Wednesday, 20 November 2019

फ़ैज़ से जुड़ा एक प्रसंग और उनकी दो नज़्में / विजय शंकर सिंह


आज फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के जन्मदिन पर उनसे जुड़ा यह प्रसंग पढें। बात इलाहाबाद की है। हिंदी अकादमी में एक आयोजन था। जिसमे फ़ैज़ साहब मुख्य अतिथि थे। उसी जलसे में, इलाहाबाद के सभी प्रसिद्ध कवि और शायर वहां उपस्थित थे। हिंदी अकादमी के कार्यक्रम में 22 साल की एक युवती ने फ़ैज़ के सामने उनकी ही ग़ज़ल, " शामे फ़िराक़ अब न पूछ आयी और आ के टल  गयी,"  गाई थी. उस लड़की का नाम था शुभा गुप्ता जिन्हें आज लोग शुभा मुद्गल के नाम से जानते हैं। यह एक रोचक प्रसंग है। 

यह ग़ज़ल इलाहाबाद विश्वविद्यालय की ही किसी और छात्रा को गाना था, पर अचानक यह ग़ज़ल शुभ्रा मुद्गल को ही गाना पड़ गया।  कैसे, यह शुभ्रा मुदगल बताती हैं, 
''इलाहाबाद विश्वविद्यालय की एक छात्रा फ़ैज़ के सामने उनकी ही एक ग़ज़ल गाने वाली थीं और उसकी तैयारी मेरे गुरु रामाश्रय झा को सौंपी गई थी। अचानक मेरे घर के दरवाज़े की घंटी बजी तो देखा कि सामने गुरुजी खड़े हैं. उन्होंने छूटते ही कहा कि मेरे साथ चलो.''
शुभा आगे उल्लेख करती हैं, 
''वो मोपेड चलाते थे. मैं उनके पीछे की गद्दी पर बैठकर हिंदी अकादमी पहुंची। वहाँ उन्होंने बताया कि वह छात्रा ग़ज़ल नहीं गा पा रही है। तुम्हें फ़ैज़ की ग़ज़ल पढ़नी है 'शामे फ़िराक अब न पूछ'। मैंने कहा कि " वह ग़ज़ल तो याद ही नहीं है मुझे। " उन्होंने कहा कि अपने पिताजी से पूछकर लिख लो। कापी का एक पेज फाड़कर वो ग़ज़ल मैंने लिखी और कांपती आवाज़ में बड़े संकोच के साथ फ़ैज़ के सामने इसे पढ़ा.''

फिर क्या हुआ, शुभा कहती हैं, 
''फ़ैज़ साहब बड़े उदार थे. कहने, लगे 'तुम्हारे हाथ में क्या है।' 
मैं उसे छिपाने की कोशिश कर रही थी। लेकिन जब उन्होंने पूछ ही लिया तो मुझे कॉपी का वो पेज दिखाना ही पड़ा। उसे देखकर उन्होंने पूछा कि " तुम्हें उर्दू नहीं आती ? "  
मैंने हिंदी में ग़ज़ल लिख रखी थी। मैंने कहा,  
"उर्दू सीखी नहीं है इसलिए मैंने इसे देवनागरी में लिखा है।" 
फ़ैज़ ने कहा " तुम्हारे तलफ़्फ़ुज़ से तो नहीं लगा कि तुम्हें उर्दू नहीं आती। " 
फिर उन्होंने उस काग़ज़ पर अपने ऑटोग्राफ़ दिए। मैं हक्की-बक्की देखती रह गई कि मुझ जैसी नौसीखिया छात्रा से फ़ैज़ इतने प्रेम और स्नेह से बात कर रहे थे.''

