दुनिया के किसी अन्य देश में इतनी प्राचीन अवस्था का इतना सटीक और स्पष्ट वर्णन देखने को न मिलेगा जो भारतीय पुराणों - इनमें पुराण के नाम से लिखित ग्रंथों के अतिरिक्त जातीय महाकाव्य, उपनिषद, आरण्यक, ब्राह्मण, संहिताएं, और वेद ही नहीं आते हैं, जिनको पहले भी विद्वानों ने पौराणिक विवेचन में स्थान दिया है, इनमें वे कूट विधान भी आते है, जो उसी तरह अपाठ्य बने हुए हैं जैसे जेम्स प्रिंसेप से पहले ब्राह्मी के अभिलेख - ‘उनका कोई ऐतिहासिक मूल्य होता तो किसी पश्चिमी विद्वान ने ध्यान न दिया होता!’
यह सोच कर हैरानी होती है कि अपने पुराभिलेखों कौ पढ़ने की चोग्यता तक हमने खो दी थी, जब कि लेखन की अविकल परंपरा बनी रही थी। हमने शिक्षा के नाम पर रटना जारी रखा था, सोचना बंद कर दिया और खोजना छोड़ दिया।[1] हमें अकर्मण्यता में प्रतीक्षा करते रहे कि कोई दूर देश का विद्वान आएगा और पढ़कर बताएगा कि इनमें लिखा क्या है।
इतिहास को सजोने की हमारी लेखन से अलग प्रणालियां भी हैं और अपना ‘पुरातत्व’ भी है। इनसभी में हमारा इतिहास यत्र तत्र बचा रह गया है। पुराणों में भी जहां इतिहास आता है उसका चरित्र सेकुलर हो जाता है, भाषा और प्रस्तुति में सटीकता बनी रहती है। उदाहरण के लिए वायुपुराण में आदिम समाज का जैसा चित्रण है, वैसा पहली बार मार्क्स के आदिम साम्यवाद (प्रिमिटव कम्युनिज्म) से पहले अन्यत्र नहीं मिलता और वह भी किसी इतिहास या परंपरा के आधार आदिम साम्यवाद तक नहीं पहुचे थे, बल्कि मार्गन द्वारा अमेरिकी आदिवासियों पर उन्नीसवीं शताब्दी में किए गए नृतात्विक अध्ययनों से प्रेरित हो कर। सच कहें तो कम्युनिज्म का सपना भी मार्गन ने ही देखा था, जिसका ऐंगल्स ने अपने ढंग सै उल्लेख भी किया था:
“I And now, in conclusion, let me add Morgan's judgment of civilization (Ancient Society, page 552):
‘Since the advent of civilization, the outgrowth of property has been so immense, its forms so diversified, its uses so expanding and its management so intelligent in the interest of its owners that it has become, on the part of the people, an unmanageable power. The human mind stands bewildered in the presence of its own creation. The time will come- nevertheless, when human intelligence will rise to the mastery over property, and define the relations of the state to the property it protects, as well as the obli- gations and the limits of the rights of its owners. The interests of society are paramount to individual interests, and the two must be brought into just and harmonious relations.”
परन्तु हमारा यह कथन कि आदिम साम्यवाद का विचार हमारी पौराणिक चेतना का हिस्सा रहा है, जोखिम भरा है, इससे वामपंथी मित्र क्षुब्ध होकर ऐलान कर सकते हैं कि आज के सबसे क्रान्तिकारी दार्शनिक के चिंतन को पुराणों में तलाशने वाला संकीर्ण हिंदू राष्ट्रवाद से ग्रस्त हैं; और यदि साथ ही यह दावा करूं कि मार्गन की खोजों का उपयोग करते हुए ऐेगल्स ने ‘परिवार. निजी संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति’ का जो विवेचन किया था, ठीक वही विवेचन उसी पुराण में मिलता है तब तो वे उसी तरह का तांडव करने लगेंगे जैसा संकीर्ण हि्दू राष्ट्रवादियों ने इस बात के ठोस प्रमाण को पढ़ कर करना आरंभ किया कि 1. परशुराम का वैदिक साहित्य में वर्णित रूप से कोई संबंध नहीं है; 2. कि इसे पुष्यमित्र की छवि में कल्पना की खुली छूट से गढ़ा गया; 3. कि इसके पीछे बौद्धमत का विरोध काम कर रहा था जिससे उनका प्राप्य प्रभावित हुआ था और जिसके साथ क्षत्रिय संहार की कल्पना इसलिए कर ली गई, कि जैन और बौद्ध मताें के प्रवर्तक क्षत्रिय थे और इस तरह बौध = क्षत्रिय का समीकरण तैयार कर लिया गया था; 4. कि इस चरित्र को जिस विक्षिप्तता में गढ़ा गया और इसका जो सबसे महान कारनामा माना