“नहीं असलम साहब. यह भी कोई बात हुई कि जुर्म किया, शरीफ इंसान गुमराह हुए और माफी माँग के साफ निकल गये. मैंने अगर जुर्म किया है और वह साबित हो जाता है तो सिर्फ सजा ही मेरे ज़मीर (अन्तरात्मा) को शान्ति दे सकती है.” मैंने व्यंग्य से नहीं, सच्चे दिल से कहा.
“हठधर्मी न करो, माफी माँग लो.”
“सजा हुई तो क्या होगा, जुर्माना.”
“साथ में बदनामी होगी.”
“अरे बदनामी तो हो चुकी. अब क्या कसर बाकी है. यह मुकदमा तो कुछ भी नहीं. जुर्माना कितना होगा?” मैंने पूछा.
“अरे यही कोई दो-तीन सौ!” शाहिद साहब बोले.
“पाँच सौ भी हो सकता है.” असलम साहब ने डराया.
“ब…स?”
“बहुत रुपया आ गया है?” असलम साहब चिढ़ गये.
“आपकी दुआ है और अगर न भी होता तो क्या आप मुझे जेल जाने से बचाने के लिए पाँच सौ न देंगे. आपकी गिनती तो लाहौर के रईसों में होती है.”
“जुबान बहुत चलती है.”
“मेरी अम्मा को भी यही शिकायत थी. कहती थीं… बस जेब चलैय्यु, रोटी खैय्यु.” बात हँसी में टल गयी. मगर थोड़ी देर बाद फिर वही बात कि माफी माँग लो. जी चाहा अपना और उनका सिर फोड़ लूँ. मगर दम घोटे बैठी रही.
“फिर एकदम बात बदलकर बोले, “तुमने “दोज़खी” क्यों लिखा.”
मेरे दिमाग में एक धमका-सा हुआ.
“तुम कैसी बहन हो कि तुमने अपने सगे भाई को दोज़खी (नारकीय दंड भोगने वाला) लिखा.”
“वह दोज़खी थे या जन्नती (स्वर्ग में जाने वाला), मेरा जो जी चाहा, मैंने लिखा. आप कौन होते हैं.”
“वह मेरा दोस्त था.”
“वह मेरा भाई था.”
“लानत है ऐसी बहन पर!”
मैंने आज तक नहीं बताया कि मैंने ‘दोज़खी’ लिखा था तो मेरे ऊपर क्या बीती थी. मैं खुद किस ‘दोज़खी’ के शोलों से गुज़री थी. मेरा क्या कुछ नहीं जलकर राख हुआ था. रात के दो बजे थे जब मैंने यह लेख खत्म किया था. कैसी डरावनी रात थी. समुन्दर घर की सीढ़ियों तक चढ़ आया था. जब तक अहाते की दीवार नहीं बनी थी. मुझ पर अजीब पागलपन-सा छाया रहा था. जो कुछ मैंने लिखा था, वह चारों तरफ सिनेमा की रील की तरह चल रहा था. मैंने लैंप बुझाया तो दम घुटने लगा. जल्दी से फिर जला दिया. अँधेरे में डर लग रहा था. मुझे वह कब्र याद आ रही थी. जिसे देखकर आने के बाद मैं महीनों अकेले कमरे में नहीं सो पाती थी. अकेले पलंग पर मुझे डर लगता था. मैं अपने साथ अपनी छोटी-सी खालाज़ाद (मौसेरी) बहन को सुलाने लगी थी. जोधपुर से मुझे डर लगने लगा था. इसलिए बम्बई भाग आयी. दस मीनारों में से एक ढह गया था. इस शून्य को कौन नाप सकता था.
मैंने कोई जवाब नहीं दिया. कमरे में जाकर अपना बक्स बन्द किया और सुल्ताना को फोन किया कि फौरन आ जाओ और मुझे जबरदस्ती ले जाओ. अगर असलम साहब रोकें तो बुरा मानकर खूब बिगड़ना. सुल्ताना ने पूछा, “क्या बात है, मैं पाँच बजे छुट्टी होते ही पहुँचूँगी.”
“तब तक एकाध खून हो जायेगा. तुम फौरन आओ.”
सुल्ताना आ गयी. मगर असलम साहब ने कह दिया कि मैं नहीं जा सकती. सुल्ताना ज़िद करती जाती थी. और मैं इस ड्रामे पर हँस-हँस कर बेहाल हुई जा रही थी. मैं सुल्ताना के साथ भागी.
पेशी के दिन हम कोर्ट में हाज़िर हुए. और वो गवाह पेश हुए जिन्हें ये साबित करना था कि मंटो की कहानी ‘बू’ और मेरी कहानी ‘लिहाफ’ अश्लील हैं. मेरे वकील ने मुझे समझा दिया था कि जब तक मुझसे सीधे न सवाल किये जायें मैं मुँह न खोलूँ. वकील जो मुनासिब समझेगा, कहेगा. पहले ‘बू’ का नम्बर आया.
“यह कहानी अश्लील है?” मंटो के वकील ने पूछा.
“जी हाँ.” गवाह बोला.
“किस शब्द में आपको मालूम हुआ कि अश्लील है?”
गवाह: शब्द “छाती!”
वकील: माई लार्ड, शब्द “छाती” अश्लील नहीं है.
जज: दुरुस्त!
वकील: शब्द “छाती” अश्लील नहीं.
गवाह: “नहीं, मगर यहाँ लेखक ने औरत के सीने को छाती कहा है.” मंटो एकदम से खड़ा हो गया, और बोला “औरत के सीने को छाती न कहूँ तो मूँगफली कहूँ.”
कोर्ट में क़हक़हा लगा और मंटो हँसने लगा. “अगर अभियुक्त ने फिर इस तरह का छिछोरा मज़ाक किया तो कंटेम्पट ऑफ कोर्ट के जुर्म में बाहर निकाल दिया जायेगा. या फिर सज़ा दी जायेगी.”
मंटो को उसके वकील ने चुपके-चुपके समझाया और वह समझ गया. बहस चलती रही और घूम-फिरकर गवाहों को बस एक “छाती” मिलता था जो अश्लील साबित हो पाता था.
“शब्द “छाती” अश्लील है, घुटना या केहुनी क्यों अश्लील नहीं है?” मैंने मंटो से पूछा.
“बकवास” मंटो फिर भड़क उठा.
(जारी)
© अनन्या सिंह
#vss
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