सिने गीतकार साहिर लुधियानवी की ज़िंदगी एक खुली किताब की तरह है। प्रेम पत्र लिखने के जुर्म में जिस कॉलेज से साहिर को निकाला गया था लुधियाना के उसी गवर्मेंट कॉलेज में एक दिन साहिर की आदमक़द तस्वीर लगाई गई। दीवार पर उनकी नज़्म सजाई गई। कॉलेज के सभागार का नाम साहिर अॉडिटोरियम रखा गया। बतौर ख़ास मेहमान सन् 1970 में साहिर वहां पधारे और "ऐ नई नस्ल तुझको मेरा सलाम" नज़्म पढ़कर जश्न को यादगार बनाया।
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अब्दुल हई उर्फ़ साहिर और वो लड़की दोनों एक दूसरे को चाहते थे। साहिर ने नज़्म की शक्ल में उस लड़की (ऐश कौर) को एक ख़त लिखा। लड़की अमीर ख़ानदान की थी। दूसरे मज़हब की थी। उसके घर वालों को पता चल गया। नतीजा ये हुआ कि कॉलेज प्रशासन ने साहिर को कॉलेज से निकाल दिया। अमीर बाप के ग़रीब बेटे साहिर उस समय अपनी मां के साथ किराए के घर में रहते थे। साहिर अपनी मां के साथ लाहौर चले गए। सन् 1943 में कॉलेज से निकाले जाने पर साहिर ने एक नज़्म लिखी थी। उस नज़्म की आख़िरी लाइनें हैं-
इस सर ज़मीं पे आज हम इक बार ही सही
दुनिया हमारे नाम से बेज़ार ही सही
लेकिन हम इन फ़ज़ाओं के पाले हुए तो हैं
गर यां नहीं तो यां से निकाले हुए तो हैं
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कहा जाता है कि साहिर ने अपनी चर्चित नज़्म 'परछाइयां' कॉलेज के ज़माने में लिखी थी। इसमें दूसरे जंग ए अज़ीम की दहशत है। बंगाल के अकाल का ख़ौफ़नाक मंज़र है। उस लड़की की मुहब्बत की दास्तान भी है जिससे साहिर हमेशा के लिए बिछड़ गए। मुहब्बत की वो ख़लिश साहिर के जिस्म में जान बनकर ताउम्र धड़कती रही।
तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं
मैं फूल टाँक रहा हूँ तुम्हारे जूड़े में
तुम्हारी आँख मसर्रत से झुकती जाती है
न जाने आज मैं क्या बात कहने वाला हूँ
ज़बान ख़ुश्क है आवाज़ रुकती जाती है
मेरे गले में तुम्हारी गुदाज़ बाहें हैं
तुम्हारे होठों पे मेरे लबों के साये हैं
मुझे यकीं है कि हम अब कभी न बिछड़ेंगे
तुम्हें गुमां है कि हम मिलके भी पराये हैं
तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं
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साहिर का बचपन बहुत तल्ख़ था। सन् 1945 में प्रकाशित उन्होंने अपने कविता संग्रह का नाम 'तल्ख़ियां' रखा। पिता थे मगर साहिर को कभी पिता का प्यार नहीं मिला। पिता ने उनकी मां पर हमेशा ज़ुल्म किया। साहिर के पिता फ़ज़ल मुहम्मद अमीर, ऐय्याश और ज़ालिम जागीरदार थे। दूसरी शादी के बाद जब उनके ज़ुल्म बहुत बढ़ गए तो साहिर का हाथ पकड़ कर उनकी मां सरदार बेगम हवेली से बाहर निकल आईं।
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लुधियाना रेलवे स्टेशन के पास किराए के एक छोटे से मकान में साहिर अपने बचपन के साथ खड़े थे। साहिर उस समय 8 साल के थे। अपने पिता के इकलौते वारिस थे। अपने वारिस को हासिल करने के लिए साहिर के पिता ने साहिर की मां को अदालत में खड़ा कर दिया। साहिर ने अदालत में अपने पिता के खिलाफ़ गवाही दी और मां के साथ रहना मंज़ूर किया।
🍁साहिर और अमृता की प्रेम कथा🍁
