रिटायर हो जाने के बाद एन्टी करप्शन एक्ट 1988 के अनुसार किसी सरकारी या लोकसेवक कर्मचारी के खिलाफ, मुक़दमा चलाने के लिये सरकार के अनुमोदन या अनुमति की ज़रूरत नहीं है। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा है कि भ्रष्टाचार निवारण या निरोधक अधिनियम, 1988 के तहत एक लोक सेवक या सरकारी कर्मचारी की सेवानिवृत्ति के बाद उसके खिलाफ केस चलाने के लिए किसी भी अनुमोदन या स्वीकृति की आवश्यकता नहीं है।
न्यायमूर्ति दिनेश कुमार सिंह ने याचिकाकर्ता, एक सरकारी इंटर कॉलेज के सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य, श्याम बिहारी तिवारी द्वारा उठाए उन तर्कों को स्वीकार करने से इनकार कर दिया, जिसमें कहा गया था कि वह लोक सेवक की परिभाषा के अंतर्गत आते हैं, इसलिए अभियोजन के लिए स्वीकृति आवश्यक थी।
कोर्ट ने माना कि,
''भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत अपराध का संज्ञान लेने के लिए धारा 19 के प्रावधानों के अनुसार, लोक सेवक के लिए सेवा में बने रहना आवश्यक है और वर्तमान मामले में संज्ञान लेने की तारीख वाले दिन याचिकाकर्ता सेवा में नहीं था, क्योंकि वह रिटायर हो गया था, इसलिए भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 19 के तहत याचिकाकर्ता के लिए अभियोजन स्वीकृति लेने की आवश्यकता नहीं थी।''
याचिकाकर्ता ने यह भी तर्क दिया था कि सीआरपीसी की धारा 197 के तहत मंजूरी की आवश्यकता थी, क्योंकि उसके खिलाफ आईपीसी के प्रावधानों के तहत चार्जशीट दायर की गई थी।
इस दलील से इनकार करते हुए अदालत ने कहा
''अभियोजन स्वीकृति लेने के लिए अधिनियम और आधिकारिक कर्तव्य के निर्वहन के बीच एक उचित संबंध होना चाहिए। अधिनियम के साथ कर्तव्य का इस तरह का संबंध होना चाहिए कि अभियुक्त उचित तरह से यह दावा कर सकता है, लेकिन एक ढोंग या काल्पनिक दावा नहीं, कि उसने यह अपने कर्तव्य के प्रदर्शन या निर्वहन के दौरान किया है।"
प्रोफेसर एन.के. गांगुली बनाम सीबीआई, नई दिल्ली, (2016) 1 जेआईसी 253 (एससी), मामले पर विश्वास जताया गया, जिसमें दिल्ली हाईकोर्ट ने टिप्पणी की थी कि यदि सार्वजनिक कार्यालय का दुरुपयोग किया गया है तो यह नहीं माना जाएगा कि अभियुक्त ने अपने आधिकारिक कर्तव्य के दौरान अपने कार्य का निर्वहन किया है। इस तरह के मामलों में, अभियोजन स्वीकृति लेने की कोई आवश्यकता नहीं होगी।
इसी तरह अमीर सिंह बनाम पेप्सू राज्य, एआईआर 1955 एससी 309 में, शीर्ष अदालत ने कहा था कि,
''सीआरपीसी की धारा 197 के तहत एक लोक सेवक द्वारा किए गए हर अपराध के लिए अभियोजन की मंजूरी लेने की आवश्यकता नहीं है, और न ही उसके द्वारा किए गए हर उस कार्य के लिए, जबकि वह वास्तव में अपने आधिकारिक कर्तव्यों के पालन में लगा हुआ था, लेकिन अगर शिकायत की गई कार्रवाई का सीधे उसके आधिकारिक कर्तव्यों से संबंधित है, और यदि पूछताछ की जाती है, तो यह दावा किया जा सकता है कि उक्त कार्रवाई कार्यालय के आधार पर की गई है, ऐसे मामले में मंजूरी आवश्यक होगी।''
याचिकाकर्ता पर आरोप लगाया गया था कि उसने फर्जी स्कूल और बैंक खाता खोलने के लिए दस्तावेजों में हेर-फेर या फर्जीवाड़ा किया था। ताकि उस धनराशि का दुरुपयोग किया जा सके, जो कि योग्य छात्रों को छात्रवृत्ति के माध्यम से वितरित की जानी थी। अपनी गैरकानूनी गतिविधियों के दौरान, याचिकाकर्ता ने कथित तौर पर कुछ लोगों के साथ मिलीभगत की, जिसमें एक बैंकर भी शामिल था, और उसने 3,48,000 रुपये का गबन कर लिया।
इस प्रकार, याचिकाकर्ता के खिलाफ आईपीसी की धारा 409,201 व 120बी और भ्रष्टाचार निवारण या निरोधक अधिनियम, 1988 की धारा 13 (1) और 13 (2) के तहत केस बनाया गया था। उल्लेखनीय रूप से, याचिकाकर्ता वाराणसी के एक इंटर कॉलेज के सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य थे। इसी आधार पर उसने मांग की थी कि उसके खिलाफ केस चलाने के लिए अभियोजन की स्वीकृति ली जानी चाहिए थी।
याचिकाकर्ता की याचिका को उपरोक्त आधार पर ही ट्रायल कोर्ट द्वारा खारिज कर दिया गया था। इसलिए उसने उस आदेश पर हाईकोर्ट में पुनर्विचार याचिका दायर की थी।
याचिकाकर्ता के पुनर्विचार आवेदन को खारिज करते हुए अदालत ने कहा,
''उक्त काम या कार्य याचिकाकर्ता के आधिकारिक कर्तव्य के निर्वहन में किए गए कार्यो की श्रेणी में नहीं आएगा। इसलिए, सीआरपीसी की धारा 197 के तहत अभियोजन की स्वीकृति न लेने के कारण, अदालत को नहीं लगता है कि आईपीसी की धारा 409,201,120 बी के तहत उपरोक्त अपराध के लिए अभियुक्त के खिलाफ केस में कोई कमज़ोरी है।''
© विजय शंकर सिंह
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