31 अक्टूबर 1984 को जब इंदिरा गांधी की हत्या हो गयी तब उसी रात से दिल्ली में सिख विरोधी दंगे शुरू हो गए। 1 नवम्बर को तेजी से भड़के और यह इकतरफा दंगा एक नरसंहार में बदल गया। दिल्ली, कानपुर बोकारो सबसे बुरी तरह प्रभावित रहे। इसमे कोई दो राय नहीं और यह प्रमाणित भी हो चुका है कि इन दंगों में कांग्रेस के कुछ नेताओं और कार्यकर्ताओं की सक्रिय भूमिका थी। यह दंगा तीन चार दिन तक चला। पुलिस की भूमिका भी प्रोफेशनल नहीं रह सकी। कहीं कहीं वह संख्या बल की कमी के कारण वह कुछ कर न सकी तो कहीं वह उदासीन भी रही। पर जब तन्द्रा टूटी तो पुलिस ने कार्यवाही भी की।
इस दंगे का औचित्य लोग यह कह कर के देते हैं कि, यह इंदिरा गांधी की हत्या से उपजा आक्रोश था। आक्रोश तो था, पर यह आक्रोश एक धर्म विशेषकर के खिलाफ क्यों केंद्रित हो गया ? हत्यारे तो वर्दीधारी भी थे, और सिख तो थे ही। पर आक्रोश वर्दी के खिलाफ तो हुआ नहीं, धर्म के खिलाफ क्यों हुआ। धर्म के खिलाफ उठा दंगा केवल विनाश लाता है। वही इस दंगे में भी हुआ। हज़ारों लोग मारे गए करोड़ो की संपत्ति लूट ली गयी यह हमारे समाज पर एक बदनुमा दाग है। मैं उस समय चुनार में था। वहां भी कुछ तनाव हुआ पर सिख वहां बहुत कम थे। लोग भी बहुत आक्रोशित नहीं थे, दुःखी ज़रूर थे। लग्भग 15 परिवार सिखों के चुनार में थे। हमलोगों ने उन्हें उनके घरों से हटा कर चुनार किला स्थित, आरटीसी में शिफ्ट कर दिया और उनके घरों में सुरक्षा तगड़ी कर दी।
पर 1986 में मैं मिर्जापुर से तबादले पर कानपुर आया तो सिख दंगे की भयावहता का अनुमान लगा। यहां भी कांग्रेस के कुछ कार्यकर्ताओं ने दंगों में लूटपाट और मारपीट की थी। दंगो की शुरुआत चाहे जो करे या चाहे जैसे हो, दंगा अंततः असामाजिक तत्वों और अपराधियों के लिये एक लूटपाट और अपराध का एक मौका बन जाता है। सिख विरोधी दंगे में आरएसएस की भी प्रच्छन्न भूमिका रही है। आरएसएस के ही नानाजी देशमुख ने एक लेख लिख कर इस दंगे को कुछ हद तक औचित्यपूर्ण ठहराने की कोशिश की है। यह बात मैं इसलिए कह रहा हूँ कि, हिंसा और दंगे को संघ ही औचित्यपूर्ण ठहरा सकता है।
1984 के दंगे के लिए कांग्रेस दोषी है, और यह काफी हद तक यह सही भी है। परन्तु इसका एक दूसरा पक्ष भी है, और वह है इस त्रासद घटना में संघ और भाजपा की भागीदारी। दिनांक 2 फरवरी 2002 के अपने अंक में, हिंदुस्तान टाइम्स लिखता है कि हिंसा में शरीक व्यक्तियों में भाजपा के नेता शामिल हैं। पायोनियर (11 अप्रैल 1994) के अनुसार, “भाजपा 1984 की हिंसा में शामिल अपने नेताओं को बचाने का प्रयास कर रही है। न्यूज पोर्टल खबर बार के अनुसार कैप्टिन अमरिंदर सिंह ने सन् 2014 में बताया था कि सन् 1984 के सिक्ख विरोधी दंगों