Tuesday, 22 June 2021

भगवान सिंह का लेख - अज्ञेय की बात

बात  अज्ञेय की नहीं है,  अज्ञेय के बाद के हिंदी साहित्य की भी है, हमारे  आज के माहौल की भी है।

हिंदी में पत्रिकाओं की संख्या घट गई है।   एक दो लोग पता नहीं अपना क्या-क्या दांव  पर लगा कर  कुछ पत्र  - अँधेरे में मशाल- निकाल रहे हैं।  पत्रिकाओं से साहित्य की, विचार की,  हमारी रुचि की दिशा का पता चलता है।  पत्रिकाओं का कम होना या समय पर न निकल पाना सांस्कृतिक गिरावट का मानदंड हो सकता है।  

हम  एक गुमसुम अवस्था में पहुंच गए हैं।  ऐसी अवस्था में फेसबुक एक ऐसे मंच के रूप में प्रयोग में लाया जा सकता है जिससे सुगबुगाहट पैदा हो फिर सक्रियता आए। 

मैंने  इसी विचार से अपनी योग्यता के अनुसार गंभीर विषयों पर, उस दीवार पर लिखना आरंभ किया, जिसे चुटकुलों  और हल्की-फुल्की टिप्पणियों के लिए ही उपयुक्त माना जाता था । लोगों को कुछ विचित्र लगा, कुछ ने कहा इतने लंबे लेख पढ़ने की फुर्सत किसे है, सलाह दी कि गंभीर विषयों पर विस्तार से चर्चा फेसबुक के पाठकों की रूचि के अनुरूप नहीं।  मैंने कहा कि मैं अपनी किताब लिख रहा हूं और लिखने के दौर में दूसरे इसे देख सकते हैं कि क्या लिख रहा हूँ।  कोई भी न पढ़े तो फर्क न पड़ेगा।  पढ़े और कुछ खटके या जरूरी हो तो अपनी राय भी दे सकते हैं।  हमारा काम जारी रहेगा। जो लिखा वह फेसबुक वायरस के  खतरों से सुरक्षित रहेगा ।  इन पाँच वर्षों में मैंने पाया कि लोगों  की आशंका  गलत थी।   लेख पढ़ने वालों की रुचि और संख्या मेरी अपेक्षा से अधिक बढ़ती गई।

सच  कहूं  तो  मुझसे पहले यह काम अजित वडनेरकर शब्द विचार के माध्यम से कर चुके थे और करते हैं।  मैंने  समकालीन विषयों से लेकर इतिहास,  वेद,  भाषा,  प्राच्यवाद  सभी को अपने विचार क्षेत्र में रखा और परिणाम किसी पत्रिका में प्रकाशन से अधिक उत्साहवर्धक रहे।  कारण,  पत्रिका में प्रकाशित हमारी रचना को कितने लोग, किस तरह के लोग पढ़ रहे हैं और उनको वह कैसी लग रही है इसका हमें पता नहीं चलता।  इस मंच का एक लाभ यह भी है कि किसी सभा गोष्टी में बोलते हुए वक्ता को श्रोताओं दत्तचित्तता या अन्यमनस्कता, हाल के भरे रहने, भरते जाने या खाली होने, उठकर जाने  से भी अपने कथन के प्रभाव का उतना सटीक  पता  नहीं चल पाता, जितना फेसबुक पर लेखन से। 

हमारा सुझाव है कि अधिक से अधिक लोग गंभीर विषयों पर पूरी मेहनत से फेसबुक पर पोस्ट डालना शुरू करें तो इसका चरित्र भी बदलेगा,  छिछोरापन भी कम होगा,  और पारस्परिकता भी बढ़ेगी, धुंध भी छंटेगी। ।

 करण सिंह चौहान ने अपना आलस्य  त्याग  कर कुछ समय से यही काम करना शुरू किया है।  विषय-केन्द्रित नहीं हो पा रहे है।  जैसी कि पहले से यह धारणा चली आई है कि फेसबुक पर हल्की-फुल्की चीजें ही चलती हैं, इसलिए 'इतना भी काफी  है। यदि लेख अधिक गंभीर हो गया तो उसमें बहुत कम लोग ही रुचि लेंगे।' 

