धर्म कोई राष्ट्र नहीं होता। इसकी कोई जमीन नहीं होती। लेकिन, धर्म का एक मूल-स्थान तो होता है। जैसे समकालीन हिन्दू, बौद्ध, जैन, सिख का मूल भारत में, और पारसी, ईसाई, इस्लाम और यहूदी धर्मों का पश्चिम एशिया में। धर्मग्रंथों में भी मूल स्थान और वहाँ की कथाओं की चर्चा होती है, जिसे उसके अनुयायी नियमित पढ़ते हैं या सुनते हैं। हर जापानी बौद्ध की इच्छा होती है कि बोधिवृक्ष के दर्शन हो जाएँ। लेकिन, क्या उनकी कभी यह इच्छा भी हो सकती है कि बोधगया-राजगीर-नालंदा आदि पर कब्जा कर लें, क्योंकि यह उनके धम्म की जमीन है?
यहूदियों का मूल स्थान जेरूसलम रहा, वह पूरी दुनिया में पसरते चले गए। यूरोप में, रूस में, अमरीका में, कुछ भारत में भी। पश्चिम एशिया में उनकी मामूली जनसंख्या ही बची रही। मुमकिन है यहूदी अवसरों की तलाश में भी प्रवासित हुए हों, क्योंकि यह इलाका यूँ भी रेगिस्तान और दलदली जमीन ही थी। इस्लाम के आने से सदियों पहले ही अधिकांश यहूदी पश्चिम एशिया छोड़ कर जा चुके थे। ऐसी मान्यता है कि 70 ई. में रोमन साम्राज्य ने यहूदियों को जड़ से उखाड़ फेंका, और उसके बाद वह जेरूसलम से गायब ही हो गए। यहूदी भी इस बात को इतिहास में पढ़ते रहे, लेकिन यह सब पढ़ते-पढ़ते हज़ार वर्ष निकल गए। उन्होंने कभी वहाँ लौटने का ख़ास सोचा नहीं। वे जहाँ भी थे, ज्ञान और धन से संपन्न लोगों में थे, तो क्यों सोचते?
अठारहवीं-उन्नीसवीं सदी में यहूदियों को संगठित होने की इच्छा जगी। एक धार्मिक राष्ट्रवाद जन्मा, जिसे सियोनवाद कहा गया। यह शब्द यूदावाद (यहूदी) से भिन्न था। यह ‘एक धर्म-एक राष्ट्र’ वाली बात थी। अगर भारत के परिप्रेक्ष्य में देखें, तो अक्सर हिंदूवाद (हिंदूइज्म) और हिंदुत्व (हिंदू राष्ट्रवाद) को इन दो फलकों में देखा जाता है। हिन्दू तो हज़ारों वर्षों से अपने मूल स्थान पर कायम ही हैं, वे यहूदियों की तरह कभी पलायित नहीं हुए। इसलिए, इसकी सियोनवाद से तुलना नहीं।
सियोन जेरूसलम की एक पहाड़ी है, जहाँ यहूदी अपना केंद्र देखते। कुछ यहूदी उस इलाके में जाकर बस भी गए। उनके पास धन तो था ही, जमीन खरीद ली, और धार्मिक केंद्र स्थापित कर लिए। लेकिन, यूरोप और अमरिका के संपन्न पढ़े-लिखे यहूदी वहाँ जाकर क्या करते? वे बस इस सियोनवाद को नैतिक समर्थन देते रहे कि हाँ! हमारी एक जमीन वहाँ रहे। उनके पास सैन्य ताकत नहीं थी, मात्र कलम और धन की ताकत थी।
प्रथम विश्वयुद्ध के बाद जब ब्रिटिश सेना ने ऑटोमन साम्राज्य को हरा कर जेरूसलम पर कब्जा किया, तो जनरल एलनबी ने कहा, “आज जाकर धर्मयुद्ध खत्म हुआ”।
जेरूसलम तो ईसाई धर्म का भी मूल-स्थान था। इस कारण जनरल एलनबी जब वहाँ पहुँचे तो घोड़े से उतर कर पैदल चलने लगे और इस पवित्र भूमि को नमन किया। यह मुसलमान-बहुल जमीन अब अंग्रेज़ों के कब्जे में थी। लेकिन, धर्मयुद्ध अभी खत्म नहीं हुआ था। उस समय तक वहाँ की दस प्रतिशत से अधिक जनसंख्या यहूदी हो चुकी थी। यह बात अरबी मुसलमान भी ग़ौर करने लगे थे।
जेरूसलम के तीनों हकदार आ चुके थे। एक के पास संख्या थी, एक के पास बल और एक के पास बुद्धि। धर्मयुद्ध तो अभी शुरू होने को था।
(क्रमश:)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
यूरोप का इतिहास (2)
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