“सर! पाकिस्तान को कायद-ए-आजम और मुस्लिम लीग ने बनाया। आज आप उसके नुमाइंदे हैं। कश्मीर मसला खत्म करने के लिए आपका नाम सोने के लफ़्ज़ों में लिखा जाएगा।”
- लेफ़्टिनेंट जनरल अजीज ख़ान प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ से [ऑपरेशन कोह-ए-पाइमा (कारगिल) की जानकारी देते हुए]
मेरी रुचि भारतीय कोण से कारगिल युद्ध जानने की अब कम थी। क्योंकि वह दिन-रात उन दिनों टेलीविजन पर देखते थे। बरखा दत्त नामक पत्रकार उस युद्ध के दौरान सीमा पर रिपोर्टिंग के लिए मशहूर हुई थी। हमारे समय में यह ‘ऑपरेशन विजय’ पाकिस्तान पर विजय-पताका लहराने के बिम्ब की तरह देखा गया। पाकिस्तान इस युद्ध को किस तरह देखता है, यह मेरा कौतूहल था।
भारत और पाकिस्तान, दोनों ही क्रमश: ‘पाकिस्तान अकपाइड कश्मीर’ और ‘इंडिया हेल्ड कश्मीर’ शब्द प्रयोग करते हैं। अमरीका कश्मीर के लिए ‘इंडिया अकपाइड जम्मू एंड कश्मीर’ प्रयोग करता रहा है। कुछ देश ‘इंडिया एडमिनिस्टर्ड कश्मीर’ भी प्रयोग करते हैं।
पत्रकार नसीम ज़ाहरा ने पाकिस्तान के अफ़सरों से बात कर कारगिल पर पाकिस्तानी दृष्टिकोण से पुस्तक लिखी है, जो वहाँ की कहानी कहता है।
उनकी रिपोर्ट के अनुसार मई, 1999 में पहली बार प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ के पास जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ की टीम एक मानचित्र हाथ में लिए पहुँचती है। उस मानचित्र पर कुछ भी लिखा नहीं था, बस यूँ ही निशान बने थे। उन्हें समझाया गया कि मुजाहिद्दीन कश्मीर पर कब्जे के लिए तैयार हैं, जिसके लिए पाँच फेज में काम होगा। पहला फेज पूरा हो चुका है।
प्रधानमंत्री पहले तो चौंक गए, मगर पूछा कि हमारी सेना क्या भारत से युद्ध लड़ने जा रही है?
ऐसा पाकिस्तान में अक्सर होता है कि सेना अपना काम करने के बाद प्रधानमंत्री से पूछती कम, बताती ज्यादा है। यह तरीका यूँ भी ग़लत है क्योंकि सेना के पास कूटनीतिक ज्ञान कम होता है। नवाज़ शरीफ़ के लिए भले वह सैन्य मानचित्र काला अक्षर भैंस बराबर हो, मगर राजनीति और विदेश नीति की समझ तो उन्हें ही थी।
नवाज़ को यह भी बताया गया कि इसमें अलग से खर्च नहीं लगेगा, पाकिस्तानी सेना का बैज इस्तेमाल नहीं होगा। यह कश्मीरी जिहादियों का युद्ध ही होगा, भारत-पाक नहीं। इसका उद्देश्य कश्मीर और भारत को जोड़ने वाले सुरंगों, पुलों और दर्रों पर कब्जा करना है, ताकि भारतीय सेना को रसद न पहुँच सके। उनका यह भी कहना था कि पहली फेज की खबर भारतीय इंटेलिजेंस को नहीं हुई थी।
इस पूरी प्रक्रिया से जनरल अयूब ख़ान के ऑपरेशन जिब्राल्टर की याद आती है। 1965 में इस कारण भारत-पाक युद्ध हो गया था, और कश्मीर में पाकिस्तान को ठीक-ठाक शुरुआती बढ़त मिली थी। कारगिल जितनी ही जोखिम भरी घुसपैठ थी, उतनी ही कम योजनाबद्ध। अगर इसे पाकिस्तान सेना द्वारा पूर्ण सीमा-युद्ध में नहीं बदलना था, तो यह एक ‘डेड एंड’ पर खड़ी थी। यह सोच ही बेवक़ूफ़ाना थी कि कुछ प्रशिक्षित जिहादी भारतीय सेना से लड़ लेंगे, और पाकिस्तानी सेना को बस तमाशा देखना होगा।
बहरहाल जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ की योजना नेपथ्य में रहने की नहीं, बल्कि युद्ध की ही थी। वह पाकिस्तानी सेना को नियंत्रण रेखा से आगे बढ़ने का निर्देश रहे थे।
नवाज़ शरीफ़ ने तलब की, “यह मैं क्या सुन रहा हूँ? आपकी फ़ौज ने एल ओ सी पार कर ली?”
मुशर्रफ़ ने कहा, “ठीक सुना है ज़नाब!”
“किसके कहने पर?”
“मैंने खुद यह फ़ैसला लिया। आप कहें तो वापस बुला लूँ?”
3 मई को ही कुछ स्थानीय गड़ेड़ियों ने भारतीय सेना को घुसपैठ की खबर कर दी थी। जिस समय जनरल मुशर्रफ़ और नवाज़ यह बात कर रहे थे, उस समय तो दोनों देशों की वायुसेना युद्ध शुरू कर चुकी थी। भारतीय थल-सेना कारगिल की ओर बढ़ रही थी।
नवाज़ शरीफ़ छाती फुला कर कहते हैं, “यह बताइए जनरल, श्रीनगर पर हम झंडा कब फहरा रहे हैं?”
जनरल मुशर्रफ़ मुस्कुरा देते हैं। उन्हें भी शायद मालूम था कि झंडा तो नहीं फहरा पाएँगे, मगर वज़ीर-ए-आज़म की गद्दी ज़रूर छीन लेंगे।
(क्रमश:)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 48.
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/06/48.html
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