मैं चाहता हूं आप मेरी कल की पोस्ट में मैक्स मूलर के इस कथन पर दुबारा ध्यान दें. वह कहता है,
(1) वेद हमारी अपेक्षाओं के बहुत विपरीत है ( so different from what it was expected to be); अर्थात्, हमने सोचा था यह भी संस्कृत में लिखा होगा, पर इसकी तो भाषा ही अलग निकली। इसका सीधा अर्थ था कि यह तो वह भाषा थी जिससे संस्कृत निकली थी, अतः उसकी सहोदरा भाषाओं की भी यही जननी थी। यह इतिहास का सच भी था, क्योंकि
(क) यह संस्कृत के जन्म से बहुत पहले उस चरण की भाषा थी जब भारोपीय भूभाग में जननी भाषा का प्रसार हुआ था, जो
(ख) जिसका काल उस काल रेखा से मिलता था जिस पर जोंस ने पूर्वी भूमध्य सागर क्षेत्र और इरित्रिया (इथियोपिया) से यह प्राचीन भाषा बोलने वालों के रोम और विश्व ग्रीस में प्रवेश की बात स्वीकार की थी;
(ग) उस काल रेखा से मिलता था जिसे परिपक्व हड़प्पा का ह्रास काल कहा जा सकता है, और साथ ही
(घ) यह वह काल था जिसमें भाषा और देव समाज को मानने वाले हत्ती, कश (कस्साइट), और मैत्रेय (मितन्नी) जनों की उसी भूभाग में प्रभावशाली उपस्थिति का पुरातात्विक प्रमाण मिला। इन सभी से मैक्समूलर अवगत नहीं हो सकता था, फिर भी भाषा की प्राचीनता और संबद्धता के विषय में वह पूरी तरह सावधान था यह इसी व्याख्यान के अन्य हवालों से प्रकट है; इसके बाद भी, या इसके कारण ही, इसे नकारने के लिए वह अगले ही वाक्य खंड में वैदिक भाषा को दूसरी सभी भाषाओं से असंबंध सिद्ध कर देता है।
(2) यह बिल्कुल अलग और दूसरों से असंबद्ध है (it stands alone by itself); अर्थात् भाषाओं की पैतृकता का सवाल इसके उद्घाटन के बाद भी एक पृथक् सवाल है। क्योंकि,
(3) इससे एक ऐसी भाषा हमारे सामने प्रस्तुत होती है जो अब तक ज्ञात किसी भी भाषा से अधिक आदिम है (it places before us a language, more primitive than any we knew before);
अब रही सांस्कृतिक स्तर की बात तो:
(4) इसकी कविता को वहशियाना, अजीब, भोंडी और बकवास कहा जा सकता है (poetry is what you may call savage, uncouth, rude, horrible),
(5) लेकिन इसी कारण तब तक जब तक इसकी तह में छिपी सचाई का उद्घाटन नहीं हो जाता, जब तक यह पता नहीं चल जाता कि इंसान पहले डेविड, होमर, जरदुस्त्र के स्तर तक पहुँचने से पहले क्या था यह दिखाई नहीं देने लगता इसकी परतें खोदते रहना एक सार्थक प्रयास है ( it is for that very reason that it was worthwhile to dig and dig till the old buried city was recovered, showing us what man was, what we were, before we had reached the level of David, the level of Homer, the level of Zoroaster, showing us the very cradle of our thoughts, our words, and our deeds.)
इसलिए जहाँ तक मजहब का सवाल है:
(6) यह मजहब के नितांत आदिम विचारों के भी मात्र बीजांकुरो को उद्घाटित करता है (reveals to us the earliest germs of religious thought, such as they really were)।
कहाँ ईसाइयत का महावृक्ष और इसके सामने कहाँ यह फूटता हुआ अँखुआ।
उसी वेद की जिसका नाम लेते ही भारतीयों का मनोबल सत्ता के दमनचक्र को तोड़ कर इतना ऊपर उठ जाता था कि आदर्श वैदिक मूल्यों के अनुरूप न पाकर अपने शासकों तक को वे अपने से तुच्छ समझते थे उसे मैक्समुलर ने अपने कुतर्कों से इतना गर्हित सिद्ध कर दिया कि वह ईसाइयत के सामने आँख उठा कर नहीं देख सकता था।
इस बात को इस रूप में किसी ने नहीं लिखा है परंतु जो तथ्य है उसे कोई झुठला भी नहीं सकता। बोडन चेयर की स्थापना ईसाइयत के प्रचार के लिए संस्कृत साहित्य के अनुवाद सुलभ कराने के लिए की गई थी जिससे प्रचारकों को भारत के विषय में जानकारी प्राप्त करने के बाद भारतीयों से शास्त्रार्थ मेंं पछाड़ने का अवसर मिल सके। इस चेयर के पहले अधिकारी विल्सन थे जिन्होंने ऋग्वेद का सायण के अनुसार अनुवाद किया था। उनके बाद इस पद के दो दावेदार थे, एक मोनियर विल्सन दूसरे मैक्समूलर। मैक्समूलर जर्मन थे इसलिए इसके लिए नहीं चुने जा सके। उन्हें बंसेन की मदद से कंपनी से ऋग्वेद के अनुवाद का काम मिला। मुलर की अंतश्चेतना में यह ग्रंथि लगातार बनी रही कि बोडेन पीठ के लिए वह मोनियर विलियम्स से अधिक उपयुक्त व्यक्ति था और इसके प्रदर्शन के लिए उसने जो घटियापन दिखाया उससे उसको एक व्यक्ति और विद्वान दोनों रूपों मे क्षति पहुँची। पर इस नंगी नाच को देखने के बाद भी भारतीय परंपरावादियों के लिए वह समादृत और उच्छेदवादियों के लिए उपयोगी बना रहा, पर दोनों में से किसी का ध्यान इस बात पर नहीं गया कि वह ईसाई मिशनरियों से भी अधिक ईसाइयत परस्त कैसे हो गया।
On August 25th 1866, Muller wrote to Chevalier Bunsen:
India is much riper for Christianity than Rome or Greece were at te time of St. Paul. The rotten tree has for some time had artificial supports, because its fall would have been inconvenient for the government. But if the Englishman comes to see that the tree must fall, sooner or later, then the thing is done... I should like to lay down my life, or at least to lend my hand to bring about this struggle... I do not at all like to go to India as a missionary, that makes one dependent on the parsons... I should like to live for ten years quite quietly and learn the language, try to make friends, and see whether I was fit to take part in a work, by means of which the old mischief of Indian priestcraft could be overthrown and the way opened for the entrance of simple Christian teaching...