यह प्रवृत्ति अच्छी नहीं, हमें ध्यान अपनी समझ से किसी विषय के साथ पूरा न्याय करने पर देना चाहिए, जिनकी रुचि हो, समय निकाल सकें वे पढ़ें।  घोड़े पर सवार हो कर इबारत बाँचते, हामी भरते हुए गुजरने वालों को आकर्षित करने वाले, लोगों की ‘पसंद’ जान कर गालियाँ देने वालों, या जुमलेबाजों को हजारों [एक मामले में तो 40,000 लाइक जुटाने वाली लेखिका नजर से गुजर चुकी है] लोग पसन्द करते पाए जाते हैं। दूसरों की पसंद के लिए लिखना दूसरों की रुचि के अनुसार लिखना है. एक तरह की खुशामद है। केवल अपनी रुचि, समय की जरूरत, और विषय के प्रति समर्पणभाव, जरूरी तैयारी के साथ, सत्यनिष्ठा और साहसपूर्वक लिखना ही, लिखने के क्रम में,  हमें कुछ दे सकता है और पाठकों को भी कुछ दे सकता है और उनकी रुचि, रुझान और समझ के स्तर को ऊपर उठा सकता है। कोई कथन या लेखन पूरा नहीं होता, हो जाय तो उसी के साथ विषय का अंत हो जाएगा, बाद के लिए कुछ बचेगा ही नहीं। पूर्णता मौत है।  पर अपनी ओर से अधूरा छोड़ना, अनर्थ है।     

करण सिंह का लेख गंभीरता और पैनी दृष्टि  से लिखा  गया है पर पूरी तैयारी से नहीं, इसका प्रयत्न होना चाहिए।  इस पर आई प्रतिक्रियाओं से  पता चलता है कि यदि लेख में कुछ बिंदु  छूट भी गए थे तो भी यह कितना  सार्थक और कालोचित था। जो कुछ छूट गया था वह दूसरों की टिप्पणियों से पूरा हो गया।  यदि वह इन टिप्पणियों को ध्यान में रखते हुए, उनका आभार जताते हुए, इनमें आए हुए मुद्दों को भी शामिल करते हुए दोबारा इस लेख को लिख कर संग्रहीत करें तो यह अधिक निखोट हो जाएगा।  उर्दू में इस्लाह या संशोधन की एक परंपरा है जो इस्लाम-पूर्व अरब से चली आ रही है। उस्तादों द्वारा रचना में अधिक निखार पैदा करने की परंपरा जिसमें उस्ताद द्वारा सुझाया गया शेर भी रचनाकार का अपना माना जाता है क्योंकि वह उसी से प्रेरित होता है। फेसबुक पर हम सभी एक दूसरे के उस्ताद या परामर्शदाता हो सकते हैं और सही सुझावों को अपने फाइनल पाठ में शामिल कर सकते हैं।  मैं तो ऐसा करता हूँ।    

अज्ञेय  नेहरू युग के प्रतिनिधि और युगनिर्माता कवि है। नेहरू जी अपनी जमीन से कटे हुए थे और कभी जुड़ नहीं पाए।  लोग उनसे पागलों की तरह जुड़ते रहे और वह उन्हें कोसते कई बार खीझ कर  छड़ी से पीट भी देते।  अज्ञेय खास कारणों से अपने परिवार में भी पराए बने रहे और बचपन में स्थान बदलते रहने के कारण किसी से सख्य भाव कायम न कर पाए। निर्माणकाल का यह अकेलापन या बेगानापन उनके स्वभाव का अंग बन गया जो उन्हें अपनी पहचान के रूप में कुछ अलग, विलक्षण करने के लिए प्रेरित करता रहा  पर भारतीय समाज के साथ रागात्मक संबंध कायम करने में बाधक बना।  नेहरू और अज्ञेय दोनों ज्ञान, दायित्व और विशिष्ट संबंधों के माध्यम से समाज से जुड़ते हैं जिसमें रागात्मक सामाजिकता का अभाव बना रहता है।

