सबसे ऊँचाई पर लड़े गये, सबसे लंबे और कठिन युद्धों में एक, कारगिल भारत और पाकिस्तान के मध्य लड़ा गया ऐसा युद्ध है जो सिर्फ़ अपने स्केल के कारण युद्ध कहलाने योग्य है। 1965 का युद्ध सबसे लंबी सीमा पर हुआ था, जो एक महीने में निपट गया था। 1971 का युद्ध सबसे अधिक निर्णायक रहा, जो पंद्रह दिन में निपट गया था। मगर कारगिल?
भारत के मानचित्र पर छोटे से बिंदु की लड़ाई तीन महीने में पूरी हुई। दोनों देशों को मिला कर से हज़ार से अधिक जवान शहीद हुए, वायु सेना को पर्याप्त हानि हुई जबकि युद्ध में दोनों देशों की सेनाओं ने औपचारिक रूप से एल ओ सी पार ही नहीं की। न ही दोनों देशों के प्रधानमंत्री एक-दूसरे पर आक्रमण के समर्थन में थे।
परमाणु बम परीक्षण के बाद से ही जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ इसकी योजना बना रहे थे। वह भारत के ख़िलाफ़ पिछले दोनों ही युद्ध लड़ चुके थे, और उन्हें जैसे अब एक युद्ध जीतना ही था। बर्फ़ीली ठंड में मुजाहिद्दीनों को गिलगिट के रास्ते कारगिल की ऊँची चोटी पर चढ़ने कहा गया। ऑपरेशन ‘कोह-ए-पाइम’ का अर्थ ही है पर्वतारोहण। एक बार इस चोटी पर कब्जे का अर्थ था कि भारत से सियाचिन ग्लेसियर का संपर्क काटा जा सकता है।
1984 में ऑपरेशन मेघदूत के तहत भारतीय फौज ने सियाचिन पर पूरी तरह कब्जा कर लिया था। यह सियाचिन परवेज़ मुशर्रफ़ को उसी समय से चुभ रहा था। उन्हें यह वापस हासिल करना था। यह चीन के लिए भी एक रणनीतिक कॉरीडोर था, इसलिए वह भी पूरा सहयोग कर रही थी। बल्कि उनका अगला फेज यही था कि लद्दाख़ से संपर्क काटना है।
भारतीय इंटेलिजेंस इस मामले में असफल रही कि कारगिल की सूचना लगभग छह महीने बाद ही मिली, जब तक मुजाहिद्दीन और पाकिस्तानी सेना एक ऊँची, सुरक्षित और आक्रामक पोज़ीशन ले चुके थे। भारतीय सेना जैसे ऊपर चढ़ती, उन्हें भारी फ़ायरिंग झेलनी पड़ती। यह तो शुक्र है कि वायुसेना ने उनकी सप्लाई रोकने के लिए हमले किए, जो सफल रहे।
वायुसेनाध्यक्ष ए. वाय. टिपनिस के अनुसार उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी से पाकिस्तान सीमा में घुस कर हमले की आज़ादी मांगी। मगर प्रधानमंत्री ने ऐसे किसी हमले से मना करते हुए कहा, “आप एल ओ सी नहीं पार करेंगे।”
इस निर्देश के कारण भी यह युद्ध कठिन होता जा रहा था। भारत की सीमा से हमला करने के लिए 18000 फीट की ऊँचाई से दूर टारगेट पर फ़ायरिंग करनी होती। हालाँकि कुछ विमानों ने ज़रूर एल ओ सी अनौपचारिक रूप से पार की होगी और रसद काटी होगी।
पाकिस्तान की तरफ़ से भी अनिश्चितता थी। नवाज़ शरीफ़ युद्ध के लिए तैयार नहीं थे। वह अमरीका से सहमति चाहते थे, मगर बिल क्लिंटन ने स्पष्ट रूप से कह दिया कि आप इन मुजाहिद्दीनों से स्वयं को अलग कर लें। पाकिस्तान सेना आगे नहीं बढ़ेगी।
यही हुआ। जिन कश्मीरी युवाओं को जिहाद के नाम पर पाकिस्तान ने उस पहाड़ पर चढ़ाया, उनको बैक-अप देना बंद कर दिया और मरने छोड़ दिया। यह जनरल मुशर्रफ़ के लिए शर्मिंदगी की बात थी। नवाज़ शरीफ़ की भी पाकिस्तानी मीडिया और जनता में थू-थू होने लगी थी कि वह बिदक गए।
जुलाई 1999 के अंत तक भारत कारगिल पर पुन: कब्जा कर चुका था। इस युद्ध में चार परमवीर चक्र मिले, जो पिछले बड़े युद्धों के समकक्ष थे। वहीं पाकिस्तान में भी सेना मेडल दिए गए, जो इसे जिहादी नहीं बल्कि सैन्य युद्ध का दर्जा देते हैं।
अक्तूबर के महीने में जनरल मुशर्रफ़ कोलंबो गए थे। इस मध्य नवाज़ शरीफ़ ने उनको सेनाध्यक्ष पद से हटा दिया। इतना ही नहीं, जब जनरल कराची लौट रहे थे, तो उनके विमान को उतरने ही नहीं दिया गया। विमान हवा में चक्कर लगाता रहा। विचित्र बात यह थी कि यह सेना जहाज नहीं, यात्री जहाज था। इसमें 198 अन्य यात्री भी थे। ऐसे विमान को नहीं उतरने देना तो बदमाशी ही कही जाएगी, भले ही नवाज़ बाद में इस इल्जाम से मुक्त हुए। खैर, उस वक्त सेना ने आकर हवाई अड्डा घेर लिया, और जब विमान में थोड़ा ही तेल बचा था, तब उतर पायी। परवेज़ मुशर्रफ़ गुस्से में लाल हवाई जहाज से उतरे। नवाज़ शरीफ़ को इस षड्यंत्र की सजा उसी वक्त भुगतनी पड़ी।
पाकिस्तान में एक बार फिर वही हुआ, जो पहले कई बार हो चुका था।
(क्रमशः)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 49.
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/06/49.html
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