शामे फ़िराक़ फ़ैज़ साहब की उत्कृष्ट गज़लों में से एक है। उनकी यह ग़ज़ल पढें। उनकी यह ग़ज़ल आबिदा परवीन ने भी बेहद खूबसूरती से सूफ़ियाने स्वर में गया है। 

शामे-फिराक़ अब न पूछ आई और आ के टल गयी
दिल था कि फिर बहल गया, जां थी कि फिर सम्हल गयी।

बज़्मे-खयाल में तेरे हुस्न की शमा जल गयी
दर्द का चंद बुझ गया, हिज्र की रात ढल गयी।

जब तुझे याद कर लिया, सुबह महक-महक उठी
जब तेरा ग़म जगा लिया, रात मचल-मचल गयी।

दिल से तो हर मुआमला करके चले थे साफ हम
कहने में उनके सामने, बात बदल बदल गयी।

आखिरे-शब के हमसफर, फ़ैज़ न जाने क्या हुए
रह गयी किस जगह सबा, सुबह किधर निकल गयी।

फ़ैज़ भारतीय उपमहाद्वीप के उत्कृष्ट साहित्यकारों में से एक है। उन्होंने बेहद खूबसूरत नज़्म और गज़लें लिखी है। 1947 में भारत के बंटवारे पर लिखी उनकी नज़्म, यह दाग दाग उजाला और जिया उल हक की तानाशाही के खिलाफ लिखी उनकी जोशीली रचना " हम देखेंगे " बेहद लोकप्रिय है। फ़ैज़ अपने प्रगतिशील विचारों लेखनी की प्रखरता के कारण पाकिस्तान सरकार के निशाने पर भी रहे और उन्हें पाकिस्तान की जेल में भी रहना पड़ा। 

साल 1985, जब पाकिस्तान में जनरल ज़िया उल हक़ की तानाशाही चरम पर थी, उन्होंने एक फ़रमान के तहत औरतों के साड़ी पहनने पर पाबंदी लगा दिया था। वह काल पाकिस्तान के इतिहास का सबसे कठिन काल था। जिया के इशारे पर पाकिस्तान का इस्लामीकरण किया जा रहा था। सारे प्रगतिशील और उदार सोच के लोग जिया के निशाने पर थे। फैज़ साहब से जनरल ज़िया नाराज़गी जगजाहिर थी। उनकी नज़्में- ग़ज़लें पाकिस्तान के रेडियो, टीवी पर प्रसारित नहीं होने दी जाती थीं। ऐसे में पाकिस्तान की मशहूर गायिका इक़बाल बानो ने विरोध दर्ज कराते हुए लाहौर के  अलहमरा ऑडिटोरियम में काले रंग की साड़ी पहन कर फ़ैज़ साहब की यह जोशीली नज़्म गाई। तब फ़ैज़ साहब दिवंगत हो चुके थे। 

हम देखेंगे 
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे 
वो दिन कि जिस का वादा है 
जो लौह-ए-अज़ल में लिख्खा है 
जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गिराँ 
रूई की तरह उड़ जाएँगे 

हम महकूमों के पाँव-तले 
जब धरती धड़-धड़ धड़केगी 
और अहल-ए-हकम के सर-ऊपर 
जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी 
जब अर्ज़-ए-ख़ुदा के काबे से 
सब बुत उठवाए जाएँगे 

हम अहल-ए-सफ़ा मरदूद-ए-हरम 
मसनद पे बिठाए जाएँगे 
सब ताज उछाले जाएँगे 
सब तख़्त गिराए जाएँगे 
बस नाम रहेगा अल्लाह का 
जो ग़ाएब भी है हाज़िर भी 
जो मंज़र भी है नाज़िर भी 
उट्ठेगा अनल-हक़ का नारा 
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो 
और राज करेगी ख़ल्क़-ए-ख़ुदा 
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो ।

आज इस महान इंकलाबी शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की पुण्यतिथि है। साहित्य, संगीत, कला, और शिक्षा की कोई सीमा नहीं होती है। फ़ैज़ उर्दू अदब के क्षेत्र में एक बड़ी शख्सियत थे। उन्हें याद करते हुये उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि। 

© विजय शंकर सिंह 

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