Monday, 25 November 2019

भगवान सिंह का लेख - रामकथा की परंपरा ( 1 ) / विजय शंकर सिंह

रामकथा की परंपरा पर यह विद्वतापूर्ण लेख माला भगवान सिंह Bhagwan Singh जी की टाइमलाइन से साझा कर रहा हूँ। 
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रामकथा की परंपरा (1)

फादर कामिल बुल्के को ऋग्वेद में राम कथा नहीं मिली। यदि  राम के नाना अवतार थे तो उन अवतारों में इनके नाना  नाम भी रहे होंगे।  इसलिए ऋग्वेद में रामकथा  इंद्रकथा और  रावणवध वृत्रवध के रूप में चित्रित है। 

 यदि  रामायण का  नाम  सीतायन रहा होता तो इतनी असुविधा न होती।   यदि पीछे जाएं तो संभव है यह पूषा  की कथा रही हो।  वह पोषण  के देवता हैं। कहा तो यह जाता है कि पोषण का संबंध पशुओं से है, परंतु यह व्याख्या या तो खींचतान कर  उस समय की गई व्याख्या है जब कृषि के देवता इंद्र बन चुके थे।  या यह सोचने का दुस्साहस कोई नहीं कर सका इंद्र का उदय होने से पहले इस भूमिका का निर्वाह पूषा करते थे । बकरे की सवारी करने वाले की विशेष भूमिका पहले क्या थी और एक बार इन्हें बैलों से अन्न उपजाते - गोभिः यवं न चर्कृषत्- दिखाया गया है। यह स्मरण रहे कि देवयुग जिसमें  गोपालन आरंभ नहीं हुआ था, अज प्रधान पालतू पशु था। 

जो भी हो यह सोचना तो और भी दुष्कर था कि उससे पहले वर्षा के देवता  कृषि के देवता  नहीं, रुद्र हुआ करते थे।

 इसी चरण पर इस प्राचीन अविश्वास के अनुसार कि दक्षिण में एक बहुत विशाल वृक्ष है जो आकाश तक चला गया है उस वृक्ष पर एक बंदर रहता है।  जब वह उसकी डालियों को हिलाता है तो उससे वर्षा होती है।
ऋग्वेद में यह वृषाकपि  इंद्र का पुत्र होता है ।

परंतु वर्षा के इन दोनों देवों का संबंध कृषि से नहीं लगता। कृषि के प्राचीनतम देवता विष्णु ही है जो अपने वामन रूप में आग की चिंगारी हैं और अग्नि की तरह सर्वत्र व्याप्त हैं,  और विस्तृत रूप में सूर्य वन जाते हैं। 

विष्णु   ब्रह्म, पूषा, इंद्र  सभी सूर्य के पर्याय  या अलग-अलग रूप हैं।  मनु विवस्वान  या सूर्य के पुत्र हैं। राम का जन्म भी सूर्यवंश में होता है।  राम विष्णु के अवतार हैं।   नामभेद  के रहते हुए भी  इस तारतम्य में एक अंतःसंगति है। 

कई बार यह कह दिया जाता है वाल्मीकि के रामायण में राम का मानवीय पक्ष स्पष्ट है और तुलसी ने  अवतारवाद को प्रधान बना दिया।   हमारी अपनी  अपनी समझ से यह उलझन इस कथापरंपरा से अवगत न होने के कारण है। अवतारवाद  का  समावेश इस कथा में आदिम आचरण पर ही हो गया था।   

रोचक एंक दूसरा पक्ष भी है,  जैसे अग्नि  का  उत्पादक प्रयोग करने के कारण,  उस  समुदाय   के लोग भी अपने  को  देव/ ब्रह्म अर्थात् अग्नि कहने लगे थे,  उसी तरह उसके कई हजार साल बाद धातु  युग का आरंभ होने पर, धातु विद्या मैं दक्ष  जन   अपने  को   आगरिया =  अग्नि पुत्र  कहने लगे,  क्योंकि धातुविद्या में  अग्नि की भूमिका और भी प्रधान थी।  

अंगिरा का अर्थ ही होता है आग  (यदंग दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि । तव इत् तत् सत्यं अंगिरः ।। 1.1.6),।  भृगु (भग/भर्ग/भर्ज >  कण्वा इव भृगवः सूर्या इव विश्वं हि इत तं आनशुः ) भी अपना  संबंध अग्नि से जोड़ते हैं, यद्यपि इनकी दक्षता  बढ़ईगिरी तक  सीमित दिखाई देती है।  

अक्सर  परंपराओं में  भेद करने वाले आसुरी विज्ञान को  पूर्ववर्ती और  कृषि की परंपरा  से अलग या तो विरोधी या प्रतिस्पर्धी रूप में चित्रित करते हैं।  ऐसा करते हुए कुछ पहलुओं की ओर  ध्यान नहीं दिया जाता।  यह सच है कि असुरों  के लिए  धरती,  जल धाराएं और वनस्पतियां माता के समान थीं और इनको  काटना, जलाना, खोदना या दूषित करना वर्जित था।  इसे याद रखना होगा  कि वर्जना और मर्यादा दो ऐसी चीजें हैं कि  इनकी रक्षा के लिए  जान दी और दूसरे की जान ली भी जा सकती है।

