विचारणीय समस्या यह थी कि क्या अंग्रेजी का एंगर शब्द भी जल से उत्पन्न ध्वनि से संबंध रखता है, और उसी पर विचार करना रह गया। जैसा कि हमने देखा यह शब्द अंगिरा से निकला है। अंगिरा और अग्नि - अंग से व्युत्पन्न हैं। अक/ अग/अंक/अंग - इन सभी का मूल अर्थ या एक अर्थ जल है (देखें 36) । अंग्रेजी में अ का उच्चारण ऐ के रूप में होता है और इस तरह अंगिरा ईरान में पहुँच कर अंग्र बना और अं. में ऐंग्र > ऐंग्री। ऐंगर हो गया।
क्रोध का आशय इससे जुड़े उत्तर पद - मन्यु - से आया। भारतीय सन्दर्भ में काम के प्रति उत्साह धनात्मक है। इसी भूमिका में बृहस्पति को भी दिखाया गया है - बृहस्पतिः वि चकर्ता रवेण। बृहस्पति उनका ही विशेषण प्रतीत होता है। उन्हें देवपुत्र या द्युलोक की संतान कहा गया है - दिवस्पुत्रा अंगिरसा भवेम। ईरान में, मध्येशिया में जहां से चल कर जरदुस्त्र - जरद्वस्त्र (केसरिया वस्त्र) धारण करने वाले - ईरान पहुँचे थे, उनकी खनिज संपदा का उनके विरोध के बाद भी किस तरह दोहन किया जा रहा था यह पणियों की कथा में स्पष्ट तो है ही, अफगानिस्तान, ईरान, मध्येशिया में हड़प्पा सभ्यता के सर्वमान्य उपनिवेशों, इनके आर्यकरण सभी से प्रकट है। ईरान में कुरुओं का प्रभुत्व - कैखुशरू (कविश्रवस्)।(. According to Avesta, Kay Khosrow had a son called Āxrūra. The latter refers to Kaei Husravah in the Avesta, and Sushravas in the Vedas.)
Xerxes (romanized: Xšaya-ṛšā; c. 518 – August 465 BC), commonly known as Xerxes the Great, was the fourth King of Kings of the Achaemenid Empire, ruling from 486 to 465 BC. He was the son and successor of Darius the Great ( r .Died: August 465 BC (aged approximately 53)
मन्यु
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मन्यु का चलन नहीं है। -मन (श्रीमन्), -मन्य(विद्वन्मन्य), -मान- (माननीय, श्रीमान और -मान्य- (मान्यवर, सर्वमान्य) का चलन बढ़ना और इनका अर्थभेद इसका कारण हो सकता है। पहले क्रोध के आशय में इसका प्रयोग अधिक होता था। इन्द्र को मन्युमानों में सर्वोपरि, मन्युमत्तम, कहा गया। उन्हें सचमुच गुस्सा आ जाए तो ... यदा सत्यं कृणुते मन्युमिन्द्रो। मनुहार या मन्यु - निवारण, खुश करना, खुशामद, जो मर्यादा खोने पर चाटुकारिता का रूप ले लेता है, और देवी देवताओं से इच्छित परिणाम पाने के लिए रिश्वत की पेशकश - मनौती बन जाता है, फिर भी प्रचलन में रहे। मन की उत्पत्ति जल से है यह पहले दिखाया जा चुका है।
क्रोध
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क्या क्रोध संज्ञा का पानी से नाता हो सकता है? कर्. कुर, कृ का हो सकता है तो निराश होने की जरूरत नहीं। कृ के साथ दो विरोधी आशय जुड़ते हैं, एक है काटना, जो कृमि, कृत्ति - कटा हुआ, उतारा हुआ अर्थात् चमड़ा, जो कृत्तिवास - चर्म वस्त्र पहनने वाले (अजी, मृगछाला या बाघंबर धारी)। इनका इतिहास इतना ही कि विगत हिमयुग में ये मध्येशिया से आए और मुख्यतः पर्वतीय अंचलों में बसे यक्ष और किरात थे । इसी से कृधु - कटा हुआ, छोटा, (कृधुकर्ण - कनकटा)। इसका दूसरा भाव कर्म है - कृति, कृती, क्रिया। एक तीसरा आशय है जिसमें जल/आर्द्रता का भाव स्पष्ट है - कृपा, करुणा, यद्यपि कृपण - ०जल न बरसाने वाला बादल, कंजूस भी इसी के नकारात्मक भाव से निकला है। कृ के उस विशेष उच्चारण से जिसमें यह क्रु का रूप ले लेता है कृपा का अगला विलोम क्रूर, क्रुध, क्रोध बनता है ( सिंहं न क्रुद्धमभितः परि ष्ठुः; मा ते हेति तविषीं चुक्रुधाम । पिघलती बरफ से खौलते पानी, सूखे से आर्द्रता के सभी भाव जल में समाहित हैं। देखें, E. growling, grudge - to look upon with envy: to give or allow unwillingly; grumble - to murmur with discomfort, to growl; grutch- to grudge, a grudge.
