इन्सान कहाँ से आता है पता नहीं, पर जहाँ से भी आता है स्वभाव साथ ले कर आता है। लेकिन चरित्र साथ नहीं आता, वह यहीं विकसता है, इसी दुनिया में। चरित्र पर प्राकृतिक स्वभाव के साथ दुनियावी छाप भी रहती है, क्योंकि वह परिस्थितयों और उनके मानवी संचालन से पनपता है। यह संचालन बुद्धि करे तो चरित्र के विकृत होने की संभावना बनी रहती है जबकि इसे हृदय के हवाले कर दिया जाए तो फिर वह चाहे कुछ अच्छा बुरा भी बने, उसमें एक सरलता सी पनपने लगती है।
सरल चरित्र की एक बड़ी ख़ूबी होती है,वह ख़ुद को अक्सर समय काल और स्थितियों के हवाले कर देता है। उनका विरोध नहीं करता उलटे उनकी गोद में पलता है, फिर उन्हीं के साये तले परवान चढ़ता है। और अगर स्वभाव की सहजता के साथ चरित्र सारल्य की पटरी बैठ जाए तो सोने पर सुहागा हो जाता है। ऐसे लोगों की कहानी अपने काल और परिवेश का दर्पण बन जाती है। डैडी ऐसी ही एक नरम गरम अच्छी बुरी कहानी के दमदार नायक थे।
आइए चलें साल 1936 में। गाँव कमालपुर, ज़िला लायलपुर (फ़ैसलाबाद), पंजाब राज्य, भारत।
पिंडी, झंग, चिन्योट, मुल्तान, बहावलपुर, गुजरांवाला और लाहौर ज़िलों की तरह ही यह पंजाब का वह पश्चिमी ज़िला था जो मुस्लिम बहुल था और तब किसी ने सोचा भी नहीं था कि केवल 11 वर्षों बाद यह सचमुच मग़रिबी पंजाब (West Punjab) के नाम से एक नया राज्य बन जाएगा जिसके आगे देश की जगह एक नया नाम लिखा होगा, पाकिस्तान। जिसमें वही पंजाबी ज़बान बोली और पढ़ी जाएगी पर उसकी लिपि उर्दू-फ़ारसी वाली होगी। जिसके गाँवों में वही पंजाबी लोकधुनें और गीत गाए जाएंगे पर उन्हें गाने वाले सुर केवल पंजाबी मुसलमानों के होंगे, और वैस्ट पंजाब की 30% सिख-हिन्दू आबादी अपने हिस्से आए छोटे से भारतीय पंजाब तथा दिल्ली जैसे अन्य क्षेत्रों में पहुँच वहाँ के सुर से ताल बिठा रही होगी।
लेकिन तब तक सब ठीक था। सिख, हिन्दू और मुसलमान केवल मज़हबी ठप्पे थे जिनकी स्याह चमक केवल पन्द्रह मिनट की पूजा-नमाज़ में उभरती और बाक़ी पौने चौबीस घंटे पंजाबियत की लालिमा बिखरी रहती। क्योंकि पंजाबियत ही इन सबकी मूल संस्कृति थी और वही इनका सभ्याचारक ईमान। एक सी रवायतें, परम्पराएं और एक सा गीत संगीत। पंजाब की अलग अलग बोलियों हिन्दको, पोठवारी, माझी और मुल्तानी वग़ैरह सभी में उसी अखंड पंजाबियत का शहद घुला हुआ था जिसके आगे रिलिजन का फैलाया ज़हर तब तक लगभग बेअसर था। पंजाब के हर शहर-गाँव की तरह कमालपुर में भी लीगियों की ख़याली दुनिया 'पाकिस्तान' का ज़िक्र यदा कदा चल पड़ता और गाँव के मुस्लिम-हिन्दू-सिख उसे हवा में उड़ा देते, एक फ़िज़ूल का सियासी विचार और प्रचार समझ कर। तभी मैंने कहा कि तब तक सब ठीक था !
