हर तरफ गवर्नेंस की विफलता दिख रही है। महंगाई बढ़ रही है, महंगाई भत्ते कम हो रहे हैं, इलाज के अभाव में लोग मर रहे हैं। दो नए वायरस डेल्टा और कप्पा ने लोगो को तबाह करना शुरू कर दिया है। पांच ट्रिलियन की इकोनॉमी की सपने दिखाने वाली सरकार की जीडीपी माइनस - 7.5 % तक गिर जाने का अनुमान है। बांग्लादेश तक हमसे आगे निकल गया है। अरुणाचल और लद्दाख में 'न कभी घुसा था और न घुसा है', वाला चीन, दक्षिणी छोर पर कुछ ही नॉटिकल मील की दूरी पर श्रीलंका के एक बंदरगाह में मंदारिन में अपने आ जाने की सूचना दे रहा, उसने दुनिया की सबसे प्राचीन माने जाने वाली द्रविड़ सभ्यता और तमिल भाषा को श्रीलंका से बेदखल करने का मन बना लिया है। और सरकार, एक राज्य में चुनाव हार जाने की खीज, एक अनावश्यक मुद्दे को तूल देकर एक रिटायर्ड नौकरशाह का जवाबतलब कर के उतार रही है।
यहीं यह सवाल उठता है कि, आखिर हम गवर्नेंस की ओर जा रहे हैं ? क्या हम मूढ़तंत्र यानी काकिस्टोक्रेसी की ओर जा रहे हैं ? अनेक शासन पद्धतियों के बीच एक अल्पज्ञात शासन पद्धति है काकिस्टोक्रेसी, Kakistocracy . इसका अर्थ है, सरकार की एक ऐसी प्रणाली, जो सबसे खराब, कम से कम योग्य या सबसे बेईमान नागरिकों द्वारा संचालित की जाती है। इसे कोई शासन प्रणाली नहीं कही जानी चाहिये बल्कि इसे किसी भी लोकतांत्रिक प्रणाली के एक ग्रहण काल की तरह कहा जा सकता है जब हम निकम्मे लोगों द्वारा शासित हो रहे हों तब। यह शब्द 17 वीं शताब्दी के प्रारम्भ में इस्तेमाल किया गया जब फ्रांस का लोकतंत्र और इंगलेंड का शासन गड़बड़ाने लगा था। इंग्लैंड ने तो अपनी समृद्ध लोकतांत्रिक परम्परा के कारण खुद को संभाल लिया था पर फ्रांस ख़ुद को संभाल नहीं पाया था। तब अयोग्य और भ्रष्ट लोगों द्वारा शासित होने के कारण , 1829 में यह शब्द एक अंग्रेजी लेखक द्वारा इस्तेमाल किया गया था। मैने अपनी समझ से इसका हिंदी नाम मूढ़तन्त्र रखा है। मुझे शब्दकोश में इसका शाब्दिक अर्थ नहीं मिला।
इस का शाब्दिक अर्थ यूनानी शब्द काकिस्टोस जिसका मतलब ' सबसे खराब ' होता है और क्रेटोस यानी ' नियम ' , को मिला कर बनता है, सबसे खराब विधान । ग्रीक परम्परा से आया यह शब्द पहली बार अंग्रेजी में इस्तेमाल किया गया था, फिर राजनीति शास्त्र के विचारकों ने इसे अन्य भाषाओं में भी रूपांतरित कर दिया ।
राजनीतिशास्त्र के अनुसार इस की अकादमिक परिभाषा इस प्रकार है ~
A "kakistocracy" is a system of government which is run by the worst, least qualified, or most unscrupulous citizens.