न तो नेहरू को केन्द्र में रखे बिना स्वतंत्र भारत के अब तक के सद-असद को समझा जा सकता है, (क्योंकि गांधी की प्रासंगिकता सत्ता हस्तांतरण की तैयारी के समय ही समाप्त कर दी गई थी);  और न अज्ञेय को केन्द्र में रखे बिना स्वतंत्र भारत के अब तक के हिन्दी साहित्य के अच्छे बुरे को (क्योंकि प्रेमचंद की प्रासंगिकता उनमें व्यापकता है पर गहराई नहीं है के फहम में सपाप्त की गई थी और इसकी शुरुआत जैनेन्द्र जी  (यदि मैं गोदान लिखता) से ही हो गई  थी। 

नेहरू गांधी के अर्थशास्त्र को उनके लाख समझाने के बाद भी न समझ  सके,  क्योंकि वह  भव्य भारत का निर्माण करना चाहते थे।  गांधी का सपना था कि स्वतंत्रता सभी भारतीयों तक स्वराज्य बन कर पहुँचे। वह अन्त्योदय से आरंभ करना चाहते थे नेहरू जी उन्नतोदर से। अंग्रेजो ने नष्ट किया था भारत का कुटीर उद्योग।  गांधी चाहते थे पहले उसकी वापसी हो। सभी लोग अपने पांवों पर खड़े हों, इसके लिए कुटीर उद्योग एकमात्र विकल्प था, और  पेशीय बल का पूरा उपयोग करने के बाद, उन्ही कामों को अधिक आसान बनाने के लिए ऊर्जा के दूसरे साधनों का प्रयोग हो, इसके वह पक्षधर थे। इतिहास का व्यंग्य है कि चीन ने गांधीवादी तरीके पर अमल किया। सुंदरलाल ने चीन यात्रा से लौटने के बाद कहा था कि गांधीवाद तो चीन में है, भारत में है ही नही। इसी के बल पर वह हर  दृष्टि से इतना आगे बढ़ गया   और हम आरंभ में उससे आगे थे फिर भी पिछड़ते चले गए।  यदि गांधीवादी तरीका अपनाया गया होता है तो नैतिक, भौतिक, बौद्धिक सभी दृष्टियों से हमारा क्षरण न होता ,   पूंजीवाद होता भी तो उसका हौवा खड़ा न होता,   हम  दूसरे देशों का बाजार नहीं बनते।  यदि हमारी सफलता से दूसरे नव स्वतंत्र देश  भी आकर्षित होते तो पश्चिम के शस्त्र-निर्माताओं द्वारा पैदा किए गए खुराफात, और राष्ट्रीय झगड़ों से बचा जा सकता था  जो दूसरे विश्वयुद्ध के बाद  यूरोप और अमेरिका में नहीं होते, केवल एशिया अफ्रीका और लातिन अमेरिका में ही कराए जाते हैं। 

 नेहरू  पश्चिमी विकास की नकल करके जल्द से जल्द पश्चिम के  बराबर आना चाहते थे, और उसमें प्राचीन भारतीय मूल्यों को  जोड़ कर भारत को विश्व के लिए अनुकरणीय बनाने का सपना देखते थे।

ठीक उसी तरह  अज्ञेय हिन्दी साहित्य को पाश्चात्य साहित्य, भाषा के सौष्ठव, संवेदन की गहराई और प्रयोगों विविधता से समृद्ध करते हुए, एक छलांग में विश्व-स्तरीय बनाना चाहते थे। जिस समय वह हिंदी के मंच पर आते हैं, छायावादी प्रभाव से मुक्त होने और अधिकतम जनों तक पहुँचने के लिए  बहुत से कवि छन्द, भाषा और शिल्प के प्रयोग कर रहे थे।  इनमें अधिकांश मार्क्सवादी रुझान के थे। अज्ञेय को मार्क्सवाद से या राजनीतिक पक्षधरता से परहेज न था। सक्रिय राजनीति रचना के उत्कर्ष में बाधक होती है ऐसा उनका विचार अवश्य था, जो सही था और जिसका में कायल हूँ और मार्क्सवादियों की साहित्यिक समझ को सतही पाता हूँ और उनके द्वारा अज्ञेय के विरोध को हिंदी के लिए कलंक मानता हूँ। 

