बच्चे डॉक्टर की सुई देख कर डर जाते हैं, पर कुछ बाद में डॉक्टर के नाम से डर जाते हैं। पूर्वाग्रहों के मामले में अधिकांश लोग इन डरे हुए बच्चों जैसे ही होते है। वे सही विचारों से डरते हैं, ऐसे प्रमाणों से डरते हैं जिनका खंडन नहीं कर सकते। इसका आभास मिलने पर वे ऐसी पुस्तकों को पढ़ने से इनकार कर देते है जिनसे इस बात का अंदेशा रहता है कि उन्हें पढ़ने के बाद वे अपने मत पर अडिग नहीं रह पाएंगे। एक जमाना था कम्युनिस्ट केवल कम्युनिस्टों को पढ़ते थे, मार्क्स को छोड़ कर दूसरे दार्शनिकों को नहीं पढ़ते थे, आधुनिक विचारकों और साहित्यकारों को पूंजीवादी मनोवृत्ति से ग्रस्त मानते थे - ‘यदि न होते तो कम्युनिस्ट न हो गए होते!’ वे संस्कृत इसलिए नहीं पढ़ते थे कि पढ़ने पर प्रतिक्रियावादी हो जाएंगे। मेरे मित्र वामपंथी भी इतिहास और संस्कृति पर मेरी पुस्तकें पढ़ने से डरते या बचते हैं। डरते इसलिए हैं कि अपने इतिहास ‘ज्ञान’ पर कायम रहने के लिए यह जरूरी है। कम्युनिस्टों, नव-उपनिवेशवादियों, मुसलमानों, मिशनरियों को वही इतिहास चाहिए उनको अपने विस्तार के लिए चाहिए, प्रामाणिक इतिहास यदि इसमें बाधक है तो वे धमनभट्ठी में डाल देगे, अपने नव्यपुराण को ही इतिहास बना कर आंदोलन करेंगे। हिन्दुत्व के हिमायतियों को महाराणा प्रताप और वीर शिवाजी से आगे के इतिहास की जरूरत नहीं, बाकी काम वे जयश्रीराम से चला लेगे। किताब की जरूरत नहीं, विचार से नानाम्ंडे मतिर्भिन्ना की नौबत आ जाती है और उससे अनुशासन भंग हौता है। वर्णवादी समाज की समस्या जाति नहीं, जातियोंं की अनन्तता है - जाति जाति में जाति है ज्यों केले के पात और कमाल यह कि हर एक पत्ता घेरा बना कर जड़ों तक उतरा हुआ। सबको अपने काम का पुराण चाहिए। पुराणों की ऐसी धमाचोकड़ी दुनिया में अन्यत्र कहीं नहीं मिलेगी जिसमें पढ़े लिखे भी सोचने को असंभव बना दें। विचारहीनता का यह चीखता हुआ सन्नाटा दो प्रतिक्रियाएं जगाती है -
(1) यहा कुछ नहीं बदल सकता। जैसा चल रहा है चलते रहने दो;
(2) बदलेंगे नहीं तो सड़ेंगे,
क्योंकि परिवर्तन तुम न करोगे तो प्रकति करेगी। इसलिए हमारे देश को सही सोच और सही इतिहास की जितनी जरूरत है, उतनी दुनिया के किसी देश के लिए नहीं, इसलिए यदि इतिहास नहीं है, पुराणों के ही दो रूप हैं तो पुराणों को मथकर ही इतिहास निकालना होगा। यह सोच ही वह ऊर्जा पैदा करती है जिसे लेकर मैं फेस-टु-फेस हो जाता हूं।
कोई दूसरा मुझसे सीखे या न सीखे, मैं आप लोगों से तब भी सीखता हूँ जब आपके पास कहने-सिखाने को कुछ नहीं होता, बौखलाने के लिए छोटी से छोटी बात होती है। तर्क तो तथ्यों पर खड़े होते हैं, तथ्य ही नहीं हैं क्योंकि मूल ग्रन्थों को पढ़ा ही नहीं। सुई लगाने वाला डॉ. आपकी रक्तप्रणाली में दवा पहुंचाना चाहता है। सुई का दंश नहीं। यदि संदेह हो कि इसका हाथ सधा नहीं तो वह आला, दवा की शीशी और सुई आपके हवाले कर सकता है। मैं इस बार जवाब न दूंगा, तथ्य आप को सौप कर सवाल करूंगा कि आप किसे सही और सम्मान जनक मानते है, आप का जो भी उत्तर होगा हम स्वीकार करेंगे:
यह मेरा चुनाव नहीं था कि मैं किस देश, धर्म, जाति में पैदा हो। इसपर न मुझे गर्व है न शर्म है। जिस भी देश, जाति या धर्म और कुल में पैदा हुआ उसके पूर्वजों ने जो भी अच्छा या बुरा किया उसमें न मेरा हाथ था न उस पर मेरा वश, इसलिए उसका न मुझे श्रेय है न दोष। आप इस पर अलग राय रख सकते हैं।
