Monday, 11 November 2019

मौलाना आज़ाद के जन्मदिन 11 नवम्बर को उनका विनम्र स्मरण / विजय शंकर सिंह


11 नवम्बर 1888 को  स्वाधीनता संग्राम के योद्धा, मौलाना अबुल कलाम आजाद का जन्म हुआ था। उनका जन्म मक्का में हुआ था। वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रथम पंक्ति के नेताओ में से थे। उनसे जुड़ा यह प्रसंग पढें। अपनी पत्नी की बीमारी पर वे जेल से निकल कर पत्नी से मिलना चाहते थे, पर अंग्रेज़ों ने माफी मांगने को कहा। लेकिन मौलाना ने माफी नहीं मांगी।

" मौलाना अबुल कलाम आज़ाद जेल में थे जब उनकी धर्मपत्नी मृत्युशय्या पर पहुँच गईं. अंग्रेज सरकार को चिट्ठी लिखी कि मुझे कुछ समय के लिए पत्नी से मिलने दिया जाए. सरकार बहादुर ने कहा ज़रूर, बस लिख कर माफ़ी माँग लो. मौलाना आज़ाद ने मना कर दिया. पत्नी का स्वर्गवास हो गया. लेकिन मौलाना आज़ाद ने माफ़ी नहीं माँगी. कोई साल भर बाद जब जेल से छूटे तो सीधे पत्नी की कब्र पर गए."

मौलाना आज़ाद उंस दौर में कांग्रेस की विचारधारा के साथ मजबूती से बने रहे जब इस्लाम के नाम पर जिन्ना एक अलग मुल्क लेने पर आमादा थे। जब जब मौलाना आज़ाद को कांग्रेस द्वारा मुस्लिम लीग के साथ किसी वार्ता में भेजा जाता था तो, जिन्ना न केवल आज़ाद के प्रतिनिधित्व को अमान्य कर देते थे, बल्कि उनका मज़ाक़ भी बनाते थे। जिन्ना हर समय यह साबित करने की कोशिश करते थे कि, कांग्रेस हिंदुओ का प्रतिनिधित्व करती है, और वे मुस्लिमों का। जिन्ना और सावरकर के द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत के खिलाफ अगर चट्टान की तरह कोई था तो वह मौलाना अबुल कलाम आजाद थे जो अंत तक एक धर्मनिरपेक्ष भारत की अवधारणा के साथ रहे। वे देश के पहले शिक्षा मंत्री भी रहे।

भारत के बंटवारे पर उनकी एक बहुत अच्छी पुस्तक है, इंडिया विंस फ्रीडम। इस पुस्तक में भारत के बंटवारे की अंतर्कथा लिखी हुयी है। पुस्तक के अंतिम 30 पृष्ठ उनके मृत्यु के बीस साल बाद के संस्करण में छपे हैं। मौलाना आज़ाद भारत के बंटवारे के दौरान होने वाली वार्ता में भाग लेते रहे और नेहरू पटेल आज़ाद की प्रसिद्ध त्रिमूर्ति में वे रहे। पुस्तक में गांधी जी के बारे में उनका एक मार्मिक प्रसंग है। बंटवारे के संबंध में होने में नेहरू, पटेल, जिन्ना, सरदार बलदेव सिंह,लॉर्ड माउंटबेटन सभी एक गोल मेज पर बैठे हैं। मौलाना आज़ाद भी वहीं हैं। गांधी को जानबूझकर कर इस वार्ता से अलग रखा गया। उन्हें शायद पूरी बात भी नहीं बतायी गयी। आज़ाद सिगरेट पर सिगरेट पिये जा रहे हैं। बात पंजाब आसाम और बंगाल को लेकर अटक गयी थी। जिन्ना पूरा पंजाब और बंगाल मय आसाम के चाहते थे। मौलाना आज़ाद महात्मा गांधी की दशा एक ऐसी बूढ़ी और बेबस मां से करते हैं जो अपने बेटों को संपत्ति के बंटवारे पर लड़ता देख तो रही है पर कुछ कर नहीं पा रही है।