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अमृता प्रीतम के लिए साहिर दोपहर की नींद में देखे गए किसी हसीन ख़्वाब की तरह थे। दोपहर की नींद टूटने के बाद भी ख़्वाब की ख़ुमारी घंटों छाई रहती है। अमृता प्रीतम के ज़हन पर साहिर के ख़्वाब की ख़ुमारी ताज़िंदगी छाई रही। सन् 1944 में पंजाब के एक क़स्बे प्रीत नगर के मुशायरे में अमृता प्रीतम और साहिर की पहली मुलाक़ात हुई।
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साहिर ने शादीशुदा अमृता की तरफ़ नहीं देखा। उनसे गुफ़्तगू नहीं की। साहिर की ख़ामोशी से अमृता को मुहब्बत हो गई। अपनी आत्मकथा 'रसीदी टिकट' में अमृता ने बताया है- साहिर कभी कभार उनके घर आते थे। कुर्सी पर ख़ामोश बैठ कर सिगरेट पीते थे। अमृता अधजले सिगरेट के टुकड़ों को सहेजकर रख लेतीं। उन्हें जलाकर अपनी तनहाइयां सुलगातीं। उंगलियों में पकड़त़ी तो साहिर की छुअन महसूस होती। अमृता प्रीतम को सिगरेट पीने की आदत पड़ गई।
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सन् 1947 ने हिंदुस्तान के सीने पर विभाजन की लकीर खींच दी। लाहौर छोड़कर अमृता दिल्ली आ गईं। साहिर डेढ़ साल लाहौर में टिके रहे। अदबी पत्रिकाओं के संपादक बने रहे। उनकी नज़्मों ने धूम मचाई। पाकिस्तानी हुकूमत की जानिब से साहिर के लिए वारंट जारी हुआ। दिल्ली होते हुए साहिर मुंबई पहुंच गए। फ़िल्म जगत में मसरूफ़ हो गए।
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एक दिन अमृता प्रीतम ने अपने शौहर सरदार प्रीतम से तलाक़ ले लिया मगर उनका सरनेम ताउम्र अपने पास रखा। सन् 1960 में अमृता ने मुंबई आने का इरादा किया। सुबह ब्लिट्ज अख़बार पर नज़र पड़ी। साहिर और सुधा मल्होत्रा के फोटो के नीचे लिखा था- साहिर की नई मुहब्बत। चित्रकार इमरोज़ के स्कूटर पर बैठ कर उनकी पीठ पर अंगुलियों से साहिर का नाम लिखने वाली अमृता ने शादी किए बिना इमरोज़ के साथ घर बसा लिया।
🍁अमृता के ख़्वाबों की ख़ुशबू🍁
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इमरोज़ जैसा वफ़ादार साथी मिलने के बावजूद अमृता ने साहिर की मुहब्बत का दामन कभी नहीं छोड़ा। एक अल्हड़ किशोरी की तरह अमृता ने ख़्वाबों की ख़ुशबू से अपने दिल को शादाब किया। अपनी मुहब्बत के दयार में वे अकेले ही मचलती और महकती रहीं। साहिर और अमृता में बातें मुलाक़ात़ें बहुत कम हुईं। फिर भी मुहब्बत के इस अफ़साने में अमृता ने अपनी क़लम से इतने चटख रंग भर दिए कि इस रूमानी दास्तान की चर्चा आज भी होती रहती है।
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साहिर से अपनी पहली मुलाक़ात पर अमृता ने कहानी लिखी- आख़िरी ख़त। उर्दू पत्रिका 'आईना' में प्रकाशित इस कहानी पर साहिर ने कोई टिप्पणी नहीं की। साहिर ने अपनी सारी मुहब्बत अपनी मां पर निछावर कर दी। उन्होंने मां को कभी अकेला नहीं छोड़ा। मुंबई हो, हैदराबाद हो या दिल्ली, वे हर जगह मुशायरों में मां को अपने साथ लेकर जाते थे।
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साहिर के ख़्वाब में खोई हुई अमृता प्रीतम को जैसी शोहरत मिली वैसी शोहरत हिंदुस्तान में किसी भी महिला रचनाकार को कभी हासिल नहीं हुई। अमृता के पास एहसास की लज़्ज़त थी। नर्मो नाज़ुक ज़बान थी। खुली आंखों से हसीन ख़्वाब देखने वाली अमृता ने फूल की पंखुड़ी पर शबनम की दास्तान लिखी। महकते लफ़्जों को मुहब्बत का लिबास पहनाकर चार पीढ़ियों के युवा दिलों को धड़कने का हुनर सिखाया। आज भी अमृता के रूमानी जज़्बात की बारिश में भीगते हुए प्रेमी युगल मिल जाते हैं। उनके 'रसीदी टिकट' ने आज भी कई लोगों की नींद उड़ा रखी है।
