Tuesday, 19 January 2021

शब्दवेध (80) भारत और महाभारत

भारत और  ग्रीस के बीच ही नहीं  लघु एशिया और भारत के बीच संपर्क लगभग 1000 साल तक कटा रहा। यही स्थिति  ईरान और भारत के बीच के बीच भी थी।  कई सौ साल तक चलने वाले  लंबे प्राकृतिक प्रकोप के दौरान मध्य एशिया  में बसे या  अपने उपनिवेश  कायम करने वाले  भारतीयों में से  कुछ आपदा से बचने के लिए भारत की ओर  लौटे  होंगे  इसकी कल्पना की जा सकती है।  परंतु उन्हें जिन अनुभवों से गुजरना पड़ा उसकी कहानियां सुन कर ही इतना भय व्याप्त हुआ कि भारतीयों ने विदेश गमन-  स्थल मार्ग  से हो या जल मार्ग से - वर्जित कर दिया।  

इतिहास का यह बहुत बड़ा मोड़ है। इस लंबे दुर्दिन के दौर में शिक्षा संस्थान नष्ट हो गए , नागर और ग्रामीण बस्तियाँ उजड़ती-बसती रहीं,  पुराने रीति रिवाज और मूल्य सभी बहुत गहराई से प्रभावित हुए।  पुराना सारा साहित्य लगभग लुप्त हो गया। उसके उद्धार का नए सिरे से प्रयत्न करना पड़ा। परंतु जुटाने और सँजोने के बाद भी,  परंपरा छिन्न-भिन्न होने के कारण, उस साहित्य को समझना भी एक चुनौती भरा काम बन गयाऔर इसके लिए अनेक तरीके अपनाए गए, जिसमें विविध दृष्टियों से विचार करते हुए वेदों की अंतर्वस्तु को समझने का प्रयास किया गया। इसी का परिणाम वेदांग (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, ज्योतिष, छन्द और निरूक्त) और संहिताएँ और ब्राह्मण आदि हैं।  साम और यजुर्वेद का विभाग या पृथक वेदों के रूप में स्वीकृति भी इसी प्रयत्न का हिस्सा है। हमारा ध्यान मुख्य रूप से शिक्षा और व्याकरण की ओर ही जाता है जोकि वेदांग में परिगणित हैं।  

इसका दूसरा पक्ष यह है कि तटीय क्षेत्र और हिमानी क्षेत्र इससे कम प्रभावित हुए और दलदल वाले भूभागों पर इसका अनुकूल प्रभाव पड़ा। मध्येशिया के भारतीय उपनिवेशों के लोगों ने प्राणरक्षा के लिए दक्षिण (लघु एशिया), पश्चिम (यूगोस्लाविया, लिथुआनिया, फिनलैंड, हंगरी आदि की ओर पलायन किया। भारत में कुरुपांचाल के लोगों ने पूर्व, उत्तर और तटीय भाग की ओर पलायन किया।

हम इस समय अपना ध्यान पश्चिम पर ही केन्द्रित करें।  लंबे समय तक भारत से संपर्क भंग हो जाने या क्षीण हो  जाने के बाद ईरान, मध्येशिया,  उत्तरी यूरोप, भू्मध्य सागर तटीय यूरोप, पश्चिम एशिया में पहुँचे वैदिककालीन भाषाएँ बोलने वाले जत्थे वहीं रह गए। उन्होंने स्थानीय जनों से रोटी पानी का संबंध बना लिया पर अपनी पुरानी पहचान पर गर्व करते रहे। 

कोसंबी  सदानीरा  से परे के पहले दलदल रह चुके क्षेत्र को आग से जलाकर रहने योग्य बनाने की सूझ (वह मुख्यतः वैज्ञानिक थे!) के समर्थन में एक प्रश्न करते हैं कि वैदिक कुरुओं का बाद के इतिहास में पता नहीं  चलता।  वे कहाँ गए?  उसका उत्तर उन्होंने यह निकाला कि वे पूरब चले गए। अर्थात् मिथिलांचल में बसने वाले विदेघ माथव कुरु थे जब कि वे कहीं अपने कौरव होने का दावा नहीं करते।  इसके विपरीत कुर्द, ईरान में हख्मनि (सुअक्षि?) के वंशधरों में अनेक  Xerxes the Great, श्रवस्व,  उसके पिता प्रख्यात दारयावहु (धृतवसु) और उनके वंश में कुरुश्रवण (कै खुसरो) नामों के  विकृत उच्चारण से ही हम परिचित हैं। ये सभी अपनी पुराण कथाएँ, ज्ञान, विज्ञान, दर्शन, विश्वास, यहाँ तक कि देवी देवता भी लिए स्थानीय समाज का अंग बन गए। 

सामी मजहबों के कतिपय विचार जो उन समाजों के अनुरूप नहीं थे फिर भी उनमें प्रवेश कर गए, इसका कारण इसी पृष्ठभूमि में समझा जा सकता है।  इस प्रभाव को सीधे आदान प्रदान की जगह सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के रूप में समझा जाना चाहिए और साथ ही क्षेत्रीय अस्मिता के अंग के रूप में देखा जाना चाहिए। तभी पता चलेगा कि वह स्वर्ग कहाँ था जहाँ से आदम निकले।  उनकी मान्यता के अनुसार भी वह स्वर्गोपम देश  पूर्व में क्यों था, नोआ के महापोत (आर्क) या गिलगमेश की कथा के सूत्र कहाँ से किस रूप में जुड़ते हैं और सटे मिस्र के होते हुए अपने ज्ञान-दर्शन, देव कथाओं के मामले में ग्रीस भारतीय स्रोत के इतने निकट क्यों पड़ता है, रोम के प्राचीन स्तरों से लिंग के भारतीय प्रतिरूप क्यों मिलते हैं? 

इसमें ध्यान देने की बात यह भी है कि जिसे भारोपीय क्षेत्र कहा जाता है उसमें केवल संस्कृत का नहीं भारत की इतर भाषाओं के तत्वों का भी प्रसार हुआ था।  स्वामिवर्ग के साथ भृत्य वर्ग भी था और जहाँ जमीनी स्तर पर काम होता था, उनकी बोलियों का भी उसके समानान्तर प्रसार हुआ, उनके देवी-देवता भी लंबे समय तक अपना प्रभाव बनाए रह सके।

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )


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