पश्चिमी शिक्षा नस्लवादी, उपनिवेशवादी, प्राधिकारवादी होने के कारण और हमारी परंपरागत शिक्षा रटन्त तथा शास्त्रीय ज्ञान और साहित्य वर्णवादी होने के कारण, न तो मान्य हो सकते हैं, न ही अधिक भरोसे के। समस्या यह है कि उनको हटा दें तो हमारे पास कुछ बचता ही नहीं है। इसलिए सत्य की तलाश भी इन्हीं के माध्यम से संभव है। ये हमारे लिए कच्चा माल हैं। इनमें व्यक्त विचार स्वीकार्य नहीं हो सकते पर विचारणीय तो हैं ही। इनके अंतर्विरोधों, पारस्परिक असंगतियों, अतिरंजनाओं और पूर्वाग्रहों का निराकरण करते हुए, अतीत और वर्तमान दोनों के यथार्थ तक अवश्य पहुंचा जा सकता है। इसका सबसे सीधा उपाय है
(1) मूल स्रोतों की समझ और उन तक पहुँच;
(2) पूरक स्रोतों की खोज और उपयोग;
(3) कल्पना या अनुमान का नगण्य उपयोग;
(4) तथ्यों और साक्ष्यों में चुनाव और परिहार से बचना और
(5) जहाँ दो स्रोतों की सूचनाओं में सतही विरोध हो वहीं बारीकी से छानबीन करते लचर स्रोत का खंडन। आलस्य वश हो, या आत्मविश्वास की कमी के कारण हो, हमारी आदत बने बनाए निष्कर्षों को बिना जाँचे स्वीकार करते रहने की रही है। यह आदत इतनी बद्धमूल है कि लंबे समय से हमने अपने दिमाग से काम लिया ही नहीं।
हमने आरंभ इस बात से किया था कि किसी दूसरे देश का व्यक्ति हमारी जरूरत का न तो सही सामान तैयार करके हमें दे सकता है न सही ज्ञान दे सकता है। दोनों का उत्पादन हमें स्वयं करना होता है। जिन विदेशी विद्वानों को हम भारत- प्रेमी समझकर उनके जाल में फँस जाते हैं वे उनसे भी खतरनाक हैं जिनके भारतद्वेषी होने के प्रमाण पहली नजर में ही दिखाई देने लगते हैं। इसी को उदाहृत करने के लिए हमने मैक्समूलर की जानबूझकर की गई शरारतों के कुछ नमूने पेश किए थे, यद्यपि उनकी संख्या बहुत अधिक है। हमने उनके यांत्रिक और दुर्भावना से प्रेरित काल निर्धारण को स्वीकार कर लिया और उसी के अनुसार अपने इतिहास को समझने की कोशिश करते रहे, जबकि यूरोप के दूसरे सभी विद्वानों ने, एक समय में उनके गुरु और संरक्षक रह चुके गोल्डष्टकर ने भी, उनकी ऐसी स्थापनाओं को मूर्खतापूर्ण सिद्ध किया था। मैक्समूलर ही हैं जो कह सकते थे कि पाणिनि अक्षर ज्ञान से परिचित नहीं थे। वही कह सकते थे कि वेदों का एक नाम श्रुति है इसलिए इनको कभी लिपिबद्ध नहीं किया गया था, जबकि स्वयं यह भी स्वीकार करते हैं की ईसा से 1000 साल पहले ऋग्वेद के एक-एक अक्षर की गणना की जा चुकी थी और तब से अब तक उसके पाठ में किसी भी तरह की विकृति नहीं आने पाई है। विचित्र बात यह है कि भारतीयों का विश्वास जीतने के लिए भारत के विषय में उन्होंने जो सही ( प्रशंसापूर्ण!) बातें कीं, उनको हमने नहीं माना, जबकि निषेधात्मक या अवमूल्र्यन परक कथनों को इतिहास के अकाट्य सत्य के रूप में स्वीकार कर लिया। जरूरत दोनों को परखने और सही अनुपात में रखने की थी। हमें इस सूत्र को ध्यान में रखना होगा कि आधुनिक सफलताओं से उत्पन्न अहंकार में अन्य सभी सभ्यताओं को चिरंतन पिछड़ा और यूरोप की चिरंतन अग्रता सिद्ध करने की व्याधि से बहुत पहले से भारतीय भाषा, मूल्यों, विश्वासों, विचारों को अपनाने के समानांतर इसके वर्चस्व को नकारने की प्रबल ग्रंथि रही है। इसलिए सही मूल्यांकन के लिए पाश्चात्य अतिरंजनाओं और अवमू्ल्यनों और विकृत पाठों से मुक्त रहने का यथासंभव प्रयास करते हुए अपने निष्कर्ष निकालना होगा। अपने दिमाग से इस भ्रम को भी निकाल देना होगा कि पश्चिमी विद्वान अधिक मेधावी, अधिक वस्तुपरक और अधिक तार्किक होते हैं। प्रविधिगत दक्षता के बावजूद पूर्वोक्त कारणों से वे अधिक भोंड़े, यद्यपि अपने निर्देशन में अनुगत भाव से काम करने वाले भारतीय पंडितों से कम भोंड़े, सिद्ध होते हैं। सीधी बात यह कि ये दोनों बेई्मान सिद्ध होते हैं जिसे पकड़ना बहुत मुश्किल नहीं होता।
हम भाषा पर बात कर रहे थे जहां से इसे समझने में हुई ढील और बेईमानी को उजागर करने के लिए हमें एक लंबी बहस में उतरना पड़ा। बहुतों को वह बिंदु ही भूल गया होगा जहां से इसकी पृष्ठभि का परिचय देते हुए हम कुछ दूर चले आए। फिर उसी विषय पर लौटना होगा।
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व्याकरण और भाषाविज्ञान
हमारी पहली आपत्ति उस विभाजन से है जिसमें भारतीय भाषा चिंतकों को वैयाकरण कह कर इन्होंने अपने को और दूसरे पाश्चात्य अध्येताओं द्वारा किए जाने वाले काम को विज्ञान सिद्ध करने का प्रयास किया। सचाई यह है कि पाणिनि, पतंजलि, भर्तृहरि आदि विश्व के सबसे प्राचीन भाषावैज्ञानिक हैं न कि पाश्चात्य अर्थ में ग्रेमेरियन । ग्रामर का अर्थ है क्रम-व्यवस्था. उनके अपने कोश के अनुसार
Origin: late Middle English: from Old French gramaire, via Latin from Greek grammatikē (tekhnē) ‘(art) of letters’, from gramma, grammat- ‘letter of the alphabet, thing written’.