— The Life And Letters Of The Right Honourable Friedrich Max Muller Vol.i, Chapter X[21]
प्रसंगवश यह याद दिला दें कि विल्सन ने अपने अनुवाद में या मोनियर विलियम्स ने अपने कोश-संपादन में उस तरह के ओछेपन का परिचय न दिया जो मैक्समुलर ने अपने सभी कामों में अपनी अकादमिक विश्वसनीयता को दाँव पर लगा कर किया। इसे निम्न प्रश्नों में देखा जा सकता है:
1. वेद के अनुवाद के पीछे तुम्हारा उद्देश्य क्या था, पाठकों को उसकी अनतर्वस्तु से परिचित कराना या ईसाइयत का प्रचार :The translation of the Veda will hereafter tell to a great extent on the fate of India, and on the growth of millions of souls in that country. It is the root of their religion, and to show them what the root is, I feel sure, is the only way of uprooting all that has sprung from it during the last 3,000 years... one ought to be up and doing what may be God's work.
2. यदि तुम्हारे ही कथनानुसार यह भाषा इतनी दुष्कर है कि यह तुम्हारी समझ में ही नहीं आती, अभी रसातल मे दबे हुए पुरासत्य को तलहटी तक उतर कर ही जाना जा सकता है फिर अपने अज्ञान के बाद भी तुम्हें उसके सत्य, सौंदर्य, सांस्कृतिक स्तर पर बात करने का अधिकार कैसे मिल गया?
3. तुमने संस्कृत साहित्य का इतिहास लिखा पर उसका लक्ष्य संस्कृत साहित्य से परिचित कराना था या हिंदुत्व का गर्हित पक्ष प्रस्तुत करना । शीर्षक स्वतः बयान है : Friedrich Max Müller (1859). A History of Ancient Sanskrit Literature So Far as it Illustrates the Primitive Religion of the Brahmans. Williams and Norgate.
4. यदि ऋग्वेद इतना प्राचीन है कि इसमे मानव विकास का आदिम चरण दिखाई देता है फिर यह केवल 1200 या 1500 ईसापूर्व का साहित्य कैसे हो गया। बाद की कृतियों के लिए सही या गलत 200 साल का स्तर उस पर कैसे लागू हो गया जो सबसे अनमेल, अलग और चरम पुरातन था?
5. यदि ऐसे ही विद्वानों ने भारतीय साहित्य का उद्धार किया, उन्होंने ही अनुवाद, व्याख्यायें और अनुसंधान किया तो उन्होंने मध्यकालीन पुस्तकद्रोही आततायियों की पहुंच से दूर छिपा कर रखे गए ग्रंथों का उद्धार किया या जिस धर्मांधता से मध्यकालीन आततायी शिक्षाकेन्द्रों और पुस्तकालयों को ध्वस्त करते और आग लगाते रहे उसी धर्मांधता, विजिगीषा, और अहम्मन्यता के दबाव में उन छिपे कोनों से उस साहित्य को बाहर निकाल कर तुम जैसे लोग अपव्याख्या से उन्हें नष्ट करते रहे।
6. वे अधिकारी विद्वानों को शैतानी ज्ञान का प्रचारक बता कर कत्ल करते रहे और तुम लोग पद, प्रलोभन, उपाधियाँ देकर बौद्धिक नपुंसकता का शिकार बनाते रहे।
7. इसी इरादे से नियोजित भारतीय मानविकी का उन्हीं के निर्देशन और प्रोत्साहन में अपनी शिक्षा और अनुसंधान करने वाले अध्यापक और उनके शिष्य क्या करते रहे? उन्होंने इतिहास, मानविकी, भाषाविज्ञान और समाजशास्त्र को समझा या अपनी और शिक्षित समाज की बुद्धि भ्रष्ट की।
जाहिर है मेरी जानकारी कम है, सभी विषयों की तो हो ही नहीं सकती, पर जिज्ञासा अपार है। इन प्रश्नों का उत्तर तलाशते हुए उन्हीं के अन्तरिविरोधों से हमें एक अन्तर्विरोध मुक्त ज्ञानशास्त्र तैयार करना पड़ा है।
भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )
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