में उनकी भूमिका के लिए भाजपा-आरएसस के 49 नेताओं के विरूद्ध 14 एफआईआर दर्ज की गईं थीं। उन्होंने भाजपा-आरएसएस के कुछ नेताओं जैसे प्रेम कुमार जैन, प्रीतम सिंह, राम चन्द्र गुप्ता आदि के नाम भी बताए थे जो दंगों में शामिल थे। अमरिंदर सिंह ने सुखबीर सिंह बादल से यह सवाल भी पूछा था कि वे इन नेताओं के दंगों में शामिल होने के बारे में शर्मनाक चुप्पी क्यों साधे हुए हैं? क्या इसलिए क्योंकि ये नेता उस पार्टी के सदस्य हैं जिसके साथ उनका गठबंधन है? शिरोमणि अकाली दल के सुखबीर सिंह बादल के इस दावे के विपरीत कि भाजपा सदस्यों ने सन् 1984 में सिक्खों की जान बचाने का साहसपूर्ण कार्य किया था, जैन-अग्रवाल समिति की रपट में दिल्ली के कई प्रमुख आरएसएस कार्यकर्ताओं के नाम थे जो इस नरसंहार में शामिल थे।
जाने-माने आरएसएस विचारक नानाजी देशमुख ने भी इस बारे में चोकानें वाली बात कही थी। प्रतिपक्ष (25 नवंबर, 1984) में प्रकाशित एक लेख में उन्होंने कहा ‘सिक्ख विरोधी हिंसा हिन्दुओं के न्यायोचित आक्रोश का परिणाम थी और सिक्ख समुदाय को इसे खामोशी से बर्दाश्त करना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा था कि देश की इस आपदा की घड़ी में राजीव गांधी को पूरा समर्थन दिया जाना चाहिए।‘‘ यह दस्तावेज 5 नवंबर 1984 को जारी किया गया था जब हिंसा अपने चरम पर थी।
प्रतिपक्ष के संपादक जार्ज फर्नाडीस ने इसे अपनी इस संपादकीय टिप्पणी के साथ प्रकाशित किया था : ‘‘ लेखक आरएसएस के जानेमाने नीति निर्धारक एवं विचारक हैं। प्रधानमंत्री (इंदिरा गांधी) की हत्या के बाद उन्होंने यह दस्तावेज प्रमुख राजनीतिज्ञों के बीच वितरित किया था। चूंकि इसका ऐतिहासिक महत्व है इसलिए हमने इसे प्रकाशित करने का निर्णय इस तथ्य के बावजूद लिया कि यह हमारे साप्ताहिक की नीति के विपरीत है। यह दस्तावेज इंदिरा कांग्रेस और आरएसएस के बीच बढ़ती निकटता को दर्शाता है।”
जहां दंगों कांग्रेस की सहभागिता की बार-बार आलोचना की जाती है, जो पूर्णतः उचित भी है, वहीं आरएस-भाजपा के इस धार्मिक अल्पसंख्यक वर्ग के प्रति रवैये के बारे में ज्यादातर लोगों को जानकारी नहीं है। सैद्धांतिक मतभेदों के बावजूद भाजपा और अकाली दल का गठबंधन पंजाब में लंबे समय तक सत्ता में रहा। परंतु सन् 1984 के नरसंहार में आरएसएस की भूमिका के बारे में अकाली दल की चुप्पी वाकई चिंताजनक है। आरएसएस विचारक का यह लेख, जो हिंसा के लिए सिक्खों को ही जिम्मेदार ठहराता है, जबकि इंदिराजी के हत्यारे किसी भी तरह से सारे सिक्ख समुदाय का प्रतिनिधित्व नहीं करते।