बंटवारे के बाद, जब पलायन होने लगा, दंगे भड़कने लगे और लोग सदियों से अपने जमे जमाये घर बार को, फ़ैज़ के शब्दों में कहें तो,'उस दाग दाग उजाला, वो शब गज़ीदा सहर' में छोड़ कर भारत से पाकिस्तान और पाकिस्तान से भारत आने जाने लगे तो जो बेबसी का आलम था, इतिहास की जो भयंकर भूल थी, उसके बारे में मौलाना आज़ाद ने जो भाषण दिल्ली की जामा मस्जिद में दिया वह उस कालखंड का एक दस्तावेज है।
उक्त भाषण के कुछ अंश यहां आप पढ़ सकते हैं,
" तुम्हें याद है? मैंने तुम्हें पुकारा और तुमने मेरी ज़बान काट ली. मैंने क़लम उठाया और तुमने मेरे हाथ कलम कर दिए. मैंने चलना चाहा तो तुमने मेरे पांव काट दिए. मैंने करवट लेनी चाही तो तुमने मेरी कमर तोड़ दी. हद ये कि पिछले सात साल में तल्ख़ सियासत जो तुम्हें दाग़-ए-जुदाई दे गई है. उसके अहद-ए शबाब (यौवनकाल, यानी शुरुआती दौर) में भी मैंने तुम्हें ख़तरे की हर घड़ी पर झिंझोड़ा. लेकिन तुमने मेरी सदा (मदद के लिए पुकार) से न सिर्फ एतराज़ किया बल्कि गफ़लत और इनकारी की सारी सुन्नतें ताज़ा कर दीं. नतीजा मालूम ये हुआ कि आज उन्हीं खतरों ने तुम्हें घेर लिया. जिनका अंदेशा तुम्हें सिरात-ए-मुस्तक़ीम (सही रास्ते ) से दूर ले गया था."

" सच पूछो तो अब मैं जमूद (स्थिर) हूं. या फिर दौर-ए-उफ़्तादा (हेल्पलेस) सदा हूं. जिसने वतन में रहकर भी गरीब-उल-वतनी की जिंदगी गुज़ारी है. इसका मतलब ये नहीं कि जो मक़ाम मैंने पहले दिन अपने लिए चुन लिया, वहां मेरे बाल-ओ-पर काट लिए गए या मेरे आशियाने के लिए जगह नहीं रही. बल्कि मैं ये कहना चाहता हूं. मेरे दामन को तुम्हारी करगुज़ारियों से गिला है. मेरा एहसास ज़ख़्मी है और मेरे दिल को सदमा है. सोचो तो सही तुमने कौन सी राह इख़्तियार की? कहां पहुंचे और अब कहां खड़े हो? क्या ये खौफ़ की ज़िंदगी नहीं. और क्या तुम्हारे भरोसे में फर्क नहीं आ गया है. ये खौफ तुमने खुद ही पैदा किया है."

" अभी कुछ ज़्यादा वक़्त नहीं बीता, जब मैंने तुम्हें कहा था कि दो क़ौमों का नज़रिया मर्ज़े मौत का दर्जा रखता है. इसको छोड़ दो. जिनपर आपने भरोसा किया, वो भरोसा बहुत तेज़ी से टूट रहा है, लेकिन तुमने सुनी की अनसुनी सब बराबर कर दी. और ये न सोचा कि वक़्त और उसकी रफ़्तार तुम्हारे लिए अपना वजूद नहीं बदल सकते. वक़्त की रफ़्तार थमी नहीं. तुम देख रहे हो. जिन सहारों पर तुम्हार भरोसा था. वो तुम्हें लावारिस समझकर तक़दीर के हवाले कर गए हैं. वो तक़दीर जो तुम्हारी दिमागी मंशा से जुदा है."

" ये ठीक है कि वक़्त ने तुम्हारी ख्वाहिशों के मुताबिक अंगड़ाई नहीं ली बल्कि उसने एक कौम के पैदाइशी हक़ के एहतराम में करवट बदली है. और यही वो इंकलाब है, जिसकी एक करवट ने तुम्हें बहुत हद तक खौफजदा कर दिया है. तुम ख्याल करते हो तुमसे कोई अच्छी शै (चीज़) छिन गई है और उसकी जगह कोई बुरी शै आ गई है. हां तुम्हारी बेक़रारी इसलिए है कि तुमने अपने आपको अच्छी शै के लिए तैयार नहीं किया था. और बुरी शै को अपना समझ रखा था. मेरा मतलब गैरमुल्की गुलामी से है. जिसके हाथों तुमने मुद्दतों खिलौना बनकर जिंदगी बसर की. एक वक़्त था जब तुम किसी जंग के आगाज़ की फिक्र में थे. और आज उसी जंग के अंजाम से परेशान हो.आखिर तुम्हारी इस हालत पर क्या कहूं. इधर अभी सफर की जुस्तजू ख़त्म नहीं हुई और उधर गुमराही का ख़तरा भी दर पेश आ गया."

