फिर जाने क्या हुआ? चार्ल्स डिकेन्स को पढ़ा, डेविड कॉपरफील्ड, ओलिवर ट्विस्ट्, टोनू बंगे! और गोर्की की “माँ” ने आसमान से उठाकर धरती पर पटक दिया. चेखोव, एमली ज़ोला, गोगोल, टॉल्सटॉय, दोस्तोयेव्सकी, मोपासां, ख्वाबों के सारे क़िले अड़-ड-ड़ा-ड धम्म. और मैं फिसलकर उस फूस के बँगले में आन गिरी, जहाँ हम अलीगढ़ में लालडंगी के किनारे रहते थे. यह बँगले कच्ची ईंटों के थे और कील ठोंको तो भुरभुर करके कच्ची मिट्टी बहने लगती थीं. छप्पर में कबूतरों के घौंसले से से बीट टपका करती थी. चमगादड़ें लटकती थीं और कमरों के फर्श कच्चे थे. आँधी चलती थी तो घर में बगूले नाचने लगते. न बिजली थी, न नल. भिश्ती सिर पर लाल झाड़न डालकर पानी भरने आता था. बान के पलंगों पर दरी और मैली खद्दर की चादरें और चीकट तकिये. अम्मा ने बारह गज का फर्शी पायजामा छोड़कर पाँच गज की धोती पहननी शुरू कर दी थी. एक जमाना था जब घर में बीस नौकर थे. जो भी गरीब भूखा-नंगा आता, अम्मा उसे पनाह दे देतीं. फिर पेंशन के बाद अब्बा मियाँ ने किफायत की कैंची चलाई और सिर्फ अलीबख़्श, उसकी बीवी, शेखनी बुआ जो खाना पकाती थी और कोचवान और उसकी बीवी रह गये क्योंकि अब भी दो घोड़े एक भैंस थी.
शायद मिसेज इम्तेयाज अली के शायराना माहोल से मुझे जलन पैदा हो गयी. अपने खानदान में रूमानी माहोल वैसे भी फल-फूल नहीं सकता है और मैंने सोच-विचार के बाद अपनी पहली कहानी ‘बचपन’ लिखी. घर में सिर्फ “तहज़ीबें-निसवाँ” आता था. मैंने वह कहानी भेज दी. कहानी वापस आ गयी और साथ में इम्तेयाज अली ताज के पिता और “तहज़ीबे-निसवाँ” के सम्पादक मुमताज़ अली साहब का डाँट-फटकार भरा पत्र. उस कहानी में मैंने अपने और श्रीमती इम्तेयाज अली के बचपन की तुलना की थी. विरोध का बिंदु यह था कि मुझे क़िरत में (लयबद्ध) कुरआन शरीफ पढ़ाने के लिए मोलवी साहब की मार पड़ी थी, कंठ से “एैन” (उर्दू वर्ण) साफ नहीं निकलता था. ज्यादा कोशिश करने पर उल्टी हो जाती थी. उन्होंने लिखा कि मैंने क़िरत का मज़ाक उड़ाकर अपनी अधार्मिकता का सबूत दिया था.
यह लेख, बाद में मेरी कहानियाँ छपने लगीं, तब ‘साफी’ में छपा और पसन्द किया गया. मुझे अज़ीम भाई की रोमांटिक छेड़-छाड़ से भरी कहानियों से भी चिढ़ लगने लगी. वह झूठी थीं, उनमें उनकी व्यक्तिगत ज़िन्दगी की पीड़ा का अक्स भी न था. वह दूसरे भाइयों की शोखी, शरारत और ज़िंदादिली को अपना बना कर लिखते थे. मेरी ये हालत थी कि खिसयानी बिल्ली खम्भा-खसोटे. सच बोलने पर हमेशा मेरी मिट्टी-पलीद की जाती थी. लेकिन जब बात अब्बा मियाँ तक जाती तो वह फैसला मेरे हक़ में करते, बड़ी आपा जो उन्नीस बरस की उम्र में विधवा हो गयी थीं. अलीगढ़ के उच्च वर्ग में खासतौर पर ख्वाजा परिवार से बहुत प्रभावित थीं. और ख्वाजा परिवार की औरतों से मेरी पलभर भी न पटी. मैं सिरफिरी, बड़बोली, मुँहफट, बदतमीज़ थी. मुझ पर पर्दा लागू हो चुका था. मगर जुबान नंगी तलवार, किसी के बस में नहीं.