गया वह तटस्थ दृष्टि से देखने पर स्वयं उस चरित्र के लिए, ब्राह्मण जाति के लिए, और हिंदूसमाज के लिए कलंक है; 4. कि इसको कभी जिन भा परिस्थितियों में, जिन भी लोगों द्वारा गढ़ा गया, उसके लिए बाद की पीढ़ियां जिम्मेदार नहीं, फिर भी लिखे को मिटाया भले न जा सके, उसे त्यागा (डिस-ओन किया) जा सकता है, और जो त्याग नहीं सकते वे परशुराम के कारनामों के समर्थक और इसलिए उस अपराध के सहभागी हैं; 5. कि हम इसे डिस-ओन करके ही अपने पुराणों की विश्सनीयता की रक्षा कर सकते हैं। इस पर जातवेदा ब्राह्मण जिन्हें यह तक समझ नहीं कि योग्यतानुसार कर्म आधारित वैज्ञानिक वर्ण-व्यवस्था को पुरुष सूक्त की आड़ में जातिवादी बना कर किसने नष्ट किया था, नंगा नाच आरंभ कर दिया।
ये ही लोग कुरान की आपत्तिजनक आयतों को उद्धृत करते हुए, इस बात की मांग करते हुए कि उन्हें इसके लिए क्षमा याचना करनी चाहिए, इनको कुरान से निकाल देना चाहिए, कतार बना कर खड़े हो जाते रहे हैं। इनमें से किसी ने कभी यह नहीं सुझाया कि परशुराम का जैसा चित्रण महाकाव्यों और पुराणों में किया गया है उस पर हमें पहले क्षमा मांगनी चाहिए। वे उस पर पुनर्विचार तक नहीं कर सकते।
इकहरे दिमाग के लोग ही यह सोच सकते हैं कि जो कुछ उनकी दृष्टि से सही नहीं है उसे मिटा देना चाहिए, परंतु वस्तुपरक दृष्टिकोण रखने वाला व्यक्ति जानता है कि उसी सत्य पर इतने कोणों से प्रकाश पड़ता है और उन सभी से देखने पर उसके इतने रूप दिखाई पड़ते हैं, कि एक दृष्टि से जो गलत दिखाई देता है दूसरी दृष्टि से सही हो सकता है; इसलिए मिटाओ किसी को भी नहीं, स्वीकार केवल उसे करो जो सही लगता है, शेष को रहने दो। उसे होते हुए भी नकार दो।
एक इतिहासकार तथ्य को तथ्य के रूप में देखता है। मिटाता किसी को नहीं, बचाता सभी को है - वह अपनी स्रोत सामग्री को मिटा कैसे सकता है - परंतु बचाता उनके अनुसार सही होकर जीने के लिए नहीं। वह उस युग में पहुंच कर, उसकी मानसिक और भौतिक चुनौतियों को समझने के लिए उनमें प्रवेश करता है। इसी तरह वह उनका युग सत्य ले कर बाहर आता है। यही उसकी मधुविद्या है, खारे समुद्र मंथन से अमृत पाने की कला है। इतिहास लेखन साधना है, सूचनाओं की बांबी पर झंडा गाड़ने को इतिहास नहीं कहा जाता।
मैं समझता था कि जातिवादी ब्राह्मण, नस्लवादी और रंगभेदी गोरे और मुल्लावादी मुसलमान समान रूप अति संवेदनशील है, परंतु एक हिंदू के रूप में मुझे डरावनी हुई की जनवादी हिंदुत्ववादी इस नाम से भी अधिक अति-संवेदनशील हैं और इसकी याद दिलाओ तो बौखला उठते हैं, पर नए प्रमाणों से पता चलता है कि इस मामले में पहला दोनो का बाप है। मैं यह बात इस आधार पर कहता हूं कि बहुत पहले मैंने एक लेखमाला भारतीय मुसलमान के नाम से लिखी थी. जिसमें मैंने इस्लाम के बारे में विचार करते हुए कुरान से लेकर मोहम्मद साहब तक पर तीखी टिप्पणियां की थी। वह पुस्तक प्रकाशित हुई और वह अकेली पुस्तक है जिसके प्रकाशन में मैंने फेसबुक पर विज्ञप्ति दी थी। मुझे यह अपमानजनक लगता है, कि 2 साल बाद भी न तो किसी मुसलमान ने, न किसी वामपंथी ने, जिन के विषय में मेरा यह भ्रम आज तक कायम है वे अधिक असहिष्णु हैं, उन कठोर टिप्पणियों पर भी कोई आपत्ति नहीं जताई, क्योंकि उनमें समझने का वही प्रयास था जो मेरे लेखन में हुआ करता है। यह सोच कर अच्छा नहीं लगा कि मुल्लावादी मुसलमान ब्राह्मणवादी हिंदू से अधिक सुलझा और संतुलित होता है।
मैं नहीं जानता कि मैं अपनी विचार श्रृंखला से कितना भटका हूं, परंतु यह पता है कि यह दिखाने के लिए मार्क्सवादी भी मार्क्स और एंगल्स के मामले में उतने ही खब्ती होते हैं, और यह सहन नहीं कर सकते कि कोई पौराणिक आख्यान उनकी किसी कृति से तुलनीय हो सकती है।
परन्तु मैं ऊपर से यह दावा भी करता हूं कि मार्क्स और एंगल्स की अनेक त्रुटियां भारतीय पौराणिक जानकारी के आधार पर सुधारी जा सकती है।
© भगवान सिंह
#vss
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