इसमे कोई दो राय नहीं कि वकील सत्ता के लिये एक दबाव समूह के रूप में पुलिस से अधिक उपयोगी है। उनकी बात मना कर सके यह साहस हाईकोर्ट में भी नहीं है और न ही सुप्रीम कोर्ट में। न ही सरकार के किसी मंत्री में, न ही किसी नेता में। वे एक मज़बूत वोट बैंक भी हैं और राजनीतिक दलो के सदस्य बन कर राजनीति में अपनी सक्रिय भागीदारी भी निभाते हैं। जबकि पुलिस सरकार का एक विभाग है। नियम कानून से बंधा है। हज़ार बंदिशें हैं। अनुशासन इसका परम धर्म है।
तीसहजारी अदालत के मामले में झगड़ा पुलिस वैन जो मुल्ज़िम लेकर अदालत में जा रही है पर बैठे पुलिसकर्मियों और रास्ते मे एक वकील की खड़ी गाड़ी जिसके बारे में कहा जाता है कि वह गलत और रास्ते मे अवरोध के रूप में खड़ी थी के, पार्किंग को लेकर पुलिस और एक वकील के बीच हुआ और फिर यह झगड़ा बढ़ा तो एक बड़ी कानून व्यवस्था की स्थिति उत्पन्न हो गए। एक तरफ पुलिसकर्मी, और दूसरी तरफ वकीलों की भीड़। एक पुलिसकर्मी पर यह आरोप है कि उसने गोली चला दी। यह भी कहा जा रहा है कि उसकी रायफल छीनने झपटने, जैसा कि अक्सर मारपीट में हो जाता है। फिर तो उस समय वहां जो हंगामा हुआ उसमें वकील भारी पड़े क्योंकि सुबह का समय था और कचहरी वकीलों से भरी पड़ी थी । बाद में और भी पुलिस बल भेजा गया । फिर तो बल प्रयोग के अतिरिक्त कोई चारा ही नहीं था।
शाम तक हाईकोर्ट भी सक्रिय हुआ । बेंच बैठी । बार तलब हुआ। पुलिस की तरफ से कोई गया या नहीं यह नहीं पता। पर हाईकोर्ट ने कुछ पुलिस अधिकारियों के निलंबन और तबादले का हुक्मनामा जारी कर दिया और जैसा कि अक्सर होता आया है पुलिस पिटी भी, बेइज्जत भी हुयी, और अब वे पुलिसकर्मी निलंबित हुये जो वहां कानून व्यवस्था को बनाये रखने के लिये गये थे। अब न्यायिक जांच जब होगी, तब होगी। जो भी होगा वह सामने आएगा, यह बाद की बात है। पर फिलहाल तो पुलिस ही हर तरफ से दोषी पाई जा रही है।
सरकार के सभी विभागों में पुलिस एकमात्र ऐसा विभाग है जहां सबसे अधिक निलंबन, दंडात्मक आधार पर तबादले और बर्खास्तगी होती है। यह सब लंबे समय से होता आया है। पुलिस की कभी कोई सामुहिक प्रतिक्रिया भी ऐसे दण्डों के प्रति नहीं हुयी है और न होती है। लोग अदालतों में ज़रूर जाते है और वहाँ अपनी बात कहते हैं। यह ऐसा विभाग है, जहां कभी कभी अफसर को भी यह अंदाजा होता है कि वह मातहत को गलत सज़ा दे रहा है और मातहत को भी यह अंदाज़ होता है कि अफसर किसी दबाव में है, पर वह सज़ा स्वीकार कर लेता है । यह अलग बात है कभी कभी वह अफसर ही बाद में विभागीय अपील आदि के द्वारा अपने मातहत की मदद भी कर देता था। और सब कुछ सामान्य हो जाता था। यह एक प्रकार की पारिवारिक बॉंडिंग होती थी। आज भी यह खत्म नहीं हुयी है।
