार बार उठ रहे हों और फैसला ऐसे जजों को देना हो, जो जानते हैं कि उनके फैसले के बाद कोई अदालत नहीं है तो ऐसे जजों को इन सवालों, आरोपों, प्रत्यारोपों, आशंकाओं, आक्षेपों, अपेक्षाओं के अरण्य में से सही और युक्तियुक्त मार्ग को खोजना और उसका अनुसरण करना कठिन होता है। पर खुशी की बात है कि जज साहबान इस जटिल मसले को हल करने में काफी हद तक सफल रहे। अगर बौद्धिक और अकादमिक न्याय के आधार पर किसी भी फैसले की समीक्षा की जाएगी तो सबमे कुछ न कुछ कमी निकलेगी। अपवाद यह फैसला भी नहीं होगा। मेरी राय में तमाम मीन मेख के बावजूद भी यह फैसला एक उचित और शान्तिपूर्ण समाधान की ओर एक सार्थक कदम है। 

सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड और बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के वकील इस फैसले पर पुनर्विचार याचिका दायर करने की बात कर रहे हैं । यह कदम न्यायिक तोष पाने के एक अवसर के रूप में भले ही विधिसम्मत हो, पर जिस समाधान पर सुप्रीम कोर्ट पहुंचा है, उससे इतर कोई भी निर्णय होने की उम्मीद करना मूर्खता होगी। यह याचिका खारिज होगी। यह जो दाखिल कर रहा है, उसे भी इसका परिणाम पता है और जो सुनवायी कर रहा है वह भी जानता है कि इसे खारिज होना है । पर यह कदम साम्रदायिक ताक़तों को फिर से गोलबंद होने का एक अवसर देगा, जिन्हें सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने अप्रासंगिक कर दिया है। इस फैसले को सबको स्वीकार करना चाहिये और और इस प्रकरण को यही समाप्त कर के आगे बढ़ जाना चाहिये।

दंगा सब नहीं करते हैं। दंगा भीड़ भी नहीं करती है। दंगा भीड़ और लोगों के बीच छुपे हुये अराजक और असामाजिक तत्व करते हैं। पर उनको दंगे का आधार धार्मिक कट्टरपंथी तत्व उपलब्ध करा देते हैं। आप को अगर यह लगता है हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही धर्मो के कट्टरपंथी एक दूसरे के जानी दुश्मन हैं तो आप मुगालते में हैं। दोनों ही एक दूसरे को खाद पानी देंते रहते हैं। दोनों ही एक दूसरे के अस्तित्व हेतु आधार उपलब्ध कराते रहते हैं। एक के बिना दूसरा अप्रासंगिक हो जाएगा, मर जायेगा। अब यह इन धर्मो के समझदार लोगों पर निर्भर है कि वह अपने अपने धर्म के ऐसे कट्टरपंथी तत्वों का खुलकर विरोध करें।

एकतरफा कट्टरता टिक ही नही सकती। करार चाहिये, बेकरार होने के लिये । दोनों ही एक दूसरे की कट्टरता के उत्तर में और अधिक अनुदार और कट्टर होते जाते हैं। ये एक दूसरे के धर्मो की उन सारी बुराइयों को ग्रहण कर लेते हैं और जो समाज बनता है वह कट्टर, अनुदार, अतार्किक और अधार्मिक होता है।  यह कट्टरपंथी तत्व धर्म के बाह्य आवरण ओढ़े हुये शैतान की ही तरह होते हैं जो मारीच की भूमिका में अक्सर दिखते हैं। 

ऊपर से यह सब शांति और सद्भाव की बड़ी बड़ी बातें करेंगे । आप को धर्मग्रंथों के रटे पर बगैर आत्मसात किये हुए सुभाषित सुनाएंगे, पर अंदर अंदर वह यह चाहते हैं कि उत्तेजना फैले, दंगे भड़के और उससे उनका हित सधे। इन कट्टरपंथी लोगों को पहचानिए, उन्हें एक्सपोज़ कीजिये। साम्रदायिक दंगो में सबसे अधिक नुकसान उस आम जनता और उन विधिपालक नागरिको का होता है जो मेहनत करके खाते कमाते हैं, और अपने लिये एक बेहतर जीवन चाहते हैं। 

यह फैसला नेंट पर आ गया। इसे लोग पढ़ेंगे और अपनी बात रखेंगे। इस फैसले पर, बहस आज हो रही है और अब आगे भी होगी। कानून के जानकार और कानून के विद्यार्थी इसे पढ़ेंगे और इस का अध्ययन भी करेंगे। हो सकता है यह फैसला विधि के पाठ्यक्रम में भी सम्मिलित हो जाय। यह अलग बात है कि, इसमे कमियां भी निकाली जाएगी और इस फैसले की प्रशंसा भी होगी। पर इस फैसले से एक बड़े विवाद का अंत हुआ। जो गलत है, उसे अदालत ने गलत कहा। आज मौसम भी साफ है। धूप भी चमक रही है। धुंध भी छंट चुकी है। आइए अब उन मुद्दों पर चलें जो हमें बेहतर जीवन की ओर ले जाने के लिये जरूरी हैं। 

© विजय शंकर सिंह 

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