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ज़िंदगी की हक़ीक़त अलग होती है। अमृता ने अपने एक संस्मरण में लिखा- साहिर की पीठ में दर्द होता था तो मैं गर्म तेल की मालिश करती थी। इस पर हिंदी के मशहूर व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई ने अपने एक लेख में कटाक्ष किया- "मालिश करते बीस साल हो गए अमृता! अब तो गर्म तेल से तुम्हारे हाथों में फफोले पड़ गए होंगे। अब तो साहिर का पीछा छोड़ दो।"
🍁साहिर और सुधा मल्होत्रा की दास्तान🍁
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सब्ज़ शाख़ पर इतराते सुर्ख़ गुलाब की तरह सिने जगत में सुधा मल्होत्रा की दिलकश इंट्री हुई। काली ज़ुल्फें, गोरा रंग, बोलती हुई आंखें, हया की सुर्ख़ी से दमकते हुए रुख़सार और लबों पर रक़्स करती हुई मोहक मुस्कान ... सचमुच सुधा मल्होत्रा का हुस्न मुकम्मल ग़ज़ल जैसा था। साहिर ने इस ग़ज़ल पर एक नज़्म लिख डाली-
कभी-कभी मेरे दिल में ख़याल आता है
कि जैसे तुझको बनाया गया है मेरे लिए
तू इससे पहले सितारों में बस रही थी कहीं
तुझे ज़मीं पर बुलाया गया है मेरे लिए
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चेतन आनंद की फ़िल्म के लिए संगीतकार ख़य्याम ने सुधा मल्होत्रा और गीता दत्त की आवाज़ में इस नज़्म को रिकॉर्ड किया। फ़िल्म नहीं बन सकी। इसी नज़्म को केंद्र में रखकर यश चोपड़ा ने एक कहानी तैयार की। इस पर एक यादगार फ़िल्म 'कभी कभी' बनी। फ़िल्म की नायिका राखी की तरह सुधा मल्होत्रा ने भी अचानक शादी कर ली थी।
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फ़िल्म 'भाई बहन' (1959) में सुधा मल्होत्रा की गायकी से साहिर बेहद मुतास्सिर हुए। फ़िल्म 'दीदी' के संगीतकार एन दत्ता बीमार पड़ गए। साहिर की गुज़ारिश पर गायिका सुधा मल्होत्रा ने साहिर की नज़्म को कंपोज़ किया। सुधा की आवाज़ में यह नज़्म रिकॉर्ड हुई-
तुम मुझे भूल भी जाओ तो ये हक़ है तुमको
मेरी बात और है मैंने तो मुहब्बत की है
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फ़िल्म 'बरसात की रात' (1960) में साहिर ने गायिका सुधा मल्होत्रा के लिए सिफ़ारिश की। सुधा की गायिकी दमदार थी। फ़िल्म की बेमिसाल क़व्वाली में उनकी गायकी का कमाल देखने लायक़ है-
ना तो कारवाँ की तलाश है,
ना तो हमसफ़र की तलाश है
मेरे शौक़-ए-ख़ाना ख़राब को,
तेरी रहगुज़र की तलाश है …
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मीडिया ने सुधा मल्होत्रा को साहिर की नई मुहब्बत के रूप में प्रचारित किया। दिल्ली से आईं सुधा मलहोत्रा की उम्र 23 साल थी। मगर वे अमृता प्रीतम की तरह दिन में ख़्वाब देखने वाली जज़्बाती लड़की नहीं थीं। उन्होंने घोषणा कर दी कि वे अब फ़िल्मों के लिए नहीं गाएंगी। दूसरा नेक काम सुधा मलहोत्रा ने ये किया कि अपने बचपन के दोस्त शिकागो रेडियो के मालिक गिरधर मोटवानी से तुरंत शादी कर ली। फ़िल्मी चकाचौंध से दूर अपने घर की दहलीज़ के अंदर आस्था का दीया जलाकर सुधा मल्होत्रा गा रहीं थीं-
न मैं धन चाहूँ न रतन चाहूँ
तेरे चरणों की धूल मिल जाए
तो मैं तर जाऊं ...