यह अलग बात है अब अफसर और मातहत दोनों में ही परिवर्तन आ गया है। पुलिस में अनुशासन का अंदाज़ा आप फेसबुक पर भी देख सकते हैं। मेरी ही मित्रसूची में कुछ मेरे साथी है, कुछ मेरे बॉस रह चुके अफसर हैं कुछ तो डीजी साहबान है और कुछ मातहत। पर असहज से असहज करती पोस्ट और कमेंट पर हम सब अपने अपने विगत रैंक के अनुसार ही एक दूसरे को संबोधित करते हैं और अनुशासन की मर्यादा बनाये रखते हैं। यह हम चाहें भी कि अनुशासन की सीमा टूटे तो भी, वह अनुल्लंघनीय होती है, लंबे समय तक का रेजीमेंटेशन हमें बहकने से रोक देता है । यह सामूहिक प्रशिक्षण की देन है, जो अपनी बात कहने के लिये रोकता भी नहीं है और आपसी मर्यादा और अनुशासन को तोड़ने भी नहीं देता है।
दिल्ली पुलिस के जवानों के धरने को अनुशासनहीनता की दृष्टि से भी कुछ मित्र और मेरे सहयोगी देख सकते हैं पर मेरी राय उनसे अलग है। अनुशासन का यह कतई अर्थ नहीं है कि अपनी बात कही ही न जाय। घुट कर रहा जाय। किसी कैद में रहा जाय। अनुशासन का अर्थ एक यह भी है कि अपनी बात विभाग के आला अधिकारियों तक खुल कर कही जाय, उनकी बात सुनी भी जाय और जो आक्रोश, अभिव्यक्त हो रहा है, उसका निदान किया जाय। पर कोई भी ऐसी हरकत न की जाय जिससे विभागीय अनुशासनहीनता की बात सामने आए और मर्यादा टूटे। मैं दिल्ली पुलिस के इस धरने को न तो अनुशासनहीनता मानता हूं और न ही अनुचित। यह एक उचित आक्रोश की सामुहिक अभिव्यक्ति है जो अहिंसक रही।
पुलिस में कोई यूनियन नहीं है। एक सशस्त्र बल होने के कारण पुलिस में यूनियन होनी भी नहीं चाहिये। इससे अनेक ऐसी समस्याएं उत्पन्न होंगी जो समाधान कम करेंगी और कई अन्य नयी समस्याएं और पैदा हो जाएंगी। अब सवाल उठता है, जब विभाग में यूनियन नहीं है तो किसी सामूहिक समस्या का समाधान कैसे हो। कोई सामुहिक समस्या कैसे विभाग के अफसरों और सरकार तक पहुंचाया जाय। यहां यह दायित्व विभाग के अफसरों का है कि उनके और मातहतों के बीच एक ऐसा तालमेल और बंधन हो जो एक परिवार के मुखिया और उंस परिवार के अन्य सदस्यों के बीच होता है। परिवार में मुखिया और सदस्यों के बीच का यह बंधन ही अफसर मातहत के बीच एक ऐसा समझदारी भरा बंधन सूत्र होता है जो समस्याओं को न केवल सुनने और समझने में ही मदद करता है बल्कि उसका समाधान भी देता है। यूनियन जैसे किसी मंच के अभाव में यह गुरुतर दायित्व विभाग के अफसरों को ही लेना है क्योंकि पूरा विभाग ही उनकी तरफ ऐसे अवसरों पर देखता हैं, और इन्ही मौकों पर उनके नेतृत्व की परख भी होती है।
पुलिस विभाग को किसी फैक्ट्री, या अन्य सरकारी विभागों की तरह देख कर समझने की कोशिश करेंगे तो नहीं समझ पाएंगे। इसे सेना या अन्य सशस्त्र बलों की तरह देख कर समझें। दिल्ली पुलिस के मामले में जो टीवी चैनल और विभिन्न अखबारों की वेबसाइट बता रही है उसके अनुसार पुलिस में तीसहजारी अदालत के बाद उपजे असंतोष का एक बड़ा कारण यह है कि, हाईकोर्ट ने बिना पुलिस का पक्ष जाने ही उनके साथियों का न केवल