भारतीय परंपरा में धरतीमाता, मां गंगे, तुलसी माता जैसी अवधारणाएं इन्हीं असुरों से आई हैं। इसी कारण आरंभिक अवस्था में  असुरों ने  कृषि की ओर अग्रसर होने वाले समाज का हिंसक विरोध किया।  ब्राह्मण का अर्थ कृषि कर्मी और यज्ञ का अर्थ उत्पादन या अपने समय का ही नहीं, आज तक का श्रेष्ठतम कर्म अर्थात दुनिया का पेट भरने वाला कर्म, कृषि कर्म था।  इस यज्ञ का विरोध सहते हुए  किसानी  करने वालों को जिस यातना  से गुजरना पड़ा और फिर भी वह अपने निश्चय से विरत नहीं हुए, उन्नत कृषि तथा स्थाई निवास की ओर  अग्रसर हुए।   

सीता कृषि के  आरंभिक  चरण  की देवी नहीं  है। वह  उस चरण पर जन्म लेती हैं जब  भूमि को जोतने के यंत्र विकसित हो चुके हैं और  पहले की तुलना में देवों की धाक जम चुकी है,  इसलिए  प्रतीक रूप में  जुताई के समय  ब्राह्मणों के रक्त से भरे हुए और जमीन में दबे हुए घड़े से उनकी उत्पत्ति होती है- कृषिदेवी के रूप में। 

देवों का वर्चस्व स्थापित हो जाने के बाद, वन्य भूमि के कृषि भूमि में परिणत हो जाने के बाद,  उन वनों के असुरों के  निराश्रय हो जाने के बाद, वे बहुत धीरे-धीरे कृषि कर्मियों को अपनी सेवाएं प्रदान करने लगे। वर्जना  के निर्वाह और कृषि कर्मियों से  आहार जुटाने के  द्वंद्व में   सक्रियता  के नए तरीके आविष्कार किए गए:
जिन जानवरों का वे शिकार करते थे अब उन्हें  पकड़ कर, पालकर,  देवों की सेवा में पेश करना;
1. पशुपालन और पशु आधारित उपक्रमों का विकास ;
2. ऐसे कौशलों  और  निपुणताओं का विकास  जिनमें वर्जना की रक्षा संभव हो और जो कृषि कर्मियों के लिए किसी रूप में उपयोगी हो।
3. ऐसी कलाओं - नृत्य, संगीत, अभिनय, कलाबाजी और मायाचार  या रूपपरिवर्तन को देवों की रुचि के अनुसार परिष्कृत करना। इसने आगे चलकर नाट्यकला को आगे आगे बढ़ाया।

हम इनका उल्लेख करते हुए  केवल  इस बात की ओर ध्यान दिलाना चाहते हैं कि देवों और असुरों का हिंसक विरोध और प्रतिरोध चल तो रहा था परंतु जिस चरण पर धातु विद्या, पाषाणी  और काष्ठ कला को अपनी जीविका का साधन बना लेने वालों का वर्ग उत्पन्न होता है वह चरण विरोध का नहीं है, परिस्थितियों में बदलाव के कारण, सहयोग का है, और सहयोग का भी इसलिए है कि अपनी वर्जनाओं के कारण यह उस उत्पादन पद्धति को नहीं अपना सके, जिसमें वे भूस्वामी बन सकते थे। कदम कदम पर  वर्जनाएंँ थी।  अधबिसरे रूप में आर्थिक अभाव में भी उसी पुराने गर्व ने  उनके गरूर को बनाए रखा रखा । 

 हम  भले सामंतवादी वर्ण व्यवस्था के कारण कई तरह के ऊंच-नीच के शिकार हैं,  विविध रूपों में हम सभी को उनकी सेवा करनी पड़ती है जिनका अर्थव्यवस्था पर अधिकार है। यह सेवा अपने निजी गरूर के साथ करने की जिद ही होती है जो हमें उनकी संपत्ति को भी तुच्छ  मानने का  आत्मबल  प्रदान करती है । विविध योग्यताओं से संपन्न हम सभी अपनी अर्थव्यवस्था के  दास हैं। दास की जगह  पहले  शूद्र का प्रयोग होता था।  पता लगाइए, टीका चंदन लगाने वालों,  और अपनी श्रेष्ठता का तामझाम करने वालों में कौन है जो  शूद्र नहीं है,  वैज्ञानिकों से लेकर  ज्ञानियों  और   अल्पज्ञों तक कौन है जो अपनी  अर्थव्यवस्था का गुलाम नहीं है। 

हमने  अपने तंत्र को दूसरों के मंत्र से समझने  का प्रयत्न किया है।  हमारे समाज में एक विचित्र और अदृश्य प्रतिस्पर्धा चलती रही है,  ब्राह्मण शूद्र को नीच समझता रहा,   शूद्रों में  अपनी कला  दक्षता पर गर्व करने वाले  ब्राह्मण को भिखारी समझते रहे।  इस  बात को किसी और ने नहीं भारतीय समाज के एक अध्येता, अरविंद शर्मा ने रेखांकित किया था, जिसमें उन्होंने एक मोची को अपने बेटे को झिड़कते सुना था  कि काम धंधा नहीं सीखेगा तो क्या ब्राह्मणों की तरह भीख मांगेगा। 

बात तो बनी नहीं। कल देखेंगे।
( भगवान सिंह )
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#vss 

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