( काकिस्टोक्रेसी, शासन की एक ऐसी प्रणाली है जो सबसे बुरे, सबसे कम शिक्षित और सबसे निर्लज्ज लोगों द्वारा संचालित की जाती है ।)
यह कोई मान्य शासन प्रणाली नहीं है बल्कि यह लोकतंत्र का ही एक विकृत रूप है । लोकतंत्र जब अपनी पटरी से उतरने लगता है और शासन तंत्र में कम पढ़े लिखे और अयोग्य लोग आने लगते हैं तो व्यवस्था का क्षरण होंने लगता है। उस अधोगामी व्यवस्था को नाम दिया गया काकिस्टोक्रेसी । लोकतंत्र में सत्ता की सारी ताक़त जनता में निहित है। जनता अपना प्रतिनिधि चुनती है और वे चुने हुये प्रतिनिधि एक संविधान के अंतर्गत देश का शासन चलाते हैं। शासन को सुविधानुसार चलाने के लिये प्रशासनिक तंत्र गठित किया जाता है जो ब्यूरोक्रेसी के रूप में जाना जाता है। ब्यूरोक्रेसी, सभी प्रशासनिक तंत्र के लिये सम्बोधित किया जाने वाला शब्द है। जिसने पुलिस, प्रशासन, कर प्रशासन आदि आदि सभी तंत्र सम्मिलित होते हैं। इसी को संविधान में कार्यपालिका यानी एक्ज़ीक्यूटिव कहा गया है। ब्यूरोक्रेसी मूलतः सरकार यानी चुने हुये प्रतिनिधियों के मंत्रिमंडल के अधीन उसके दिशा निर्देशों के अनुसार काम करती है। पर ब्यूरोक्रेसी उस मन्त्रिमण्डल का दास नहीं होती है और न ही उनके हर आदेश और निर्देश मानने के लिये बाध्य ही होती है । ब्यूरोक्रेसी का कौन सा तंत्र कैसे और किस प्रक्रिया यानी प्रोसीजर और विधान यानी नियमों उपनियमों के अधीन काम करती है , यह सब संहिताबद्ध है। नौकरशाही से उन्हीं संहिताओं का पालन करने की अपेक्षा की जाती है । पर यहीं पर जब ब्यूरोक्रेसी कमज़ोर पड़ती है या स्वार्थवश मंत्रिमंडल के हर काम को दासभाव से स्वीकार कर नतमस्तक होने लगती है तो प्रशासन पर इसका बुरा असर पड़ता है और एक अच्छी खासी व्यवस्था पटरी से उतरने लगती है । ऐसी दशा में चुने हुये प्रतिनिधियों की क्षमता, मेधा और इच्छाशक्ति पर यह निर्भर करता है कि वे कैसे इस गिरावट को नियंत्रित करते हैं। अगर सरकार का राजनैतिक नेतृत्व प्रतिभावान और योग्य नेताओं का हुआ तो वे ब्यूरोक्रेसी को वे कुशलता से नियंत्रित भी कर लेते हैं अन्यथा ब्यूरोक्रेसी बेलगाम हो जाती है और फिर तो दुर्गति होनी ही है। इसी समय राजनैतिक नेतृत्व से परिपक्वता और दूरदर्शिता की अपेक्षा होती है। इसे ही अंग्रेज़ी में स्टेट्समैनशिप कहते हैं।
लोकतंत्र में जनता का यह सर्वोच्च दायित्व है कि वह जब भी चुने अच्छे और योग्य लोगों को ही चुने और न ही सिर्फ उन्हें चुने बल्कि उन पर नियंत्रण भी रखे। यह नियंत्रण, अगर चुने हुये प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का कोई प्राविधान संविधान में नहीं है तो, वह मीडिया, स्थानीय प्रतिनिधि पर दबाव, आंदोलन आदि के द्वारा ही रखा जा सकता है और दुनिया भर में जहाँ जहाँ लोकशाही है, जनता अक्सर इन उपायों से अपनी व्यथा और नाराज़गी व्यक्त करते हुये नियंत्रण रखती भी है। इसी लिये दुनिया भर में जहां जहां भी लोकतांत्रिक व्यवस्था है वहां वहां के संविधान में मौलिक अधिकारों के रूप में अभिव्यक्ति और प्रेस की आज़ादी को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गयी है। जनता का यह दायित्व और कर्तव्य भी है कि वह निरन्तर इस अधिकार के प्रति सजग और जागरूक बनी रहे और जिन उम्मीदों से उसने सरकार चुनी है उसे जब भी पूरी होते न देखे तो निडर हो कर आवाज़ उठाये । इसी लिये लोकतंत्र में विरोध की आवाज़ को पर्याप्त महत्व दिया है और विरोध कोई हंगामा करने वाले अराजक लोगों का गिरोह नहीं है वह सरकार को जागरूक करने उसे पटरी पर बनाये रखने के उद्देश्य से अवधारित किया गया है । यह बात अलग है कि इसे देशद्रोही कह कर सम्बोधित करने का फैशन हो गया है।
लोकतंत्र तभी तक मज़बूत है जब तक जनता अपने मतदान के अधिकार के प्रति सचेत है और सरकार चुनने के बाद भी इस बात पर सचेत रहे कि चुने हुये प्रतिनिधि उसके लिये, उसके द्वारा चुने गए हैं। पर हम चुन तो लेते हैं पर चुनने के बाद सरकार को ही माई बाप मानते हुये उसके हर कदम का दुंदुभिवादन करने लगते हैं । यही ठकुरसुहाती भरा दासभाव लोकतंत्र को क्षरित करता है और ऐसे ही लोकतंत्र फिर, धीरे धीरे मूढ़तन्त्र में बदलने लगता है।