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राज कपूर ने सुधा मल्होत्रा की आवाज़ में एक ग़ज़ल सुनी। वे सुधा के घर गए। सुधा ने कहा- राज साहब, अब मैं फ़िल्मों के लिए नहीं गाती। उनके आग्रह पर सुधा ने अमेरिका अपने शौहर को फ़ोन किया। शौहर ने अनुमति दी। फ़िल्म 'प्रेम रोग' में सुधा मलहोत्रा ने एक गीत गाया-
ये प्यार था या कुछ और था
न तुझे पता न मुझे पता ...
🍁मुम्बई में शायर साहिर लुधियानवी🍁
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मुंबई में साहिर को सरदार जाफ़री, कैफ़ी आज़मी, कृष्ण चंदर, ख्वाजा अहमद अब्बास आदि प्रगतिशील लेखकों का साथ मिला। मुंबई आने से पहले साहिर का शेरी मजमुआ 'तल्ख़ियां' प्रकाशित हो चुका था। नई नस्ल उनकी शायरी पर फ़िदा थी। जावेद अख़्तर को साहिर की पूरी किताब ज़बानी याद थी और आज भी याद है। साहिर से मुलाक़ात के पहले ही संगीतकार ख़य्याम ने साहिर की पूरी किताब कंपोज़ कर डाली थी। मुशायरों में साहिर की ताजमहल, परछाइयां, चकले आदि नज़्मों की फ़रमाइश होती थी। सीधे-साधे लहजे में बिना किसी उतार चढ़ाव के जब साहिर 'परछाइयां' नज़्म पढ़ते तो हज़ारों की भीड़ में सन्नाटा छा जाता था। मुशायरों में उन्हें ग़ौर से सुना जाता था। सिने जगत में लोग उनके नाम से वाक़िफ़ थे। ये साहिर का कमाल है कि उन्होंने आकाशवाणी पर बजने वाले गीतों की उदघोषणा में संगीतकार और गायक के साथ गीतकार का नाम भी शामिल करवाया।
🍁सिने जगत में साहिर लुधियानवी🍁
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हर फ़िक्र को धुएं में उड़ाने वाले साहिर ने मुम्बई आने से पहले दोस्तों से कहा था- सिनेमा में गीत लिखना मेरा ख़्वाब है। एक दिन मैं बेमिसाल गीतकार बनकर दिखाऊंगा। साहिर के पास सोच, फ़िक्र और एहसास का ख़ज़ाना था। बोलती हुई ज़बान थी। धारदार तेवर था। अनोखा अंदाज़ था। इसके बल पर वे बेमिसाल गीतकार बने। तीन दशकों तक साहिर ने सिने जगत पर राज किया। ख़ुद उनकी ज़िंदगी पर आधारित दो फ़िल्में बनीं- 'प्यासा' और 'कभी-कभी'।
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मुंबई के बॉलीवुड में साहिर की पहली फ़िल्म थी 'आज़ादी की राह' (1949)। संगीतकार सचिन देव बर्मन की फ़िल्म 'नौजवान' (1951) में उनका गीत लोकप्रिय हुआ- "ठंडी हवाएं लहरा के आएं।" फ़िल्म 'बाज़ी' ने इस सिलसिले को आगे बढ़ाया- "तदबीर से बिगड़ी हुई तकदीर बना ले।" फ़िल्म 'प्यासा' के गीत सुपरहिट हुए। गुरुदत्त के साथ उनकी जोड़ी जम गई। संगीतकार रवि के साथ हमराज़, काजल, धुंध, दो कलियां आदि फ़िल्मों में साहिर ने कमाल के गीत लिखे। बीआर चोपड़ा और यश चोपड़ा ने उनके साथ इतिहास बनाया।
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साहिर ने बड़े संगीतकारों और बड़े गायकों को यह कहकर नाराज़ किया कि फ़िल्में उनके गीतों की वजह से कामयाब होती हैं संगीत और गायकी के दम पर नहीं। उन्होंने हमेशा अपनी शर्तों पर काम किया। साहिर ने बड़े संगीतकारों की परवाह नहीं की। उन्होंने ख़य्याम, रोशन और एन दत्ता जैसे नए संगीतकारों को फ़िल्में दिलाईं। जब उन्हें मालूम हुआ कि संगीतकार को पांच हज़ार का भुगतान किया जा रहा है तो उन्होंने कहा- मुझे संगीतकार से एक रुपए ज़्यादा चाहिए। यह एक संकेत था कि गीतकार को संगीतकार से ज्यादा पेमेंट मिलना चाहिए।
