“चाहे हम शहीद हो जाएँ, लेकिन हम हथियार नहीं डालेंगे”
- अब्दुल रशीद ग़ाज़ी, जुलाई, 2007
बुरके में हथियार लिए महिलाओं ने लाल मस्जिद की सुरक्षा कमान बना रखी थी। पाकिस्तान की सेना के लिए उन पर गोली चलाना धर्म के विरुद्ध था। मस्जिद की दीवारों पर कुरान की आयतें उकेरी हुई थी। आखिर यह एक इबादत की जगह थी। पाकिस्तान जैसे इस्लामी देश के लिए इसे ध्वस्त करना ऐसा पाप था, जिसके लिए पाकिस्तानी फौजी भी तैयार नहीं थे। वह इस द्वंद्व में थे कि अल्लाह को क्या जवाब देंगे।
इतना ही नहीं, ये बारह वर्ष से लेकर चौबीस-पच्चीस वर्ष के मदरसा विद्यार्थियों का अड्डा था, जो वाक़ई अपनी नजर में शिक्षा लेने ही आए थे। उनके पास स्पष्ट तर्क था कि पाकिस्तान सरकार अमरीका-परस्ती या ईसाई-परस्ती के कारण इस्लाम के ख़िलाफ़ हो गयी है। उनके अनुसार यह सरकार रास्ते से भटक गयी है, वे नहीं। वे दहशतगर्द नहीं, वे जिहादी हैं। धर्म के रक्षक हैं। लाल मस्जिद का यह वैचारिक द्वंद्व वृत्तचित्र ‘अमॉन्ग द बिलिवर्स’ में बेहतरीन तरीके से दिखायी गयी है।
यह घटना पाकिस्तान के इतिहास की एक ‘वाटरशेड’ घटना है। बल्कि विश्व इतिहास की। इसे दोहरा कर देखा जाए, विश्लेषित किया जाए, तो दूरगामी निष्कर्ष निकल सकते हैं।
3 जुलाई, 2007 को पाकिस्तान सेना ने लाल मस्जिद को घेर लिया, और लाउडस्पीकर पर मस्जिद खाली करने का अनुरोध किया गया। इसका जवाब मस्जिद की क़िलाबंदी से गोली चला कर दिया गया। अंदर सैकड़ों जिहादी टस से मस नहीं हो रहे थे। हालाँकि एक तेरह साल का किशोर भाग कर बाहर आने में कामयाब हुआ।
कुछ बुरका पहने महिलाएँ भी बाहर आयी, जिनमें एक बुरके में मौलाना अब्दुल अज़ीज़ ग़ाजी भी थे। उनको गिरफ़्तार कर लिया गया।
उसी समय परवेज़ मुशर्रफ़ एक दौरे पर जा रहे थे, जब उनके विमान पर रॉकेट दागे गए। वह बाल-बाल बच गए। चार दिन बाद इस ऑपरेशन सनराइज़ के कमांडर लेफ़्टिनेंट कर्नल हारून इस्लाम को ही उड़ा दिया गया। इसी से मालूम होता है कि आखिर वे कितने ताक़तवर हो चुके थे।
अब तक जनरल मुशर्रफ़ मस्जिद उड़ाने के लिए तैयार नहीं थे, लेकिन उन्हें यह निर्णय लेना पड़ा क्योंकि और कोई रास्ता नहीं बचा था। उन्होंने आख़िरी चेतावनी जारी की, और पाकिस्तान सेना के शीर्ष कमान्डो ऑपरेशन के लिए तैयार किए गए।
अमरीका ने पाकिस्तान को कुछ ड्रोन दिए थे, जो आकाश से मस्जिद की तस्वीरें लेने लगे, और उसकी सहायता से अंदर की तैयारी की पूरी जानकारी मिल गयी। कमान्डो मस्जिद के अंदर उतारे गए, और फिर शुरू हुई आर-पार की लड़ाई। यह भयावह मंजर था, जब मस्जिद के अंदर ही आत्महत्या दस्ते अपने शरीर में बम बाँध कर कमांडो पर कूद रहे थे। अब्दुल रशीद ग़ाज़ी को पहले टाँग में गोली मारी गयी कि वह आत्मसमर्पण कर दें, लेकिन मना करने पर गोली मार दी गयी।
11 जुलाई को मस्जिद एक पूर्णतया भग्न रक्तरंजित ढाँचे में बदल चुका था। ओसामा बिन लादेन ने एक ऑडियो संदेश भेजा, “अब्दुल रशीद ग़ाज़ी इस्लाम के लिए शहीद हुए। उनकी शहादत बेकार नहीं जानी चाहिए। हमारे खून का आखिरी कतरा पाकिस्तान की फौज से बदला लेगा।”
बिन लादेन स्वयं तो अपने सुरक्षित ठिकाने पर मौजूद रहा, लेकिन इस संदेश ने पाकिस्तान में जिहाद भड़का दिया। अगले एक वर्ष में तीन हज़ार से अधिक मौतें हुई। पाकिस्तान के सरकारी संस्थानों और सेना के ठिकानों पर हमले हुए। वज़ीराबाद में ‘तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान’ स्थापित हुआ जिसमें चालीस हज़ार जिहादी शामिल हुए।
इस भीषण युद्ध के बाद जनरल मुशर्रफ़ का समय खत्म हो रहा था। पाकिस्तान में लोकतंत्र की पुन: स्थापना होने वाली थी। बेनज़ीर भुट्टो लंदन से लौट कर चुनाव प्रचार कर रही थी, और जनता ‘जीए भुट्टो! जीए भुट्टो’ चिल्ला कर उनका स्वागत कर रही थी।
27 दिसंबर 2007 को रावलपिंडी के लियाक़त बाग में एक धमाका हुआ। तेईस लोग मारे गए, जिनमें एक बेनज़ीर भुट्टो की लाश भी थी। अस्पताल में उनके मृत शरीर में जान लाने की चेष्टा कर रहे डॉक्टर मुहम्मद ख़ान के समक्ष जैसे इतिहास लौट आया था। छब्बीस वर्ष पूर्व उनके पिता डॉक्टर सादिक ख़ान पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री लियाक़त अली ख़ान के शरीर पर कुछ ऐसे ही प्रयास कर रहे थे। उन्हें भी इसी बाग में गोली मारी गयी थी।
[शृंखला समाप्त]
धन्यवाद
प्रवीण झा
© Praveen Jha
पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 55.
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/06/55.html
#vss
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