एक दूसरी व्याख्या के अनुसार:
late 14c., "Latin grammar, rules of Latin," from Old French gramaire "grammar; learning," especially Latin and philology, also "(magic) incantation, spells, mumbo-jumbo" (12c., Modern French grammaire), an "irregular semi-popular adoption" [OED] of Latin grammatica "grammar, philology," perhaps via an unrecorded Medieval Latin form *grammaria. The classical Latin word is from Greek grammatike (tekhnē) "(art) of letters," referring both to philology and to literature in the broadest sense, fem. of grammatikos (adj.) "pertaining to or versed in letters or learning," from gramma "letter" . An Old English gloss of it was stæfcræft )
इसे अधिक से अधिक वर्ण विन्यास और शब्द विन्यास और वाक्य विन्यास की समझ कह सकते हैं।
आरंभ से आज तक भारत में व्याकरण का अर्थ रहा है, विश्लेषण। विवेचन। ये पुराने शब्द है जिनका प्रयोग उस आशय के लिए किया जाता रहा है, जिसके लिए आज विज्ञान का प्रयोग किया जाता है, क्योंकि विज्ञान का जो अर्थ पहले किया जाता था, वह आज की परिभाषा में विज्ञान की कसौटी पर खरा नहीं उतरेगा।
तुलनात्मक और ऐतिहासिक भाषा विज्ञान के सभी तत्व पाणिनि के व्याकरण में उपलब्ध हैं। ध्वनि नियम और अर्थ-विकास, व्युत्पत्ति, सार्थक न्यूनतम मूल ध्वनियों (धातुओं) की खोज और ऐतिहासिक क्रम में भाषा में होने वाले परिवर्तन, क्षेत्रीय प्रयोग भेद, सभी का सटीक विवेचन के पाणिनि की अष्टाध्यायी में मिलता है। तुलनात्मक और ऐतिहासिक भाषा विज्ञान इस घेरे को कहीं भी तोड़ पाया हो तो उसका मुझे ज्ञान नहीं। यहां मैं अपना एक व्यक्तिगत अनुभव दर्ज करना चाहूंगा। नवीं में मैंने ऐच्छिक विषय के रूप में संस्कृत को अपनाया था। उसके ग्रीष्मावकाश में मुझे यह भूत सवार हुआ कि क्यों न परंपरागत पद्धति से संस्कृत का ज्ञान अर्जित करूं। मैं आधी अष्टाध्यायी कंठस्थ करके दो मील की दूरी पर एक पाठशाला में पहुंचा और वहां के प्रधानाचार्य से निवेदन किया मुझे परंपरागत पद्धति से संस्कृत का ज्ञान कराएँ। मुझे विश्वास था कि आधे सूत्र कंठस्थ हो चुके हैं तो व्याख्या उन्हीं की होगी शेष इस बीच रट जाऊँगा और मैं दो-तीन महीने के भीतर संस्कृत पर अधिकार करके निकलूंगा। याद नहीं कितने समय बाद संधि विचार आरंभ हुआ - सुधी उपास्य - सुध्युपास्य। बात समझ में आ गई, पर तभी पता चला कि दूर का एक सूत्र लगना जरूरी था जिससे साधनिका के अगले चरण पर वह सुध्ध्युपास्य हो गया। फिर एक और सूत्र जिससे अतिरिक्त ध् कट गया और रूप दुबारा वही बना जो पहले बन चुका था। मैं घबरा गया। आगे ने सूत्रों का भी मोह त्याग दिया कि इससे अच्छा तो रूपावली रटना ही है। बीस पचीस साल पहले जब राजमल बोरा की कृपा से राजवाडे का ‘संस्कृत भाषेचा उलगडा पढ़ा तो पाया ये भाषा के इतिहास में घटित परिवर्तनों का इतिहास है। इसे समझने में किसी पश्चिमी विद्वान को निश्चय ही समस्या पेश आएगी। ऐतिहासिक अध्ययन एक तो यह दूसरा वेदिक प्रयोगों और उसके ग्राह्य या ग्रहीत रूपों का है। तुलना केवल भारतीय प्रयोगों के विषय में संभव थी जिसे यत्र तत्र प्रयोगभेदों के रूप में दर्शाया गया है- शवतिर्गतिकर्मा गांधारेषु। यह सच है कि आधुनिक भाषाविदों को अखाड़े की जगह भारोपीय को पूरा मैदान ही मिल गया और उन्होंने वही काम बहुत बड़े फलक पर किया, पर नया क्या किया इसका पता लगाने के लिए नए अनुसंधान की आवश्यकता होगी।
भारतीय भाषाविज्ञान से परिचित होने पर ग्रामर की उनकी परिभाषा में अवश्य बदलाव आया, “ the whole system and structure of a language or of languages in general, usually taken as consisting of syntax and morphology (including inflections) and sometimes also phonology and semantics.”
भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )
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