एक अच्छा प्रशासक और सरकार कभी भी द्वेषभाव से काम नही करती है। पर मोदी सरकार का स्थायी भाव ही द्वेष भाव है। सरकार ने जिस रिटायर्ड अफसर अलपन बंदोपाध्याय को धारा 51 डिजास्टर मैनेजमेंट एक्ट के अंतर्गत एक नोटिस जारी किया है, उसमे एक साल की सज़ा का प्राविधान है। अलपन बंदोपाध्याय से तीन दिन में ही यह लिखित रूप से बताने के लिये कहा गया है कि, क्यों न धारा 51, डिजास्टर मैनेजमेंट एक्ट के अंतर्गत उनके खिलाफ कार्यवाही की जाय ? यह नोटिस उनके रिटायर होने के कुछ ही घन्टे पहले उन्हें दी गयी है। उन्होंने अपना सेवा विस्तार लेने से मना कर दिया और 31 मई 2021 को रिटायर हो गए। अब वे मुख्यमंत्री के मुख्य सलाहकार हैं।
अब डिजास्टर मैनेजमेंट एक्ट क्या है, इसे संक्षेप में देखिए। यह एक्ट, 2004 में आयी भयंकर सुनामी के कारण राहत कार्यो में कोई बाधा न हो, इसलिए वर्ष 2005 में यूपीए सरकार के समय संसद द्वारा पारित किया गया। 24 मार्च 2020 को पहली बार यह एक्ट देश मे कोरोना महामारी के समय, प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में गठित डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉर्टी द्वारा लागू किया गया। इसका उद्देश्य, महामारी से निपटने में सभी विभागों और लोगो की वैधानिक सहायता लेना है। यह एक्ट जिला मैजिस्ट्रेट को दवा, ऑक्सीजन और अन्य हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर के संबंध में जिला मैजिस्ट्रेट को अतिरिक्त शक्तियां देता है जिससे महामारी का मुकाबला किया जा सके। केंद्रीय गृह सचिव इस अथॉर्टी एनडीएमए के चेयरमैन होते हैं और यह एक्ट पूरे भारत मे 30 जून तक लागू है।
उक्त नोटिस के अनुसार,
" 28 मई को कलाईकुंडा में पीएम द्वारा एक मीटिंग आयोजित की गयी थी। उस मीटिंग में मुख्यमंत्री और मुख्य सचिव को भी बुलाया गया था। पीएम और उनके दल के लोगो ने 15 मिनट तक के लिये मुख्यमंत्री और मुख्य सचिव की प्रतीक्षा की। थोड़ी देर बाद मुख्यमंत्री और मुख्य सचिव दोनो आये और थोड़ी देर बाद चले गए। यह कृत्य डिजास्टर मैनेजमेंट एक्ट धारा 51 (b) के अंतर्गत कदाचार में आता है।"
कानूनी जानकारों का कहना है कि, इस नोटिस में यह साबित करना होगा कि, दोषी अधिकारी बिना किसी उचित काऱण और वैधानिक आधार के जानबूझकर कर उक्त मीटिंग से अनुपस्थित रहा। केंद्र सरकार यह साबित नही कर पायेगी क्योंकि, मुख्य सचिव तो मुख्यमंत्री के साथ ही हैं। वे मुख्यमंत्री के साथ प्रधानमंत्री के सामने गए भी। ममता बनर्जी ने जो पत्र लिखा है उसमें उन्होंने यह कहा है कि वे पीएम से पूछ कर ही मीटिंग से बाहर मुख्य सचिव के साथ अगले दौरे के लिये गयी थीं। यही बात उन्होंने प्रेस कांफ्रेंस में भी कही है। यही बात कोलकाता के अखबारों ने छापा भी है।
अब अलपन बंदोपाध्याय इस नोटिस का क्या जवाब देते हैं यह तो उनके जवाब के बाद ही पता लग सकता है। पर मुख्य सचिव के एक एक मीटिंग का मिनिट्स रहता है। हर समीक्षा की डिटेल रहती है। जिस मुख्य सचिव को, उनके कोविड से जुड़े काम को देखते हुए केंद्र सरकार ने 31 अगस्त तक का सेवा विस्तार देती है वही सरकार एक मीटिंग में जिंसमे वे मुख्यमंत्री के साथ गए भी हैं, इस आधार पर उन्हें नोटिस जारी करती है कि, उन्होंने महामारी के संदर्भ में जानबूझकर लापरवाही बरती है।
पर केंद्र सरकार को यूपी में महामारी की भयावह दुरवस्था, गंगा में बहते शव, रेत में दफन मुर्दे, उनके कफ़न घसीटते लोग, ऑक्सीजन की कमी से तड़प तड़प कर मरते लोग, घर की जमापूंजी बेच कर निजी अस्पतालों में अपना सब कुछ गंवा कर मृतक मरीज लेकर लौटते लोग, चुनाव के दौरान सैकड़ो मरे हुए शिक्षक और कर्मचारी नहीं दिखते हैं क्योंकि यहां वही दल सत्ता में है जो केंद्र में है। पर बंगाल के मुख्य सचिव ज़रूर दिख गए जो मीटिंग में गए भी थे और मुख्यमंत्री के साथ ही थे। अजीब वक़्त है, और अजीब सरकार भी, न इलाज मयस्सर है, न कफ़न दफन, न सम्मान से अंतिम संस्कार और अफसर चाहे जितना भी सीनियर हो वह चैन से रिटायर भी नहीँ हो पा रहा है।
( विजय शंकर सिंह )
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