क्या यह संभव है कि लघिमा से महिमा तक की समूची शब्दावली सीधे अथवा व्याज रूप में जल की ध्वनियों से निकली हो ? यदि हमारी मान्यता, जिनकी अपनी ध्वनियाँ नहीं हैं उनको अपना अभिधान प्राकृतिक परिवेश से, उसकी सबसे कारक शक्ति वायु, हिम या जल से मिली है, भारोपीय के मामले में यह शक्ति जल था, एक अकाट्य नियम है नियम है, तो इसके अतिरिक्त कोई चारा भी नहीं है।
हम पहले लघु शब्द को ही लें। इसका पुराना रूप रघु था, क्योंकि 'र' को 'ल'' बोलने वाले मुख्यधारा में कुछ विलंब से सम्मिलित हुए उनका प्रभाव कुछ विलंब से बड़ा जिसके कारण ‘र’ ध्वनि का बहुत बड़े पैमाने पर ‘ल’ में परिवर्तन हुआ। इन्हीं में रघु शब्द भी था। रह का अर्थ जल है। रंहा- सुजला, रंहति - गतिशील, राह - मार्ग, रहजन - दस्यु, रोहित - लाल, रहर - अरहर, रघु - गतिशील, वेगवान (अच्छा गमेम रघवो न वाजम्; सं अर्वन्तो रघुद्रुवः), इसी की देन हैं। रहू* - मत्स्य, का नाम भी इसी पर आधारित है। इनमें से अनेक में - लंघन, लोहित, लघु, लहर- ल ने र की जगह ले ली।
महिमा - मघ/ मस/मह - जल है यह हम देख आए हैं। आखर के फेर से बने घम्/ घन्, सम, हम (जैसे फा. हमउम्र, हमराह आदि में) भी जलपरक हैं। घमंड करते हुए आप जानते ही न होंगे कि आपके पानी पानी होने की नौबत आ गई है। अभी तक मैं महाजन का अर्थ श्रेष्ठी/सेठ के तर्ज पर महिमासूचक मानता आया था, अब तो लगता है महाँ/महान भी जलवान>धनवान है और बनियों में जिन के लिए इसका प्रयोग होता है, वे आढ़ती, बैंकर या पैसे का लेन-देन करने वाले रहे हैं। बहु, विशाल और महिम्न के लिए इसका प्रयोग अर्थोत्कर्ष का परिणाम है।
अणु से मिलता - जुलता सबसे पुराना लिखित प्रयोग अण्वी के रूप में उँगलियों के लिए हुआ है - अण्वीभिस्तना पूतासः, ऋ. 1.3.4, (स्वयं अपनी उँगलियों से गारा हुआ) इसलिए लगता है कि यह अनु (किसी अंग के अनुलग्न के आशय में प्रयुक्त है। अनु को यदि हम अत/अद/अध/ अन/अन्न संकुल में रख कर समझें कि इसका अर्थ जल है तो किसी लंबी बहस की आवश्यकता न होगी, पर यदि अ+न+ऊ का यौगिक मानें जो सर्वथा तार्किक है तो एक लंबी परेड करनी होगी। संक्षेप में कहें तोा अ/आ का प्रयोग समावेश, निषेध और सीमा के लिए, न का सादृश्य, विरोध और निश्चयात्मकता के लिए हुआ है। नूनं का प्रयोग 1. सचमुच (नूनं दिवो दुहितरो विभातीः), 2. संप्रति (नूनं देवेभ्यो वि हि धाति रत्नम्); के आशय में हुआ है और नून जलवाची है यह हम पहले देख आए हैं। E. non no one से निकला है या नूनं का निषेधवाची है इस बहस से बचा जा सकता है पर नोर/ लोर - आँसू और अरबी नूर, नूरानी में जल का आशय तलाशा जा सकता है। अनु का प्रयोग - अनु - 1. पश्चात (अनु अविन्दत - उसके बाद प्राप्त किया); 2. यथा, (अनुकामं तर्पयेथा), 3. की तरह (अनु प्रत्नस्य ओकसः हुवे); 4. क्रमबद्ध - अनुष्ठा, 5. प्रति -अनुद्यून् , प्रतिदिन; 6.अनुसार -अनुपूर्व,/ अनुकूल - अनुवाति ; 7.अन या निषेध- अनुत्त - अप्रेरित; अनेद्यः - अनिन्द्यः, अनेहसः - अपापा, .8. परस्पर - अनुस्यूत, आदि अर्थों में हुआ है। अणु शब्द संभवतः कणाद से पहले सूक्ष्मतम के लिए प्रयोग में नहीं आता था। इसके नामकरण के पीछे अ और न दोनों की नकारात्मकता थी, या कण का न्यूनीकरण था, यह हम नहीं जानते।
रेणु - अणु से पहले सूक्षमतम के लिए कण (कं>कम/कन/कण - जल) का और रेणु का प्रयोग होता था जिसके सूक्ष्मतर रूपों - त्र्यसरेणु आदि की कल्पना की गई थी। रेणु सामान्य प्रकाश में दिखाई नहीं देता। किसी बंद अँधेरे कमरे में किसी पतली फाँक से आते सूर्य के प्रकाश में हवा में भारहीनता के कारण इन्हें नाचते देखा जा सकता है। पर त्र्यसरेणु इनमें दृश्यमान सबसे छोटे रेणु का तिहाई है और पुद्गल जो विद्यमान तो हैं पर किसी तरह दृश्य नहीं। ऐसे ही त्र्यसरेणुओं / पुद्गलों से जीवजगत और विश्व-ब्रह्मांड की रचना हुई है। रेणु का प्रयोग ऋग्वेद में निषेध (अरेणु - निष्कलंक के, कालिदास के अपांशुला के आशय में हुआ है, पर, रण, रण्ण, रण्य में जल का भाव स्पष्ट है। त्रस>त्र्यस- में तृ/तिर/ तृष के संकुल का अर्थ स्पष्ट है। पुद्गल के आदि पू, पुद (त. पुदिय) में जल से संबद्धता स्पष्ट है।
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* अब आप चाहें तो माछ/ मछली का अर्थ स्वयं कर सकते हैं पर यह न सोच लीजिएगा कि ये मत्स्य के अपभ्रंश हैं, मत्स्य स्वयं मच्छ का संस्कृतीकरण है। मत- जल ध्वनि परिवर्तन से मच् नहीं बना, आरंभ में यह एक समुदाय द्वारा मत का मच के रूप में अनुश्रवण था। वास्तविकता वही हो पर प्रक्रिया भेद से बोधवृत्त बदल जाता है। मच- जल से ही E. much, muck, फा. मजा, मजाक, मजेदार. मजमा, सं. का मज्जन, मंजन, मंजिष्ठा, मंजु, मंजुल, मंजर -मोती,फा. जर, जरी, जरा, सं. मंजरी, मंजीर/मँजीरा, ते. मज्जिग, भो मजिगर (अच्छा) माझ/ मझोल-मध्यम, माझी - 'जलधारा से पार उतारने वाला' आदि निकले हैं।
भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )
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