उनसे गलती ठीक इसी चरण पर हुई ।  भारतीय कवियों के प्रयोगों में प्रयत्न तो दिखा, मार्मिकता नहीं। पर यूरोप के प्रयोगवादियों की ओर उनका झुकाव प्रगतिशीलता के विरोध के लिए नहीं अपितु अधिक नए प्रयोगों की लालसा से हुआ था पर, ‘यह पथ यहाँ से अलग होता है और 1950 में सीआईए  प्रायोजित ‘कांग्रेस फॉर कल्चरल फ्रीडम’ के प्रति आकर्षण से कम्युनिस्ट विरोधी हो जाता है, यद्यपि (CCF) से दुनिया के 35 देशों केअसंख्य मूर्धन्य साहित्यकारों और चिंतकों ने निकटता कायम कर ली थी और उनमें किसी को पता न था कि यह CIA से परिचालित है।

 कहने का तात्पर्य यह कि प्रयत्न नेहरू और अज्ञेय  दोनों का सराहनीय था,  परंतु परिणाम तो वहीं आ सकते थे जो आए।   राजनीति समाजनीति से अलग होती चली गई, साहित्य समाज से अलग,  विकास और सत्यानाश समानांतर गति से चले और हिंदी ही नहीं पूरे भारत में कला, साहित्य, विज्ञान, गंभीर अध्ययन, मनोरंजन, सुरुचि, अनुशासन के प्रति निष्ठा रखने वाला, इस पर गर्व करने वाला, मध्यवर्ग भारत में पैदा ही नहीं हो सका।  अज्ञेय स्वयं भी इस पर सिर पीटते हैं,  “हमारे मध्यवर्ग की प्रतिभा मर गई है, सचमुच बिल्कुल मर गई है। शायद उस वर्ग के लेखकों की भी। या कि अंग्रेजी का घुन सबको खा गया है।...” 
( भवन्ती, रचनावली, खंड 9, पृ. 69)

‘करके खुद कत्ल वह अब हर किसी से पूछते हैं/ यह काम किसने किया है, यह काम किसका है।’  अज्ञेय को इसलिए पता नहीं कि वह अपने तईं पश्चिम के प्रति खिंचाव के बाद भी अपना स्वत्व नहीं खोया। पर दूसरे इस विवेक का परिचय न दे सके।  भवन्ती के इसी लेख के आगे के अंश मेरे मन्तव्य को रेखांकित करते हैं:
सुना है कि पश्चिम के  नृतत्वविदों ने प्रयोग के लिए  एक हातिम जाति के कुछ परिवारों को हटाकर एक नितांत अपरिचित भौगोलिक परिवेश  में बसा दिया  तो   एक वर्ष बाद  पाया कि  नए द्वीप- देश  में  उन्होंने 400 से अधिक पेड़ पौधों को न केवल अपने नाम दे दिए थे वरन्   उनकी तासीर  को भी सूचीबद्ध कर लिया था।  यह  होती है जीवन्त जाति की  परंपरा सृष्टि। अज्ञेय, (वही)
 
राजा राममोहन राय जैसे  सुलझे हुए स्पष्टदर्शी, तीक्ष्णबुद्धि,  सुतर्कित  सोचने-बोलने और लिखने वाले कम ही हुए ( और बाद में अंग्रेजी पढ़ी  पीढ़ियों में और भी कम!) और उनकी मेधा पुष्ट हुई थी तो  अरबी- फारसी- संस्कृत ( और,  हां,  बांग्ला) शिक्षा के आधार पर।  परंपरा पर   पर्ली हुई बुद्धि  ने ही  अंग्रेजी के सहारे पश्चिम का मुकाबला किया था। अज्ञेय, (वही, पृ.  70)

पर अंत में जोड़ दूँ, अज्ञेय उलझे हुए हैं और उनकी परंपराबोध उन्होंको गहन लग सकता है जिनसें परपराबोध भी नहीं है और इसकी ललक भी नहीं, समझने की बुनियादी योगेयता भा नहीं, फिर भी वह मेरे अग्रज लेखक हैं और इसलिँ नमस्य।

© भगवान सिंह
#vss

No comments:

Post a Comment