दंगा, हिंसा, युद्ध, वैर, और वैमनस्य सदैव एक बराबर और स्थायी नहीं रहते है। वक़्त उन्हें धीरे धीरे सामान्य कर देता है। बिलकुल विज्ञान के उसी सिद्धांत पर कि हर वस्तु अंततः सामान्य दबाव और तापक्रम पर आती ही हैं। कानपुर में भी जब मैं 27 जुलाई 1986 को आया तो सब शांत हो चुका था। पर कुछ इलाकों में दंगो के चिह्न थे। वक़्त उन दिखने वाले ज़ख्म तो भर देगा पर मन और मस्तिष्क पर जो ज़ख्म हैं उन्हें शायद ही भरा जा सके। दंगे के लिये गठित जस्टिस रंगनाथ मिश्र जांच आयोग ने कानपुर के लगभग 350 मामलों की जांचे दे रखी थीं। उनमें से अधिकतर मामले मेरे पास थे। जांच के दौरान कई परिवारों में जाना हुआ, और लोगों जिनमे बुजुर्ग, बच्चे महिलाएं भी थीं मिलना हुआ। जो बताया गया वह शर्मसार करने वाला था। अधिकतर मामलों में दंगाई भीड़ थी। भीड़ की पहचान नहीं होती। भीड़ का नेतृत्व करने वाले ज़रूर कई जाने पहचाने चेहरे होते है, पर उसे पहचानने से पीड़ित इनकार भी कभी कभी कर देते हैं। यह उनका भय भी होता है, उनपर पड़ा दबाव भी और मजबूरी भी। यही कारण है कि अदालतों में भीड़ द्वारा की गयी सामूहिक हिंसा या दंगों में सज़ा बहुत ही कम हो पाती है। इसके अन्य और भी कई कारण होते हैं।
1984 के दंगों में भी, आज जब लगभग 35 साल हो गए हैं बहुत ही कम सजाएं दंगाइयों को मिली हैं जो न के बराबर हैं। यह न्यायिक प्रशासन की विफलता भी है और कहीं कहीं बेबसी भी। इन सामूहिक दंगो को याद ज़रूर रखा जाना चाहिये। ये हमारी पाशविकता, और धर्म की उन्मदावस्था के दस्तावेज हैं। चाहे 1947 के बंटवारे से उत्पन्न दंगे हों, या 1969 के अहमदाबाद, 1971 के अलीगढ़, 1973 के फिरोजाबाद,1980 के मुरादाबाद, 1981 के अलीगढ़, 1987 के मेरठ, 1992 के अयोध्या विवाद से भड़के दंगे, 2002 के गुजरात और 2013 के मुजफ्फरनगर आदि आदि, के दंगे हों, इन्होंने न तो समाज को कोई लाभ पहुंचाया और न ही धर्म को। यह सूची पूरी नहीं है। आप अपनी समझ से इसे जोड़ घटा सकते हैं।
धर्म हमे विवेकवान बनाता है, धारण करता है, सदमार्ग पर ले जाता है। कलुष रहित बनाता है। आदि आदि असंख्य सुभाषित हमें मिल जाएंगे। पर धर्म हमे कितना उन्मादित बनाकर एक दरिंदे के रूप में समाज मे फेंक देता है और हम उस जनअरण्य में हिंस्र पशु की तरह अपने ही लोगों की हत्या करने निकल पड़ते हैं जो सदियों से साथ साथ रह रहे हैं और कारण केवल यही कि सामने वाला व्यक्ति हमारे धर्म का नहीं है, हम मजहब नहीं है। अगर कोई धर्म हमें बेहतर मनुष्य नही बनाता है, बर्बर समाज और पशुत्व की ओर ले जाता है, तो उस धर्म का कोई मतलब नहीं, उस धर्म का कोई औचित्य नहीं।
( विजय शंकर सिंह )
इस दुखद नरसंहार की पृष्ठभूमि में खालिस्तान के नाम पर हिन्दुओ के कत्ल को ध्यान में रखा जाना चाहिये, इंदिरा जी के हत्यारे सिख धर्म के थे और हत्या के लिए धार्मिक रूप से प्रेरित किए गए थे
ReplyDelete