" अब हिंदुस्तान की सियासत का रुख बदल चुका है. मुस्लिम लीग के लिए यहां कोई जगह नहीं है. अब ये हमारे दिमागों पर है कि हम अच्छे अंदाज़-ए-फ़िक्र में सोच भी सकते हैं या नहीं. इसी ख्याल से मैंने नवंबर के दूसरे हफ्ते में हिंदुस्तान के मुसलमान रहनुमाओं को देहली में बुलाने का न्योता दिया है. मैं तुमको यकीन दिलाता हूं. हमको हमारे सिवा कोई फायदा नहीं पहुंचा सकता."

" मैंने तुम्हें हमेशा कहा और आज फिर कहता हूं कि नफरत का रास्ता छोड़ दो. शक से हाथ उठा लो. और बदअमली को तर्क (त्याग) दो. ये तीन धार का अनोखा खंजर लोहे की उस दोधारी तलवार से तेज़ है, जिसके घाव की कहानियां मैंने तुम्हारे नौजवानों की ज़बानी सुनी हैं. ये फरार की जिंदगी, जो तुमने हिजरत (पलायन) के नाम पर इख़्तियार की है. उसपर गौर करो. तुम्हें महसूस होगा कि ये ग़लत है."

" अज़ीज़ों! अपने अंदर एक बुनियादी तब्दीली पैदा करो. जिस तरह आज से कुछ अरसे पहले तुम्हारे जोश-ओ-ख़रोश बेजा थे. उसी तरह से आज ये तुम्हारा खौफ़ बेजा है. मुसलमान और बुज़दिली या मुसलमान और इश्तआल (भड़काने की प्रक्रिया) एक जगह जमा नहीं हो सकते. सच्चे मुसलमान को कोई ताक़त हिला नहीं सकती है. और न कोई खौफ़ डरा सकता है. चंद इंसानी चेहरों के गायब हो जाने से डरो नहीं. उन्होंने तुम्हें जाने के लिए ही इकट्ठा किया था. आज उन्होंने तुम्हारे हाथ में से अपना हाथ खींच लिया है तो ये ताज्जुब की बात नहीं है. ये देखो तुम्हारे दिल तो उनके साथ रुखसत नहीं हो गए. अगर अभी तक दिल तुम्हारे पास हैं तो उनको अपने उस ख़ुदा की जलवागाह बनाओ."

" मैं क़लाम में तकरार का आदी नहीं हूं लेकिन मुझे तुम्हारे लिए बार-बार कहना पड़ रहा है. तीसरी ताक़त अपने घमंड की गठरी उठाकर रुखसत हो चुकी है. और अब नया दौर ढल रहा है. अगर अब भी तुम्हारे दिलों का मामला बदला नहीं और दिमागों की चुभन ख़त्म नहीं हुई तो फिर हालत दूसरी होगी. लेकिन अगर वाकई तुम्हारे अंदर सच्ची तब्दीली की ख्वाहिश पैदा हो गई है तो फिर इस तरह बदलो, जिस तरह तारीख (इतिहास) ने अपने को बदल लिया है. आज भी हम एक दौरे इंकलाब को पूरा कर चुके, हमारे मुल्क की तारीख़ में कुछ सफ़हे (पन्ने) ख़ाली हैं. और हम उन सफ़हो में तारीफ़ के उनवान (हेडिंग) बन सकते हैं. मगर शर्त ये है कि हम इसके लिए तैयार भी हो."

" अज़ीज़ों, तब्दीलियों के साथ चलो. ये न कहो इसके लिए तैयार नहीं थे, बल्कि तैयार हो जाओ. सितारे टूट गए, लेकिन सूरज तो चमक रहा है. उससे किरण मांग लो और उस अंधेरी राहों में बिछा दो. जहां उजाले की सख्त ज़रुरत है."

" आज की सोहबत खत्म हुई. मुझे जो कुछ कहना था वो कह चुका, लेकिन फिर कहता हूं, और बार-बार कहता हूं अपने हवास पर क़ाबू रखो. अपने गिर्द-ओ-पेश अपनी जिंदगी के रास्ते खुद बनाओ. ये कोई मंडी की चीज़ नहीं कि तुम्हें ख़रीदकर ला दूं. ये तो दिल की दुकान ही में से अमाल (कर्म) की नक़दी से दस्तयाब (हासिल) हो सकती हैं. "

आज उनके जन्मदिन पर उनका विनम्र स्मरण। 
© विजय शंकर सिंह 

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