मेरा दायित्व - यश-अपयश वहां से आरंभ होता है जहां से मैं सोचने और कुछ करने योग्य होता हूं। उसके बाद मैंने अपने परिवार, जाति, देश, धर्म की पूजा नहीं किया, सोचता कि किसी के लिए क्या कुछ किया जा सकता हैं। कुछ करने के लिए जरूरी होता है यह समझना कि कमी क्या रह गई है और इसे कितना सुधार करना मेरे वश का है, फिर उसे पूरा करने का प्रयत्न करना। पूजा के लिए जो कुछ जैसा है उसे पूर्ण मान कर बैठ जाना और हिसाब लगाना कि किस तरह दूसरों में भी श्रद्धा भाव पैदा करके चढ़ावा चढ़वाया और फिर आराम से भोग लगाया जा सकता है। वंदेमातरम् कह कर भक्ति जताने वाले अपने देश का साहित्य, दर्शन, इतिहास कुछ नहीं जानते, मुझे याद नहीं कब मेरे मुंह से वंदेमातरम् निकला था, पर वंदना के इस तरीके को मैंने होश संभालते आरंभ कर दिया था। आप को यह गलत लगता हो तो बताइएगा। अपराध स्वीकार कर लूंगा।
इतिहास की खोज बचपन में ही अपने गांव से आरंभ किया। गांव का नाम गगहा, पर इस नाम का कोई मुहल्ला नहीं। एक बे चिरागी गांव ‘बांसगगहा’ जिसमें खेताें मे ठीकरे भरे थे और जिसका सिलसिला एक मीटर लंबा दो फर्लांग चौड़ा। बस्ती उससे हट कर दक्षिण में जिसके मुहल्ले मेहदिया, बड़कापुरा, मंझरिया, महराजपुर, कुनेलपुर। ठीकरों वाले विस्तार में एक पोखरा जिसे भितरी का पोखरा कहते, पोखरा गांव के बाहर, नाम भितरी का। उसी में बीस तीस फुट ऊंचा पुराने महल का मलबा जिसके कारण उसके आसपास के इलाके को भी कोटिया के नाम से जानते। इन समस्याओं के बीच से निकला पुराना इतिहास भाषाविज्ञान के साथ। बांस का (चाहे दिल्ली का नया बांस, या बांसबरेली, या बांसगांव या बांसगगहा) का अर्थ है बास, बस्ती तो गगहा बांस गगहा से निकला। पुरानी बस्ती के भीतर था वह पोखरा जिससे मिट्टी निकाल कर मकान बने थे और पूरा गांव एक साथ आग में जल कर खाक हो गया था।
पर इतिहास के आदि में एक हृदयविदारक घटना थी। चौरासी गावों का लगभग सोलह वर्ग किलोमीटर के थारुओं से सतासी नरेश (रुद्रपुर) को लगान नहीं मिलती थी। उसका एक भूभौतिक कारण राप्ती की धारा में आया बदलाव था। इस इलाके को रुद्रपुर ने दहेज में मेरे ग्राम के आदि पुरुष शक्त सिंह को दे दिया था जो तब फैजाबाद के बिड़हर के ‘राजवंश’ के थे। वह इस पर अधिकार करने के लिए आए और एक झोपड़ा डाला तो उन्होंने उसे उजाड़ कर कुएं में फेंक दिया, इसके बाद उन्होंने उनसे मेल करके एक मकान बनवाया और उसके गृहभोज के आयोजन के लिए बिड़हर से डोलियाें में हथियार भर कर कहांरों के छद्म में सैनिक आए। आदिवासियों को भोज के लिए निमंत्रित किया गया। जब वे शराब से धुत हो गए तो उन पर हमला करके काट डाला और फिर जो बचे रह गए वे उस इलाके को छोड़कर भाग गए। मेरे गांव के आदि पुरुष बाबा शक्त सिंह ‘राज्य’ को सुदृढ़ करके तीर्थयात्रा पर वैद्यनाथ धाम गए। वहां के आदिवासी राजा ने घोषित कर रखा था कि उसके पहलवान को जो पराजित कर देगा उससे वह अपनी पुत्री का विवाह करें देंगे। इन्होंने युद्ध किया औरअखाडे़ में उसकी एक टांंग को पांव से दबाकर दूसरे को तान कर चीर दिया और वह वहीं मर गया। फिर विवाह करके वह वहीं बस गए। और