लगभग 100 घरों वाले मझोले से गाँव कमालपुर में 90 के आस पास घर अकेले मुसलमानों के थे, जो अधिकतर जट्ट, काम्बोज और कम्मों (कमेरी जातियों) से थे। तक़रीबन तमाम मुस्लिम खेती बाड़ी तथा श्रमिक कार्यों से जुड़े थे। सिर्फ़ 7 घर हिन्दुओं और 2 घर सिक्खों के थे। ये सभी हिन्दू-सिख अरोड़ा जाति (मनोचा, तनेजा, खुराना) से सम्बद्ध थे। कहने की आवश्यकता नहीं कि सब अरोड़े साहूकारी व ज़मींदारी से वाबस्ता थे।
इस गाँव के सबसे सम्पन्न और प्रभावशाली व्यक्ति का नाम था धरम चंद मनोचा जिसे अपने रसूख़ की वजह से लोग धरमे 'शाह' पुकारा करते। रसूख़ का यह आलम था कि पास की पुलिस चौकी में जब कोई नया थानेदार आता तो वह इनसे मुलाक़ात ज़रूर करता। लेकिन इस बाहैसियत बंदे की ज़िन्दगी में एक बड़ी बदनसीबी ने कहर बरपा रखा था। इनकी औलाद होती और हो कर मर जाया करती। और शाहजी बड़े परेशान रहा करते।
जब पत्नी "करम देवी" फिर से गर्भवती हुईं तो उन संग उपाय करने अमृतसर गए, हरमंदर साहिब गुरुद्वारे जिसे आप स्वर्ण मंदिर कहते हैं। वहाँ जा कर गुरु महाराज से अरधास की, "यदि मेरा बच्चा आपकी मेहर से ज़िन्दा रह गया तो उसे सरदार बना कर आपकी राह लगा दूंगा।" तब पंजाब में यह आम रिवाज था। बच्चा बच गया, उसके तीन साल बाद हुई एक बच्ची भी बच गई किन्तु धरमे शाह ने अपना वादा वफ़ा न किया। करते भी कैसे ? बच्ची की पैदाइश के कुछ समय बाद ही करम देवी चल बसीं। अब सरदार सजाना कोई हंसी खेल तो है नहीं !! केश संवारने से ले कर दस्तार सजाने तक के कई झमेले होते हैं जो बचपन में माँ ही निपटा सकती है। जिन ताई जी के सर इन दोनों बच्चों का ज़िम्मा आया उनकी अपनी भी सन्तानें थीं। वे क्या क्या देखतीं !!
चार साल का यह बिन माँ का बच्चा अपने भरे पूरे संयुक्त परिवार में पलने लगा। शाह जी बड़े नाज़ उठाते इसके। बेशुमार धन संसाधन, कोई रोक टोक नहीं, माँ द्वारा ली जाने वाली कोई खोज ख़बर नहीं। यह बच्चा मस्त मौला और बेपरवाह होता गया। ऊपर से शाह जी के नाज़ ख़त्म न होते। जब गाँव के स्कूल में दाख़िल हुआ तो हैसियत दिखाने के लिए शाह जी ने बेटे के लिए निजी घोड़ी ख़रीद दी। ख़ुद की घोड़ी पर जनाब शान से स्कूल जाते। स्कूल छूटने के बाद घर आने को मन न होता, तफ़रीह की जाती। नौकर को घोड़ी का रुख़ नहर की तरफ़ मोड़ने का हुक्म मिलता। हुज़ूर छोटी उम्र में ही गाँव के अन्य बच्चों की तरह नहर में छलांगे मारना और तैरना सीख गए थे।
एक बार 1980 के आस पास मैंने डैडी को मुम्बई के सन-एंड-सैंड होटल के स्वीमिंग पूल में डाइव लगाते और बड़ी रफ़्तार से तैरते देखा तो हैरत से पूछा कि यह शानदार तैराकी आपने कहाँ सीखी ? आदत के मुताबिक छोटे से वाक्य में बोले,"अपने गाँव की नहर पर ! लायलपुर फ़ैसलाबाद ज़िले की यह लम्बी-गहरी नहर डैडी का वह सलोना मक़ाम था जो उनकी यादों से कभी दूर नहीं हुआ हालांकि उन्हें गुज़रे कल की यादों में विचरने की बीमारी न के बराबर थी। पर कमालपुर गाँव और उनकी पहली ऐशगाह 'नहर' की बात कुछ और थी। नहर पर ही गाँव के बच्चों से 'टाकरा' भी हो जाता। कभी कभी मार पीट तक की नौबत आ जाती। शुरू ही से तगड़े और लड़ाके थे,अपने से बड़े बच्चों तक को पीट डालते। आप सोचते होंगे कि मुसलमानों के गाँव में तो यह बड़े झगड़े का सबब बन जाता होगा ! जी नहीं, आप शायद उस ज़माने की फ़िज़ा से बेख़बर आज के परिप्रेक्ष्य में सोच रहे हैं। उलटा धरमे शाह वहाँ आकर अपने बेटे की धुलाई करते और मुस्लिम बच्चों की माताएं डैडी को बचातीं, उनसे छुड़ा ले जातीं। फिर उन्हें दुलारते हुए अपने घर ले जातीं और डैडी तब वहीं खेलते कूदते, उधम मचाते। उन्हीं के यहाँ खा पीकर शाम को घर लौटते।
मस्ती और मौजपना डैडी के स्वभाव का हिस्सा था शायद और अब यह एक 'बेपरवाह' चरित्र को जन्म देने लगा था। पढ़ाई लिखाई में चौपट होते जा रहे थे। उर्दू और गणित को छोड़ हर विषय में फिसड्डी थे। परीक्षा परिणाम से पहले स्कूल के हैड मास्टर से मुलाक़ात करते शाह जी, ख़ूब सारी फल-सब्ज़ी मिठाई भेंट की जाती और डैडी को अगली क्लास में धक्का दिलवाया जाता। कुछ इसी तरह पांचवी पास हो गई, 11 साल बीत गए।
और फिर 1947 का सत्यानासी साल आन पहुंचा। डैडी का सुंदर सलोना राजसी बचपन भारत की अखंडता की तरह बस एक इतिहास बन कर रह गया।
इति भाग (1)
( क्रमशः )
राजीव के मनोचा
© Rajiv K Manocha
#vss
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