17 फरवरी के दिन महान इतालवी वैज्ञानिक चिंतनकार और प्रचारक जोर्दानो ब्रूनो का बलिदान दिवस के रूप में सामने आता है। उसै मैंने इतिहास के निरत शोधकर्ता और ग्रंथकार अपने प्रिय Sushant Bhaskar को एक विमर्श के क्रम में लिखा था। उनसे बताया था कि इतिहास से सीखना द्वंद्वात्मक प्रक्रिया है-
" अतीत की रोशनी में वर्तमान को देखना ताकि वर्तमान के आलोक में हम अतीत को सही सही समझ सकें। अतीत और वर्तमान के बीच अंतःसंबंधों के ज़रिए ही ही दोनों के बारे में अधिकाधिक जानकारी हासिल कर सकते हैं और वर्तमान को राष्ट्रवादी समाज के भविष्य की सही दिशा के लिए सही इस्तेमाल कर सकते हैं।"
ब्रूनो के ऐतिहासिक बलिदान को भी मैं इसी परिभाषा के अंतर्गत प्रासंगिक मान समझने की कोशिश करता हूँ क्योंकि ब्रूनो ने जो स्थापित मान्यताओं तथा यथास्थितिवाद की चट्टानों के विरुद्ध सर टकराया था उससे पैदा हुई दरकने की आवाज़ आज भी न केवल प्रासंगिक है बल्कि भविष्य की सही वास्तविक राह का पता बताती है।
ब्रूनो जैसाकि उस समय सभ्य समाज के बच्चों के लिए चलन था, गिरिजाघर के किसी मठ में पढ़ता था। लेकिन वह अपने किशोर किशोरवय मे ही ज्ञान की कुदरती गहन पिपासा के चलते मठ की तालीम से इतर भी कुछ जानने, पढ़ने और सीखने के लिए आतुर व्याकुल रहता था। यह सिलसिला जब आगे बढ़ा तो वह धर्मग्रंथों तथा धर्मगुरुओ से अलग या उनकी तालीम से ठीक विपरीत विज्ञान की बातों तक उसकी प्रतिभा की पहुँच बन गयी। उसे पोलैंड के वैज्ञानिक कोपरनिकस की किताब "On The Revolution Of Heavenly Spheres" हाथ लग गयी और उसके अध्ययन में वह निमग्न हो गया। मठ के धर्मगुरुओं को और उसके प्रबंधकों जब इसकी भनक मिली कि सज़ा के ख़ौफ़ से ब्रूनो वहाँ से भाग खड़ा हुआ और लुक छिपकर भूमिगत रहकर यूरोप के मुख़्तलिफ़ हिस्सों में कोपरनिकस के विचारों तथा विज्ञान की उपलब्धियों का प्रचार प्रसार करने लगा। वह एक प्रखर ओजस्वी वक्ता, आकर्षक प्रस्तोता, कवि, लेखक सब था । अपनी इस प्रतिभा का लाभ उठाकर आमजनों तक विज्ञान को पहुँचाने, वैज्ञानिक समझ की उपादेयता और सच को लोकप्रिय बनाने में सोलह साल तक अनवरत लगा रहा । हमें भूलना नही चाहिए कि यह वैज्ञानिक समझ का चतुर्दिक विकास ही था जिसने आविष्कारों को जन्म दिया और यूरोप जिसकी बुनियाद पर दुनिया भर में अपनी उपलब्धियों का महल खड़ा कर हमारे देश समेत दुनिया की मिल्क़ियत और नायकत्व हासिल किया।
ब्रूनो ने कोपरनिकस के सिद्धांतों को पुष्पित पल्लवित विकसित किया। उसने दृढ़तापूर्वक कहा, जो आज सर्वमान्य है, कि " ब्रह्माण्ड की कोई सीमा नहीं। वह असीम, अथाह है। न पृथ्वी ब्रह्माण्ड का केंद्र है न सूरज। ब्रह्माण्ड अनगिनत तारों का समुच्चय है , जिनमें से प्रत्येक हमारे सूरज के समान है और उससे बहुत दूर दूर है। जैसे सूरज के ग्रह पृथ्वी सूरज के आसपास घूमती है वैसे इन सूर्यों के ग्रह भी उनके आसपास घूमते हैं।"
लेकिन जन्मस्थान के मोह ने ब्रूनो को इटली आने को प्रेरित कर दिया तो किसी की ग़द्दारी से धर्म के ठेकेदारो को पता चल गया। उसने उसे पकड़ कर पहले लआठ साल की सख्त कैद में रखा फिर उस समय के मृत्युदंड के प्रचलन के मुताबिक़ पादरियों की अदालत धर्माधिकरण ने उन्हें ज़िंदा जलाने की सज़ा दी । धर्माधिकरण का मृत्युदंड का यह प्रचलन इसलिए था कि ईसा मसीह ने किसी का ख़ून बहाने से मना किया था। यह ईसा मसीह के धर्म की कितनी बड़ी विडम्बना थी। ब्रूनो की सज़ा ईसा मसीह की सज़ा की ही याद दिलाता था। "विचारों के लिए हर सज़ा देनेवाला सज़ायाफ्ता से ज़्यादा भयभीत होता है"!