तबादला कर दिया बल्कि उनमे से कुछ को निलंबित भी कर दिया । जब वे अपनी बात कहने पुलिस मुख्यालय पहुंचे तो वहां पुलिस कमिश्नर भी उनसे मिलने और उनकी बात सुनने नहीं आये। वे बाद में आये। पुलिस कमिश्नर या अन्य सरकार के बड़े अधिकारी को चाहिये था कि वे हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस से मिल कर अपनी बात रखते और जब तक जांच न हो जाती तब तक न किसी का तबादला होता और न ही निलंबन। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
हुआ यह होगा कि वकीलो के समूह ने जज साहबान पर तबादले और निलंबन के लिये दबाव डाला होगा। सबसे बड़ा कारण यही बताया गया होगा कि इससे जांच प्रभावित होगी। वकीलो को भी पता है कि न तो न्यायिक जांच में कुछ होगा और न ही दर्ज आपराधिक मुकदमों में। एक समय बात यह सब विवाद भूल जाते हैं और लंबे समय बाद तो कोई याद भी नहीं रखता है। यह तबादला और निलंबन से वकीलो ने खुद को विजयी मान लिया और पुलिस ने ठगा हुआ। पुलिस के अफसरों ने इसका प्रतिरोध किया या नहीं किया यह तो मैं नहीं बता पाऊंगा, पर पुलिस जन की बातें जो टीवी पर आ रही हैं उससे लगता है कि अफसरों ने बहुत प्रतिरोध नहीं किया।
यह धरना आज हुआ। मुझे लगता है कि साकेत कोर्ट के पास जिस बाइक सवार पुलिस जवान को कुछ वकील अनायास ही बदतमीजी से मारपीट कर रहे हैं, जलील कर रहे हैं उस घटना ने जवानों में आक्रोश भर दिया। तीसहजारी अदालत के घटना की टीस तो थी ही, साकेत कोर्ट की यह घटना इस धरने का तात्कालिक कारण बन गयी। जिन वकीलो ने मारपीट की है उनका न अब कुछ बिगड़ा है और न जांच के बाद कुछ बिगड़ेगा। वे कौन सी नौकरी कर रहे हैं कि उनका तबादला होगा। बहुत होगा आपराधिक मुक़दमा कायम होगा और उसमे भी अगर सज़ा हो जाय तो समझिये बहुत बड़ी बात है।
वरिष्ठ पत्रकार, रवीश कुमार ने अपने ब्लॉग में साकेत की घटना पर जो लिखा है उसे भी पढ़ा जाना चाहिये,
" एक तस्वीर विचलित कर रही है। दिल्ली के साकेत कोर्ट के बाहर एक वकील पुलिसकर्मी को मार रहा है। मारता ही जा रहा है। पुलिस के जवान का हेल्मेट ले लिया गया है। जवान बाइक से निकलता है तो वकील उस हेल्मेट से बाइक पर दे मारता है। जवान के कंधे पर मारता है। यह दिल्ली ही नहीं भारत के सिपाहियों का अपमान है। यह तस्वीर बताती है कि भारत में सिस्टम नहीं है। ध्वस्त हो गया है। यहाँ भीड़ राज करती है। गृहमंत्री अमित शाह को इस जवान के पक्ष में खड़ा होना चाहिए। वैसे वो करेंगे नहीं। क़ायदे से करना चाहिए क्योंकि गृहमंत्री होने के नाते दिल्ली पुलिस के संरक्षक हैं। "