मेरे इर्द-गिर्द धोखा रचा हुआ नज़र आता था. देखने में शर्मिली और इज्जतदार बेटियाँ छुपकर गुसलखानों (नहान घर) और अँधेरे कोनो में रिश्तेदार नौजवानों से छीन-झपट और चूमा-चाटी करती थीं और बड़ी शरीफ कहलाती थी. मुझ जैसे बे-नथे बैल में कौन लड़का दिलचस्पी लेता. मैंने इतना कुछ पढ़ा था कि अगर बहस छिड़ जाती तो मैं इन नौजवानों को धोंसा लेती, जो किताब की सूरत से भी काँपते थे और सिर्फ मर्द होने के नाते खुद को ऊँचा आंकते थे.
फिर मैंने चोरी-छिपे “अंगारे” पढ़ी. रशीद आपा (प्रख्यात प्रगतिशील लेखिका डॉ. रशीद जहाँ) ही मुझे एक ऐसा व्यक्तित्व नज़र आया, जिन्होंने मुझ में आत्मविश्वास जगाया. मैंने उन्हें अपना गुरु मान लिया. अलीगढ़ की छोटी ज़हर घुली फिज़ा में वह बड़ी बदनाम थी. मेरी साफगोई को उन्होंने सराहा और फिर मैंने उनकी बतायी हुई किताबें चाट डालीं. फिर मैंने लिखना शुरू किया और मेरा ड्रामा “फसादी” में छपा. उनके बाद और कहानियाँ लिख लीं और कहानी रद्द नहीं हुई. एकदम मुझ पर ऐतराज होने लगे. लेकिन पत्रिकाओं से मेरी कहानियों की माँग बढ़ने लगी. मैंने विरोध की कोई परवाह नहीं की. मगर मैंने जब ‘लिहाफ’ लिखा तो बम फूट पड़ा. साहित्यिक अखाड़े में मेरे पुर्जे उड़े. मेरे समर्थन में भी कलम उठाई गयी.
उस दिन से मुझे अश्लील लेखिका का नाम दे दिया गया. ‘लिहाफ’ से पहले और ‘लिहाफ’ के बाद मैंने जो कुछ लिखा किसी ने उस पर ध्यान नहीं दिया. मैं सेक्स पर लिखने वाली अश्लील लेखिका मान ली गयी. ये तो अभी कुछ वर्षों से युवा पाठकों ने मुझे बताया कि मैंने अश्लील साहित्य नहीं, यथार्थ साहित्य दिया है. मैं खुश हूँ कि जीते-जी मुझे समझने वाले पैदा हो गये. मंटो को तो पागल बना दिया गया. प्रगतिशीलों ने भी उस का साथ न दिया. मुझे प्रगतिशीलों ने ठुकराया नहीं और न ही सिर चढ़ाया. मंटो खाक में मिल गया क्योंकि पाकिस्तान में वह कंगाल था. मैं बहुत खुश और सन्तुष्ट थी, फिल्मों से हमारी बहुत अच्छी आमदनी थी और साहित्यिक मौत या ज़िन्दगी की परवाह नहीं थी. और वैसे में प्रगतिशीलों की चमची बनी हुई थी, बड़े ज़ोर-शोर से क्रान्ति ला रही थी.
‘लिहाफ’ का लेबल अब भी मेरी हस्ती पर चिपका हुआ है जिसे लोग प्रसिद्धि कहते हैं, वह बदनामी के रूप में इस कहानी पर इतनी मिली कि उल्टी आने लगी. ‘लिहाफ’ मेरी चिढ़ बन गया. जब मैंने ‘टेढ़ी लकीर’ लिखी और शाहिद अहमद देहलवी को भेजी, तो उन्होंने मुहम्मद हसन असकरी को पढ़ने को दी. उन्होंने मुझे राय दी कि मैं अपने उपन्यास की हीरोइन को ‘लिहाफ’ ट्रेड का बना दूँ मारे गुस्सा के मेरा खून खौल उठा. मैंने वह उपन्यास वापस मँगवा लिया. हालाँकि किताबत शुरू हो गयी थी. यह उपन्यास मैंने नजीर अहमद को दे दी. जब लाहौर हिन्दुस्तान का एक शहर था.