🍁वो सुबह कभी तो आयेगी🍁
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फ़िल्म 'फिर सुबह होगी' (1958) के निर्माता रमेश सहगल से गीतकार साहिर ने पूछा- इस फ़िल्म का संगीतकार कौन है! सहगल ने जवाब दिया- मुख्य भूमिका में राज कपूर साहब हैं। उनके प्रिय संगीतकार शंकर जयकिशन को बुलाना पड़ेगा। साहिर ने मना कर दिया। बोले- इस फ़िल्म का संगीत वही देगा जिसने दोस्तोवस्की की किताब 'क्राइम ऐंड पनिशमेंट को पढ़ा हो और समझा हो। फ़िल्म इसी किताब पर आधारित थी। सहगल ने पूछा- हमारी इंडस्ट्री में ऐसा कौन सा संगीतकार है? साहिर ने फ़रमाया- ऐसा एक ही संगीतकार है ख़य्याम। निर्माता रमेश सहगल ने साहिर की यह बात राज कपूर को बताई। राज कपूर ने कोई दख़ल नहीं दिया। इस फ़िल्म में साहिर के गीतों को ख़य्याम ने संगीतबद्ध किया।
वो सुबह कभी तो आयेगी
इन काली सदियों के सर से,
जब रात का आंचल ढलकेगा
जब अम्बर झूम के नाचेगा,
जब धरती नग़मे गाएगी
वो सुबह कभी तो आयेगी …
🍁हमराज़ की हीरोइन विम्मी और साहिर🍁
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बी आर चोपड़ा की फ़िल्म 'हमराज़' में सुनील दत्त और राजकुमार के साथ अभिनेत्री विम्मी की मुख्य भूमिका थी। साहिर को उनके हुस्न की तारीफ़ में एक गीत लिखना था। बीआर चोपड़ा ने साहिर से गुज़ारिश की- मैं अपने बंगले पर विम्मी को बुला लेता हूं। आप उनसे मिल लीजिए। उसके बाद गीत लिखिए। साहिर तय समय पर चोपड़ा के यहां पहुंचे। सिगरेट जला कर बैठ गए। थोड़ी देर में अभिनेत्री विम्मी पधारीं। साहिर ने देखा- सफेद साड़ी में वे संगमरमर की प्रतिमा लग रही थीं। वे सामने सोफ़े पर बैठ गईं। साहिर से हेलो हाय कुछ भी नहीं बोलीं। मैगज़ीन उठाकर दो चार पन्ने पलटे। फिर चुपचाप बाहर चली गईं। साहिर ने एक गीत लिखा। संगीतकार रवि ने संगीतबद्ध किया। सुनील दत्त पर इसे फ़िल्माया गया-
किसी पत्थर की मूरत से मुहब्बत का इरादा है
परस्तिश की तमन्ना है इबादत का इरादा है
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किसी नौजवान की ज़ुल्फें देखकर लड़कियों का भी दिल मचल सकता है, यह करिश्मा 'नया दौर' में साहिर ने किया-
उड़े जब जब जुल्फें तेरी,
कुंवारियों का दिल मचले
"हम आपकी आंखों में इस दिल को बसा दें तो …" इससे पहले आंखों में कोई चेहरा रहता था, कोई ख़्वाब रहता था। साहिर ने दिल को बसा दिया। ऐसा कौन सा नौजवान है जिसकी बैंड बाजा बारात में साहिर का ये गीत न सुनाई पड़ा हो-
यह देश है वीर जवानों का
अलबेलों का मस्तानों का
इस देश का यारो क्या कहना ...
यहाँ हँसता है सावन बालों में
खिलती हैं कलियाँ गालों में ...
ज़माना बहुत आगे निकल चुका है मगर बेटियों की विदाई में साहिर का गीत आज भी पिताओं को रुलाता है-
बाबुल की दुआएं लेती जा
जा तुझको सुखी संसार मिले
मैके कि कभी ना याद आए
ससुराल में इतना प्यार मिले
साहिर के गीत पर आज भी शौहर और बीवी झूम झूम कर डांस करते हैं-
ऐ मेरी ज़ोहरा-ज़बीं तुझे मालूम नहीं
तू अभी तक है हंसीं और मैं जवाँ
तुझपे क़ुरबान मेरी जान मेरी जान ...