संतानें पैदा कीं। मुझे अपने आदि पुरखे के कुकृत्य पर ग्लानि अनुभव होती है। उनके पहले काम को मैं कायरतापूर्ण विश्वासघात और दूसरे को क्रूरतापूर्ण और अमानवीय। इस इतिहास पर परदा डाल कर या इस पर गर्व करके मानसिक रूप में उसी कुकृत्य का भागी बनूंगा। इसे कुकृत्य मान कर ही उस पाप और ग्लानि से मुक्त अनुभव कर सकता हूं। मेरी सहानुभूति अपने सगों के प्रति नहीं उन थारुओं के प्रति अधिक है। मैं सोचता हूं एक किलोमीटर फैले पूरे गांव का जलना जिसके भीतर मिट्टी निकालने से बने दो पोखरे थे किसी योजनाबद्ध बदले की कार्रवाई का परिणाम रहा होगा और इसके लिए उन थारुओं के वंशधरों को उत्तरदायी मानता हूं और उनके इस कृत्य की प्रशंसा करता हूं। यदि कोई कहे कि मुझमें कुल गौरव का अभाव है तो मैं कहूंगा जहां गौरव का ही अभाव हो उस पर गौरव अनुभव करने वाला तो मोम से तराश कर ही बनाया जा सकता है।
जब कोई कोई व्यक्ति कोई गंभीर अपराध करता है तो उसका बचाव करने वाला उसका वकील कहता है इसनें होश हवास में नहीं, अमुक परिस्थितियों में - नशे में था, पागलपन के दौरे पड़ते हैं, अमुक कारणों से उत्तेजित हो गया था, या अमुक दबाव में था, या यह फर्जी कहानी है, इसे झूठमूठ फंसाया गया है. जिससे उसे निरपराध सिद्ध किया जा सके या अपराध की गुरुता कम की जा सके। इतिहासकार और मनोचिकित्सक जानता है कि मनुष्य या जानवर तक परिस्थितियों के दबाव में उग्र आचरण करता है। केवल एक खास किस्म के ब्राह्मण ही कहते हैं कि हमारा वकील हमारा अपमान कर रहा है। पुराणों के हमारे चरित्र ऐतिहासिक हैं, उन्होंने जो किया वह सचमुच किया, इसी के कारण वे हमारे ऋषि हैं, वंदनीय हैं, अवतारी पुरुष हैं। वे अवतार हों या नहीं, मैं ऐसे सभी ब्राह्मणों को अवतार मानता हूं, ईश्वरत्व का नहीं उसका जिसका नाम भी वे ही बता सकते हैं। प्रश्न केवल
परशुराम का नहीं, पूरी वंश परंपरा का है।
अपने अध्ययन और चिंतन से यह मानता था कि आगरिया जनों की तरह आग से पैदा होने का दावा करने वाले अंगिराजन और भार्गवों का संबंध धातु विद्या के जनकों से है। आगे चलकर वे समस्त प्रौद्योगिकी में दक्ष हो जाते हैं। इनके कारनामे वैदिक जनों को जादू के खेल जैसे लगते हैं। इसी के आधार पर बाद में जादू, मंत्र और रोग निवारण का एक नया वेद तैयार होता है- अथर्ववेद जिसकी भाषा से पता चलता है यह बहुत बाद की रचना है और इसको वेद की आप्तता दिलाने के लिए ऋग्वेद के कई सूक्त यथातथ्य उसमें डाल दिए जाते हैं।
जो भी हो जब मैं कहता हूं कि मैं अपने ऐतिहासिक आदि पितर का वंशधर होते हुए भी उनके जघन्य कामों पर लज्जित अनुभव करता हूं तो इसका अर्थ है
(1) मैं उनके निंदनीय कामों का समर्थन नहीं करता;
(2) मैं उनके ऐसे कामों का समर्थन करने के कारण उनका सहअपराधी नहीं बनना चाहता;
(3) इन मामलों में वे मेरे आदर्श नहीं है; और
(4) अपने जीवन में न तो मैं ऐसा गर्हित काम कर सकता हूं, न करा सकता हूंं, न कोईकरे तो उसे सहन कर सकता हूँ।
परंतु जब आप उन्हें ऐतिहासिक और आस्था से जुड़ा मानते हैं तो आप केवल इतने से अपना परिचय तालिकाबद्ध रूप में कल।
(क्रमशः)
भगवान सिंह
(Bhagwan Singh)
परशुराम (2)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/06/2_18.html
#vss
No comments:
Post a Comment