आक्रोश
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ऐसा लग सकता है कि क्रोध की तरह आक्रोश भी साधे जल से निकला हो सकता है पर इसमें एक पेंच है। इसका मूल कोस रहा लगता है जो भो. कोसना में सुरक्षित है, सं. में कौरवी प्रभाव से कोस > क्रोश बन गया पर इसका एक दूसरा रूप घोष में स्वरलोप नहीं हुआ। कोस का मूल अर्थ था ऊँची आवाज में गुहार। नीरव वातावरण में यह आवाज जितनी दूरी तक पहुंच सकती थी उसको कोस कहते थे जिसने मानक रूप ले लिया। सं. में इसने भी क्रोश का रूप लिया। ऊँची आवाज में पुकारने के आशय में ही इसका प्रयोग ऋग्वेद में देखने आता है - उत स्मैनं वस्त्रमथिं न तायुमनु क्रोशन्ति क्षितयो भरेषु । घुड़दौड़ के मुकाबलों में इसे (दधिक्रा) को उसी तरह भागा भागा की आवाज लगाते हैं जैसे घाट से कपड़ा उठा कर चंपत होने वाले उठाईगीर के पीछे आवाज लगाते हैं।
अं. क्राइ, (cry); कर्स (curse) इससे ही निकले लगते हैं। crash - a noise of things breaking or being crushed by falling; collapse; lapse; crush आदि की अलग व्याख्या जरूरी है। कोस, कोश, कोष को जल से उत्पन्न ध्वनि से जोड़ना आसान है क्योंकि को/गो=जल> ईश्वर। क्रोश को जल धाराओं के प्रचंडवेग और भंजनकारी रूप को मूर्तिमान करने वाले इस वर्णन को देखें : एता अर्षन्त्ति अललाभवन्ती ऋतावरी इव संक्रोशमानाः । एता वि पृच्छ किमिदं भनन्ति कं आपो अद्रिं परिधिं रुजन्ति ।। 4.18.6 हमारा काम ग्रिफिथ के अनुवाद से चल जाएगा - With lively motion onward flow these waters, the Holy Ones, shouting, as “twere, together. Ask them to. tell thee what the floods are saying, what girdling rock the waters burst asunder.
आमर्ष
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जिस मृष मूल में आ उपसर्ग के योग से आमर्ष बना है उसका अर्थ ‘भूलना’ किया गया है। दाता तेरे मैत्री को हम कभी न भूलें - न ते भोजस्य सख्यं मृषन्ता। भो. में इसके लिए अमरख अमरखाइल का प्रयोग होता है। अम्, अंब, अबु = जल । E. morose- sour tempered पर इस दृष्टि से विचार किया जा सकता है कि आमर्ष के मर्ष और morose के morse का जल से संबंध है या नहीं। जल के मन्द प्रवाह के नाद या उससे निकटता रखने वाले किसी भी शब्दातीत नाद को murmur से व्यक्त करते हैं। भारतीय चुनाव सरसर, हरहर, कलकल, खलखल आदि का है। चर्चा को फैलने से बचाने के लिए यह मान लेने में ही कल्याण है कि मृ<मर, की ध्वनि जल के मंद प्रवाह से और वायु के मंद प्रवाह में किशलयों की रगड़ से पैदा होती है। यह भी रोचक है कि जहाँ जल और वायु के उसी प्रवाह को हिंदी में सरसर, रसरस और किशलयों से उत्पन्न ध्वनि के लिए मरमर पसंद था तो अंग्रेजी में हम किशलयों की ध्वनि के लिए रसल (०रसर)।
क्षोभ
क्षोभ, खलबली, खौलते या प्रखर प्रवाह से चक्राकार उफनते जल की इतनी स्पष्ट और लोक भाषाओं में इतना व्यवहृत (भो. खदबदाइल, खदकल> खभिलाइल, खोभल - अपर को क्षुब्ध करना, चुभोना) कि इस पर लंबी चर्चा जरूरी नहीं व्यग्र होने, व्यग्र करने के आशय में इसका प्रयोग वैदिक काल से ही होता आ रहा है - आशुः शिशानो वृषभः न भीमो घनाघनो क्षोभणश्चर्षणीनाम् । संक्रन्दनोऽनिमिष एकवीरः शतं सेना अजयत्साकमिन्दः ।। 10.103.1 (SWIFT, rapidly striking, like a bull who sharpens his horns, terrific, stirring up the people;/With eyes that close not, bellowing, Sole Hero, Indra. subdued at once a hundred armies.) सूअरों के संकरे दरबे को जिसमें वे बेचैन रहने को बाध्य हैं, भो. में खोभार कहते हैं और यदि सं. से अधिक प्रेम हो तो आप इसे क्षोभागार कह सकते हैं, सूअरों को कोई आपत्ति न होगी।
व्यथा
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का अर्थ है आंतरिक उद्वेग (न ते व्यथा मा च मूढ़ भावो) और कायिक पीड़ा (शिरोव्यथा, उदर व्यथा) । ऋग्वेद के रचनाकाल में कभी एक बहुत भयंकर भूचाल आया था। सिंधु की धारा में एक इतना ऊँचा अवरोध पैदा हो गया था कि उससे एक विशाल सरोवर बन गया था। ढोलावीरा का दुर्गप्राचीर फट कर टेढ़ा हो गया था। इसके झटके लबे समय तक झटके आते रहे थे। इसी से घबराकर फिनीशियनों ने भारत के अपने तटीय आवास को छोड़कर कैस्पियन तट कर पहुँच गए गए थे। इससे पैदा हुए उपद्रव और भागम भाग का सुंदर चित्र ऋग्वेद में हुआ लगता है, यद्यपि इसका श्रेय इन्द्र को दिया गया है “यः पृथिवीं व्यथमानामदृंहद् यः पर्वतान् प्रकुपिताँ अरम्णात् । यो अन्तरिक्षं विममे वरीयो यो द्यामस्तभ्नात् स जनास इन्द्रः ।। 2.12.2”. ( He who fixed fast and firm the earth that staggered, and set at rest the agitated mountains, Who measured out the air's wide middle region and gave the heaven support, He, men, is Indra.)
यह भूचाल बहुत व्यापक था और अनुमानतः 2500 ईस्वी पूर्व आया था, ऋग्वेद के रचनाकाल के निर्धारण में निर्णायक महत्व रखता है।
भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )
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