Sunday, 27 June 2021

यूरोप का इतिहास (17)

अधिकतर बूढ़े यूरोपीय उस काल का वर्णन करते हैं, तो लगता है कि किसी अविकसित देश की बात कर रहे हों। न उनके पास गाड़ी थी, न फ़्रिज, न टेलीविजन। लगभग सभी घरों में एक तहख़ाना तो आम है ही। सब्जियाँ भी वह कम ही खरीदते थे, क्योंकि उनको जमा करने की जगह नहीं थी। उत्तरी यूरोप (नॉर्वे/स्वीडन) को छोड़ दें तो बाकी यूरोप को युद्ध से उबरने में दो दशक लग गए।

“हम फ़िल्म बहुत देखते थे”

नीदरलैंड के एक बुज़ुर्ग ने मुझे बताया। यह बात अजीब लगी कि युद्ध के बाद कोई फ़िल्म देखना चाहेगा। शायद काम के बाद थक कर यही एक मनोरंजन हो।विश्व-युद्ध के बाद से उस युद्ध पर फ़िल्म बने ही जा रही है। यह फ़िल्म उन्हें दिखाया भी जा रहा था!

यूरोपियों को हिटलर से इतनी घृणा या मन में ग्लानि न भी होती। हिटलर-प्रेमी तो पूरी दुनिया में पसरे थे। केनेडी परिवार के हिटलर-प्रेम की मैंने चर्चा की है। भारत के कई नेता भी हिटलर और मुसोलिनी में भविष्य देखते थे। मसलन नेताजी सुभाष चंद्र बोस का ही उदाहरण लें। जब नाजीयों की सजा तय करने के लिए टोक्यो ट्रायल हुआ, तो उसमें भारतीय न्यायाधी़श राधाबिनोद पाल ने ही कुछ हद तक नाजीयों का पक्ष लिया। मरहूम इरफ़ान ख़ान ने उस विषय पर बनी सीरीज़ में वह किरदार खूब निभाया है।

हिटलर से घृणा जन्मी फ़िल्मों से, जो हॉलीवुड में बैठे यहूदी बना रहे थे; अथवा पूर्वी यूरोप और दक्षिण यूरोप के कम्युनिस्ट फ़िल्मकार बना रहे थे। उन्होंने उस काल पर किताबें भी खूब लिखी। ‘होलोकॉस्ट’ जैसे घृणित कार्य का ख़ामियाज़ा हिटलर को भुगतना पड़ा। अन्यथा अगर वह यहूदी-विरोधवाद नहीं अपनाते, और सिर्फ युद्ध लड़ते तो संभव है कि यहूदी उनकी मदद भी करते। यह बात कोई रहस्य नहीं कि प्रथम विश्व-युद्ध के समय यहूदी मुख्य हथियार डीलर थे।

अब यूरोप को अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए तीन चीजों की जरूरत थी- धन, जनसंख्या और...धर्म।

विश्व-युद्ध के बाद कैथोलिक चर्च की शक्ति बढ़ती चली गयी। पहली बात कि प्रोटेस्टेंट चर्च का बड़ा हिस्सा सोवियत के नियंत्रण में चला गया था, तो क्या बढ़ता? दूसरी बात कि कैथोलिक चर्च के पास धन भी था, और राजनैतिक शक्ति भी। तीसरी बात कि साम्यवाद को रोकने के लिए चर्च एक हथियार था। बल्कि एक समय तो इटली के चर्चों ने घोषणा कर दी कि साम्यवादियों का बहिष्कार करो। चौथी बात कि अमरीका और ख़ास कर यहूदियों के प्रभाव को रोकने में भी चर्च ने भूमिका निभायी। पाँचवी बात यह कि ईसाई जनसंख्या बढ़ाने या ‘बेबी बूम’ के पीछे भी चर्च था।

यूरोप की पुरानी पीढ़ी को देखता हूँ तो बड़े परिवार नजर आते हैं। सात-आठ भाई-बहन वाले। युद्ध से पहले यूरोप में परिवार नियोजन किया जा रहा था, और छोटे परिवार प्रचलित हो रहे थे। युद्ध के बाद तो फ्रांस में सबसे अधिक बिकने वाली चीजों में बच्चों के सामान थे। उन्होंने वाकई युद्धस्तर पर ही बच्चे पैदा किए। ज़ाहिर है, इतने लोग मरे थे, और इतना अधिक काम बचा था, कि उन्हें अगली पीढ़ी तैयार करनी ही थी।

रही बात धन की। वह नहीं था। पहले दो दशक तक यूरोप कुछ मानकों में गरीब ही रहा। बारह-तेरह साल के बच्चे फैक्टरी में नौकरी करने लगे थे। 1951 में इटली में हर नौ बच्चों में सिर्फ एक बच्चा तेरह वर्ष के बाद स्कूल गया। मैंने अपनी पिछली शृंखला में सोनिया गांधी के स्कूली जीवन की चर्चा की है। ग्रैजुएट तो गिने-चुने ही हुए, अधिकांश कामचलाऊ नौकरी लायक ही हुए। आप अगर 1945 से 1965 तक के नोबेल पुरस्कार की सूची देखें, तो उसमें ऑस्ट्रिया, फ्रांस जैसे देशों से कोई मिलेगा ही नहीं। जबकि उसके बाद नोबेल ही नोबेल हैं। यूरोप के नोबेल वाले अधिकांश यहूदी थे, जो वहाँ बचे ही नहीं थे। 

दरअसल, शून्य से राष्ट्र को उठाने के लिए लाखों ग्रैजुएट जरूरी भी नहीं, बल्कि कामकाजी मजदूरों और स्वावलंबी लोगों की जरूरत है। इस बात पर गांधी ने भी शिक्षा-पद्धति में जोर दिया, भले भारत गैजुएट पैदा करने की होड़ में वर्षों तक रहा। खैर, भारत तो बड़ा देश है और हर तरह के लोग मिल जाते हैं।

यूरोप के लोग दशकों तक युद्ध के भय से भी जीते रहे। उन्हें लगता रहा कि तीसरा विश्व-युद्ध भी होकर रहेगा। वह इसकी तैयारी भी करने लगे थे। यही कारण था कि सोवियत और अमेरिका के एटम बम योजना की सुन कर इंग्लैंड और फ़्रांस भी अपने एटम बम बनाने लगे। एटम बम एक गारंटी थी कि फिर कभी विश्व-युद्ध नहीं होगा। और ऐसा ही हुआ। तृतीय विश्व-युद्ध कभी नहीं हुआ।
(क्रमश:)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

यूरोप का इतिहास (16)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/06/16.html
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