‘लिहाफ’ ने मुझे बहुत जूते खिलाये थे. इस कहानी पर मेरी और शाहिद की इतनी लड़ाइयाँ हुईं कि ज़िन्दगी युद्धभूमि बन गयी. मगर मुझे ‘लिहाफ’ की बड़ी कीमत मिली. सारी कोफ़्त मिट गयीं. बहुत दिन बाद अलीगढ़ गयी, वह बेगम जिन पर मैंने कहानी लिखी थी, उनके खयाल से मेरे रोंगटे खड़े होने लगे. लोगों ने उन्हें बता दिया था कि ‘लिहाफ’ उन पर लिखी गयी है. एक दावत में उनसे सामना हो गया. मेरे पैरों तले से ज़मीन खिसक गयी, उन्होंने अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से मेरी तरफ देखा और फूल की तरह खिल उठी. भीड़ चीरती हुई लपकीं और मुझे गले लगाया. मुझे एक तरफ ले गयी. और बोलीं…”पता है, मैंने तलाक लेकर दूसरी शादी कर ली है. माशा अल्लाह मेरा चाँद-सा बेटा है.” और मेरा जी चाहा किसी से लिपट कर ज़ोर-ज़ोर से रोऊँ. आँसू रोके न रुके, मगर वे कहकहे लगा रही थी. उन्होंने मेरी शानदार दावत की. मैं मालामाल हो गयी. उनका फूल-सा बच्चा देखकर मुझे ऐसा लगा, वह मेरा भी कोई है, मेरे दिमाग़ का टुकड़ा, मेरे मस्तिष्क की जीती जागती सन्तान, मेरी कलम का बच्चा! और मैंने जान लिया कि चट्टान में भी फूल खिल सकते हैं. दिल के खून से सींचने की शर्त है.
चलते-चलते बस एक बात और…
एक साहब से मैंने पूछा, “लिहाफ अनैतिकता फैलाने वाला है?”
“एकदम!” वह साहब बोले.
“वह क्या है?” मैंने पूछा.
“इस कहानी को पढ़कर काम-भावना पैदा होती है.”
“अय हय, क्या लिहाफ ओढ़ने को जी चाहता है?”
“नहीं, असल में बेगम बहुत सेक्सी हैं जालिम बला की सुन्दर है, ख़ुशबू में डूबी हुई. साँचे में ढला बदन, गर्म-गर्म होंठ, नशीली आँखें बस दहकता शोला, छलकता जाम है.”
“तो फिर?”
“शैतान उकसाता है.”
“क्या कहता है शैतान?”
“कि…कि उसके साथ…”
“शैतान बड़ा अक्लमन्द है. यही तो मैं चाहती थी कि कोई माई का लाल उसे रब्बू चुड़ैल के जंगल में आज़ाद करके अपने धड़कते हुए सीने से लगाकर, उस बदनसीब हसीना के जन्म-जन्म की प्यास बुझा दे. प्यासी चिड़िया को पानी पिलाना बहुत बड़ा सबाब है.”
“बेगम का पता क्या है?” वह साहब मुस्कुराये.
“आप बड़ी देर से पैदा हुए. वह तो अब अल्लाह की मेहरबानी से दादी बन गयी हैं. बरसों हुए एक शहजादा उन्हें काले देव के जादुई महल से आज़ाद करके ज़िन्दगी की बहारों से भरी फुलवारी में ले उड़ा.”
दूर किसी फ्लैट में नैयरा नूर ‘फैज’ की नज़्म गा रही थी…
“उन ब्याहताओं के नाम
जिन के बदन
बे-मुहब्बत, रियाकार (फरेबी) सेजों पर सब-सजकर
उकता गये हैं.”
और मैं सोचने लगी. कहाँ है भारत की वह महान नारी, वह पवित्रता की देवी सीता, जिस के कमल जैसे नाजुक पैरों ने आग के शोलों को ठंडा कर दिया. और मीराँबाई जिसने बढ़कर भगवान के गले में बाहें डाल दीं. वह सती सावित्री जिसने यमदूत से अपने सत्यवान की जीवन-ज्योत छीन ली. रज़िया सुल्ताना जिसने बड़े-बड़े शहंशाहों को ठुकराकर एक हब्शी गुलाम को अपने मन-मन्दिर का देवता बनाया. वह आज लिहाफ में दुबकी पड़ी है या फोर्स रोड पर धूल और खून की होली खेल रही थी.
(समाप्त)
© अनन्या सिंह
#vss
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