फ़ैसला सुनकर ब्रूनो ने अपने वधिकों की तरफ़ मुड़कर कहा था :
" सज़ा आप सुना रहे हैं, जलाया मुझे जा रहा है, मगर डर से आप ज़्यादा काँपते हुए दिख रहे हैं "!
ब्रूनो को जला दिया गया। उसकी शहादत-स्थल पर बने स्मारक पर लिखे विचारों के लिए संघर्ष आज भी ज़ारी है इसलिए वे आज भी वर्तमान को आलोकित नहीं करते बल्कि भविष्य की राह की और इशारा करते हुए संघर्ष के औचित्य को साबित भी करते हैं :
"उसने सभी लोगों के लिए विचारों की स्वतंत्रता के ख़ातिर अपनी आवाज़ उठायी और इस आज़ादी की क़ीमत अपनी जान देकर चुकायी"
दरअसल, मध्यकाल के उत्तरार्ध के अंत में जब लंबी लंबी समुद्र यात्राओं का दौर शुरू हुआ और जहाज़ों का विकास हुआ तो खगोलीय ज्ञान की वास्तविकताओं को अपरिहार्य बना दिया गया जो तबतक टॉल्मी तथा मज़हबी आसमानी किताबों के घटाटोप में उल्टी दिशा में चल रहा था। सारे धार्मिक विचारों का सोपान इसी पर टिका था कि पृथ्वी ब्रह्माण्ड की धुरी है और सूरज चाँद ग्रह आदि इसका चक्कर लगाते हैं तथा शेष खगोलीय पिंड तारे नक्षत्र आदि अपनी ज़गह स्थिर पड़े हैं।
ब्रह्माण्ड की संरचना पर इस धार्मिक दृष्टिकोण पर महान पोलिश वैज्ञानिक निकोलाई कोपरनिकस ने मरणांतक प्रहार किया।
कोपरनिकस ने तीस साल से अधिक अपने साधारण उपकरणों द्वारा आकाशीय पिंडों का अध्ययन किया और जटिल गणनाओं के आधार पर वह इस वास्तविक निष्कर्ष पर पहुँचा कि सूर्य पृथ्वी का नहीं पृथ्वी सूर्य का चक्कर लगाती है। पृथ्वी मात्र एक ग्रह है और पृथ्वी की तरह और उसके साथ दूसरे ग्रह भी न सिर्फ़ सूर्य की परिक्रमा करते हैं बल्कि अपनी धुरी पर भी घूमते हैं।
कोपरनिकस को समाज में उस वक़्त प्रचलित धर्म की ब्रह्मांडीय अवधारणा को ग़लत कहने की हिम्मत नहीं हुई। उपहास और सज़ा के डर से वह अपने विचारों को प्रच्छन्न रखा और उसके मित्रों ने उसकी किताब तब प्रकाशित करने का फ़ैसला लिया जब उसकी मृत्यु आसन्न हो गई।
कोपरनिकस की खोज ने विज्ञान में क्रांति ला दी। वह धर्म के प्रभुत्व और और असर को कमजोर बनाने में सहायक सिद्ध हुआ।
लगभग सौ सालों बाद गैलिलियो को भी अपनी खोज के लिए धर्माधीशों के कोप का उसी तरह शिकार होना पड़ा। गैलिलियो ने अपनी वैज्ञानिक कृति को प्रकाशित कर तथा दूरबीन से आकाश का प्रेक्षण कर कोपरनिकस के निष्कर्षों का समर्थन किया था । कोपरनिकस की की पुस्तक को पढ़ना चर्च के धर्माधीशों ने निषिद्ध कर दिया था । पोप ने गैलिलियो को रोम बुलाकर सत्तर वर्षीय वैज्ञानिक को धार्मिक न्यायालय के हवाले कर दिया जहाँ उसे नील डाऊन की यातना देकर पाश्चाताप करवाया गया और उससे अपनी बातों से मुकरने तथा पूर्वमत-त्याग के लिए विवश किया गया ।