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साहिर ने संगीत प्रेमियों को नायाब गीतों का तोहफ़ा दिया। उनके गीत ज़िंदगी के अंधेरे में उजालों की किरण बनकर आज भी हमें रास्ता दिखाते हैं-
न मुंह छुपा के जियो
और न सर झुका के जियो
गमों का दौर भी आए तो
मुस्कुरा के जियो
★
रात भर का है मेहमां अंधेरा
किसके रोके रुका है सवेरा
★
पोंछ कर अश्क अपनी आंखों से
मुस्कुराओ तो कोई बात बने
★
मन रे तू काहे ना धीर धरे
वो निर्मोही मोह ना जाने, जिनका मोह करे
मन रे तू काहे ना धीर धरे…
■
साहिर अपने गीतों में नया रंग और नई ख़ुशबू लेकर आए। देश, समाज और वक़्त के मसाईल के साथ उनके गीतों में एहसास और जज़्बात की ऐसी नक़्क़ाशी है जिससे उनके गीत बिल्कुल अलग नज़र आते हैं। एक जुमले में किसी अहम् बात को साहिर इतनी ख़ूबसूरती से कह देते हैं कि सुनने वाला मंत्रमुग्ध हो जाता है। मिसाल देखिए-
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1.जो बात तुझमें है तेरी तस्वीर में नहीं
2.पांव छू लेने दो फूलों को इनायत होगी
3.चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों
4.तुम न जाने किस जहां में खो गए
5.अभी ना जाओ छोड़कर कि दिल अभी भरा नहीं
6.जाने वो कैसे लोग थे जिनके प्यार को प्यार मिला
7.मोहब्बत बड़े काम की चीज़ है
8.तुम अगर मुझको न चाहो तो कोई बात नहीं
9.जब भी जी चाहे नई दुनिया बसा लेते हैं लोग
10.मिलती है ज़िंदगी में मोहब्बत कभी-कभी
11. तेरे चेहरे से नज़र नहीं हटती
12.लागा चुनरी में दाग़ छुड़ाऊं कैसे
13. यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है
14. तोरा मन दरपन कहलाए
15. औरत ने जनम दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाज़ार दिया
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भगवती चरण वर्मा के उपन्यास पर 'चित्रलेखा' फ़िल्म बनी। इसके कथासूत्र को साहिर ने सिर्फ़ दो लाइनों में पेश कर दिया-
संसार से भागे फिरते हो, भगवान को तुम क्या पाओगे,
अपमान रचयिता का होगा, रचना को अगर ठुकराओंगे
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'पल दो पल का शायर हूं' साहिर की मशहूर नज़्म है। इसमें साहिर ने ज़िंदगी की हक़ीक़त को बड़ी ख़ूबसूरती से बयान किया है-
कल और आएंगे नग़मों की
खिलती कलियाँ चुनने वाले
मुझसे बेहतर कहने वाले
तुमसे बेहतर सुनने वाले
कल कोई मुझको याद करे
क्यूँ कोई मुझको याद करे
मसरूफ़ ज़माना मेरे लिये
क्यूँ वक़्त अपना बरबाद करे
मैं पल दो पल का शायर हूँ ...
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साहिर के जाने के बाद सिने जगत को दूसरा साहिर नहीं मिला। बीआर चोपड़ा और यश चोपड़ा ने बेशक़ तलाश की मगर उनसे बेहतर कहने वाला कोई दूसरा शायर नज़र नहीं आया। साहिर ने ख़ुद यश चोपड़ा से कहा था- ये नौजवान आनंद बख़्शी अच्छा लिखता है। इसे मौक़ा दीजिए। आनंद बख़्शी ने साहिर के नग़मा निगारी के फ़न और हुनर को बड़े सलीक़े से आगे बढ़ाया।
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8 मार्च 1921 को लुधियाना में जन्मे साहिर लुधियानवी का 25 अक्टूबर 1980 को हृदय गति रुक जाने से मुंबई में इंतक़ाल हुआ। साहिर ने चार मिसरे अपने लिए कहे थे। वो आपके लिए पेश हैं-
न मुंह छुपा के जिए हम न सर झुका के जिए
सितमगरों की नज़र से नज़र मिलाके जिए
अब एक रात अगर कम जिए तो कम ही सही
यही बहुत है कि हम मशअलें जलाके जिए
■
आपका-
देवमणि पांडेय
सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाड़ा, गोकुलधाम, फिल्मसिटी रोड, गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063
M : 98210-82126
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