" एक तस्वीर विचलित कर रही है। दिल्ली के साकेत कोर्ट के बाहर एक वकील पुलिसकर्मी को मार रहा है। मारता ही जा रहा है। पुलिस के जवान का हेल्मेट ले लिया गया है। जवान बाइक से निकलता है तो वकील उस हेल्मेट से बाइक पर दे मारता है। जवान के कंधे पर मारता है। यह दिल्ली ही नहीं भारत के सिपाहियों का अपमान है। यह तस्वीर बताती है कि भारत में सिस्टम नहीं है। ध्वस्त हो गया है। यहाँ भीड़ राज करती है। गृहमंत्री अमित शाह को इस जवान के पक्ष में खड़ा होना चाहिए। वैसे वो करेंगे नहीं। क़ायदे से करना चाहिए क्योंकि गृहमंत्री होने के नाते दिल्ली पुलिस के संरक्षक हैं। "
दिल्ली पुलिस के आला अफसरों को इस समय पर परिवार के मुखिया की तरह आचरण करना होगा जो अपने परिवार के हर सदस्य के लिये एक साये और मजबूत सहारे की तरह खड़ा होता है। मुझे याद है एक एसएसपी साहब थे, उनके सामने ही एक मंत्री जी ने गनर को बदतमीजी से डांटना शुरू किया तो एसएसपी साहब ने कहा कि आप को यह अधिकार नहीं है कि आप मेरे विभाग के किसी भी मातहत को ऐसी बात कहें। उसकीं गलती है तो मुझे बताइये। उसे जो करना हो वह मैं करूँगा पर आप सार्वजनिक रूप से उसे कुछ भी नही कहेंगे। इस घटना ने एसएसपी साहब के प्रति विभाग का नज़रिया ही बदल दिया।
टीवी पर बार कॉउंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष का बयान आ रहा था। उनका बयान न तो उनके पद के अनुरूप था और न ही इस समस्या के समाधान की ओर बढ़ते हुये किसी कदम की ओर। अगर वकीलों का एक ग्रुप पुलिस कमिश्नर के मुख्यालय में पहुंच कर यही कह देता कि हम अपने समूह में ऐसे कुछ लोग जो अनावश्यक विवाद पैदा करते हैं को चिह्नित करेंगे और उनके खिलाफ कार्यवाही करेंगे तो काफी हद तक यह समस्या सुलझने की ओर बढ़ जाती। पर बीसीआई प्रमुख, मनन कुमार मिश्र जी के बयान में मुझे कोई भी बात बुद्धिमत्तापूर्ण और मामले को हल करने लायक नही लगी। उन्होंने एक बार भी साकेत कोर्ट की घटना के बारे में कुछ भी नहीं कहा । उन्होंने यह मान लिया कि यह धरना न्यायिक जांच से बचने के लिये यह धरना है। न्यायिक जांच का इतिहास ही उठा कर देख लें। न्यायिक जांच से ऐसे मामलों में बहुत कुछ नहीं निकलता है। उनका यही कहना था कि पुलिस अनुशासनहीनता कर रही है।
पुलिस एक बड़े समूह में अपने मुख्यालय अपनी बात बात कहने गयी थी, वहां न कोई हिंसा हुयी और न पुलिस अपनी ड्यूटी छोड़ कर वहां गयी। सच तो यह है कि मनन कुमार मिश्र जिनकी सदारत करते हैं उनके खिलाफ एक भी शब्द बोलने का साहस वह जुटा नहीं सकते क्योंकि उन्हें यह पता है कि वही कुछ उद्दंड वकील उन्हें वहां नहीं टिकने देंगे। बीसीआई के पास ऐसे वकीलो को दंडित करने के लिये क्या कानूनी प्राविधान हैं ? जहां तक मुझे मालूम है, बीसीआई अधिक से अधिक वे ऐसे वकीलों का रजिस्ट्रेशन रद्द कर सकती हैं। बार कॉउंसिल ऑफ इंडिया, न्यायपालिका, और सरकार को तीसहजारी अदालत जैसी घटना देश मे दुबारा न हों इसके लिये एक कार्ययोजना बना कर कार्यवाही करनी होगी नहीं तो इससे न्यायिक औऱ प्रशासनिक अराजकता ही फैलेगी।
© विजय शंकर सिंह
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