हालांकि बाद में गैलिलियो के पाश्चाताप के बारे में किंवदंतियां प्रचलित हो गयीं जिसमें धर्माधिकरण का उपहास छिपा था कि जब गैलिलियो नील डाउन से उठकर खड़ा होता तो उसके मुँह से अनायास निकल जाता "मगर यह (पृथ्वी) अभी भी चलती है" तब धर्माधिकरण पुनः उसे नील डाउन कराता और उससे बात वापस लेकर पाश्चाताप को विवश करता। अंत में गैलिलियो निढाल होकर गिर पड़ता है।
याद रखें इसी तरह का प्रहार तब से एक हज़ार साल पहले भारतीय वैज्ञानिक आर्यभट ने भी किया था जिसके खगोलीय ज्योतिष विज्ञान (Astronomy) को धर्म और सत्ता के नायकों ने फलित ज्योतिषि को खड़ा कर और बाद में स्थापित कर आर्यभट के प्रहार को "मरणांतक" बनने से रोक दिया था। काश ! तब कोई भारत में ब्रूनो जैसा वैज्ञानिक चिंतनकार पैदा होता और जान की बाज़ी लगाकर उसे "मरणांतक" बना देता तो यह बहुत मुमकिन था कि यूरोप से हजार साल पहले ही भारत आविष्कारों, विज्ञान, और समुद्र की छाती पर अपने वर्चस्व की निरंतरता को बरक़रार रखते हुए दुनिया की मिल्क़ियत अपने हवाले रखता और वह हूणों,अरबों, तुर्कों, अफ़ग़ानों, मुगलों और यूरोपियनों का गुलाम बनने की ज़गह वहाँ अपनी सत्ता क़ायम करता होता ! लेकिन इतिहास सद्इच्छाओं से नहीं वास्तविक तक़ाज़ों से अपनी राहें तय करता है !
ब्रूनो के वैचारिक वंशज आज भी संघर्ष करते विश्व के विभिन्न मुल्क़ों में मिल रहे हैं। आज भी वे ब्रूनो की तरह ही कभी ईश निंदा के क़ानून के नाम पर कभी धर्म के ठेकेदारों के द्वारा आस्थाओं के आहत के प्रतिक्रियान्वयन के नाम पर वैज्ञानिक विवेकवादी विचारों के लिए उनसे जानें छिनीं जा रहीं हैं। वे जान देकर वैज्ञानिक समझ, सोच, विचारों के ख़ातिर जनहित के लिए महान क्रांतिकारी परंपरा को ज़ारी रखे हैं। हमारे देश में दाभोलकर, पानसरे, कलबुर्गी, गौरी लंकेश, बांग्लादेश में अभिजित रॉय जैसे लोग और पाकिस्तान, ईरान, अरब मुमालिक में ईश निंदा क़ानून के ख़िलाफ़ फांसी चढ़नेवासे बहादुर ब्रूनो की शहादत से जली रोशनी को ज़िंदा रखे हैं ताकि भविष्य के अंधकार को रौशनपज़ीर किया जा सके। यह भी उतना ही सच है कि ब्रूनो के वधिकों की तादाद भी चाहे धर्म की सत्ता में हो या राजनीति की सत्ता में कम नहीं है। दिनकर की पंक्ति याद आती है :
यह गहन प्रश्न; कैसे रहस्य समझायें ?
दस-बीस वधिक हों तो हम नाम गिनायें।
पर, कदम-कदम पर यहाँ खड़ा पातक है,
हर तरफ लगाये घात खड़ा घातक है।
हम इतिहास के इन पन्नों को सलाम करते हैं जिनमें ब्रूनो और उनके वैचारिक उत्तराधिकारियों शहादतें उन्हें सुनहरा बनाए हुए हैं जो वधिकों की कतारों को चुनौती दे रहे हैं।
भगवान प्रसाद सिन्हा
© Bhagwan prasad sinha
#vss
No comments:
Post a Comment