सुप्रीम कोर्ट ने राफेलसौदा मामले में जांच की मांग से संबंधित सभी पुनर्विचार याचिकायें खारिज़ कर दी हैं, पर राफेल में भ्रष्टाचार के आरोप खारिज हुये हैं या नहीं इस पर अभी कुछ नहीं कहा जा सकता है। किसी भी अपराध के मामले में, किसी भी जांच का न होना, इस बात का द्योतक नहीं है कि वह अपराध हुआ ही नही है। बल्कि वह इस बात की ओर संकेत देता है कि अपराध की परतें खोलने का या तो वक़्त अभी नहीं आया है या अपराध में असहज करने वाली जटिलता है, या उक्त जांच के अंधकूप में ऐसे खतरनाक सरीसृप पड़े हैं कि उसमे उतरना निरापद नहीं है या कुछ और कारण हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राफेल मामले में जांच की ज़रूरत नहीं है। 10 मई को सुप्रीम कोर्ट ने पुनर्विचार याचिकाओं पर अपना फ़ैसला सुरक्षित रख लिया था। इन याचिकाओं में पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा, पूर्व वाणिज्य मंत्री अरुण शौरी और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण की थीं। मुख्य न्यायधीश जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली बेंच में शामिल जस्टिस एसके कौल और केएम जोसेफ़ ने कहा कि इस मामले में जांच की कोई ज़रूरत नहीं है। कोर्ट ने कहा कि इन याचिकाओं में दम नहीं है।
2018 में राफेल के बारे में जो याचिकाएं दायर हुयी थीं उन पर विचार करते हुये सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय पीठ ने कहा था कि जो सामग्री और तथ्य उनके समक्ष ( सरकार द्वारा ) प्रस्तुत किये गए हैं, उनके अवलोकन से अदालत इस निष्कर्ष पर पहुंचती है कि राफेल मामले में कोई प्रक्रियागत अनियमितता नहीं की गयी है। इस पर याचिकाकर्ताओं ने पुनर्विचार याचिका दायर करते हुये यह तर्क दिया कि, जो सामग्री सरकार द्वारा अदालत में प्रस्तुत की गयी थी, वह अधूरी, अपूर्ण और तथ्यों के विपरीत है।
पुनर्विचार याचिका में, याचिकाकर्ताओं ने एक एफआईआर दायर कर के सम्पूर्ण मामले की जांच कराने के लिये
सुप्रीम कोर्ट से आदेश देने का अनुरोध किया था। इस पर सुप्रीम कोर्ट का कहना है,
"We do not consider it to be a fair submission".
( हम इसे उचित प्रार्थना नहीं मानते हैं )
यानी एफआईआर दर्ज करा कर जांच कराने की मांग अदालत के अनुसार उचित ( फेयर। ) नहीं है । जो भी हो, इस फैसले का भी स्वागत है। सुप्रीम कोर्ट के ही एक सीजेआई ने कभी कहा था, हमारा निर्णय जैसा भी है, पर हमारा निर्णय सुप्रीम है। राफेलसौदा पर सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय का भी स्वागत है।
"We do not consider it to be a fair submission".
( हम इसे उचित प्रार्थना नहीं मानते हैं )
यानी एफआईआर दर्ज करा कर जांच कराने की मांग अदालत के अनुसार उचित ( फेयर। ) नहीं है । जो भी हो, इस फैसले का भी स्वागत है। सुप्रीम कोर्ट के ही एक सीजेआई ने कभी कहा था, हमारा निर्णय जैसा भी है, पर हमारा निर्णय सुप्रीम है। राफेलसौदा पर सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय का भी स्वागत है।
राफेल के फैसले पर एक विधिक दृष्टिकोण यह भी है कि, इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने अब राफेल के आपराधिक जांच का दायरा खोल दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने साफ़ कहा है कि, " संवैधानिक वजहों से सुप्रीम कोर्ट के हाथ बंधे हो सकते हैं पर जांच एजेंसियों के नहीं।
राफेल मामले के कई पहलू संविधान के अनुच्छेद 32 से बाहर का है। अनुच्छेद 32 सुप्रीम कोर्ट के हाथ बांधता है पर पुलिस या सीबीआई के नहीं। कोर्ट ने पैरा 73 और 87 में साफ़ कहा है कि, " इस मामले में सबूत जुटाना जांच एजेंसियों की ज़िम्मेदारी है क्योंकि उनके हाथ खुले हैं। " कोर्ट ने कहा है कि, " किसी तरह की जांच में कोर्ट का आज का या पिछला फैसला कोई अड़चन नहीं डालेगा । " यह फैसला सरकार को इस मामले में जांच न करने से प्रतिबंधित नहीं करता है।
संविधान का अनुच्छेद 32 सुप्रीम कोर्ट को किसी भी मामले में नागरिकों को कानूनी उपचार पाने का अधिकार देता है। इस मामले में भी, जब सरकार ने राफेल मामले में जांच कराने के लिये तैयार नहीं हुयी तो याचिकायें दाखिल हुयी। इन याचिकाओं पर पहली सुनवाई कर के तीन जजों की बेंच ने 2018 में अपना फैसला सुनाया। जब याचिकाकर्ता उस फैसले से संतुष्ट नहीं हुये तो, उन्होंने पुनर्विचार याचिका दायर की। जिसकी सुनवाई मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता में गठित पांच जजों के बेंच ने की। पीठ ने जांच कराने की प्रार्थना को उचित यानी फेयर नहीं माना, और याचिका खारिज कर दी। यह याचिका ही जांच करा ली जाय या नहीं के विंदु पर थी, न कि उन आरोपो पर जो राफेलसौदा के बाद से ही सरकार पर लग रहे हैं। हालांकि सौदे के आरोपो के संबंध में भी कुछ तथ्य अदालत में रखे गए और उनका जवाब भी सरकार ने बंद लिफाफे में दाखिल किया, पर उन सवालों और आरोपों पर कोई विवेचना की ही नहीं गई। अपराध की छानबीन और विवेचना के सम्बंध में किसी भी जांच एजेंसी को सीआरपीसी के अंतर्गत असीमित कानूनी शक्तियां प्राप्त होती हैं। विवेचना में अमूमन अदालतें दखल भी नहीं देती है।
लेकिन वे सारे सवाल, जो इस सौदे के बाद से ही, विभिन्न अखबारों में उठ रहे कि, कैसे इस सौदे में से, एचएएल अचानक हटा, कैसे अनिल अंबानी घुसे, किसने उनकी सिफारिश की, मिडियापार्ट ने क्या क्या खुलासा किया, ल मांद ने क्या रिपोर्टिंग की, कारवां ने खोजी पत्रकारिता में क्या पाया, द हिन्दू, इंडियन एक्सप्रेस, द टेलीग्राफ ने जो दस्तावेज, अपनी खबरों के साथ छापे थे, उनमे कितनी सत्यता है, कि फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति ओलांद ने ऑफसेट ठेके के बारे में क्या और क्यों कहा, कीमतों में इतना अंतर क्यों है, आदि आदि सवाल अभी। भी अनुत्तरित ही रहेंगे। प्रश्न के लिये पंक्चुएशन में अंकुश नुमा प्रतीक अभी भी इस मामले में तीरे नीमकश की तरह धंसा हुआ है। उसकी खलिश बरकरार है। फिलहाल तो सुप्रीम कोर्ट द्वारा इन याचिकाओं के खारिज़ हो जाने बाद यह प्रकरण बंद हो गया है।
© विजय शंकर सिंह
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