मैं सभ्यता को मानव मात्र की साझी विरासत मानता हूँ और इसी रूप में इसको प्रस्तुत करने की हिमायत करता हूँ वह इसलिए कि ऐसे इतिहास से ही वह वैज्ञानिक समझ पैदा हो सकती है जिससे मानव समाज की व्याधियों और विकृतियों का सही निदान और उपचार संभव है। जो अमृत बन सकता था उसका हम विष बना कर सेवन करते रहे। अपार वैज्ञानिक प्रगति के समानान्तर सामाजिक समझ दयनीय होती चली गई। तार्किक कौशल के बाद भी समझ के स्तर पर पिछड़ते गए, सूचना के साधनों और माध्यमों में अकल्पनीय प्रगति के समानान्तर झूठ, पाखंड और भ्रम के पहाड़ खड़े होते गए और इन सभी विफलताओं का एकमात्र कारण है लोभ, स्वार्थ, अहंकार का बढ़ते जाना। इसके कारण ज्ञान का विवेक बनने की जगह चतुराई में रूपान्तरित होते जाना। बाह्य प्रकृति पर विजय के अनुपात में ही अंतःप्रकृति के समक्ष पराजित होते जाना। बौद्धिक ऊर्जा का विवेक-विरोधी उपक्रमों पर बर्वाद होते रहना। सत्य की खोज के नाम पर सत्य को झुठलाने पर व्यर्थ होते रहना। केवल एक झूठ को लें जिसे सही ठहराने के लिए तुलनात्मक और ऐतिहासिक भाषाविज्ञान के नाम पर यह जानते हुए कि इसकी एक एक कड़ी गलत है, अनुसंधान, अध्ययन, अध्यापन के नाम पर कितने अनुशासनों के ज्ञान का सत्यानाश कर दिया गया।
परंतु यह सचाई मुझ जैसे कामचलाऊ जानकारी रखने वाले की पकड़ में आ जाए, कोई दूसरा इसे उस रूप में भाँप न पाए, यह मेरे लिए भी आश्चर्य की बात है और मेरे लिए अगम्य क्षेत्रों के धुरीण पंडितों का मुझसे पाला पड़ता है तो उन्हें भी आश्चर्य होता है। पिन की नोक से गुब्बारे की जो दशा होती है वही दशा उनकी होती है। कारण सीधा सा है, वे जिस कहानी को इतिहास मान कर आजीवन काम करते और नाम कमाते रहे उसमें छेद ही छेद हैं और उनकी याद दिलाते ही उनकी आँखें फटी की फटी रह जाती हैं कि इस ओर उनका ध्यान पहले क्यों न गया।
अपराध वहाँ होता है जब साक्ष्यों की उपेक्षा की जाती है, साक्ष्य जो कुछ कहते हैं आप उसके विपरीत नतीजों पर पहले ही पहुँचे होते है और विश्वास करते है कि आप बुद्धिबल से उनसे जो चाहें सिद्ध कर सकते हैं। आज तक यही किया जाता रहा है और आप यह सोच कर कि जब इतने लंबे समय से इसे माना जाता रहा है, या यदि इतने बड़े विद्वान ऐसा मानते आए हैं तो इसे मान ही लेना चाहिए, हर बात की नए सिरे से जाँच संभव भी तो नहीं और यह जिन भी आग्रहों के कारण अब तक जो चलता आया हैं, उसे जारी रखना चाहिए। परिणाम होता है झूठ का पहाड़ ऊँचा होता चला जाता है और हम इसे ही ज्ञान मान लेते हैं।
निम्न पंक्तियों पर ध्यान दें:
“It is well known with reasonable certainty that the Italian and the Greek Peninsulas were colonised from the north. The occupation of France and the and British isles by Celts from Central Europe occurred at a comparatively late date (C. 500 BC.). The Iberian Peninsula remained predominantly non-Indo-European, and in modern Basque there still exists a survival of pre-Indo-European speech.
(T. Burrow, The Sanskrit Language, Faber and Faber, 1956, p. 10).
अब गौर करें कि जिनके अपने ही घर का ठिकाना नहीं था, उनमें से सभी अपने को सच्चा आर्य सिद्ध करना चाहते हैं और वहाँ से निकल कर उन लोगों को अपने उस घर को पहुँचा सिद्ध करना चाहते हैं जिसके विषय में उनका विश्वास रहा है कि वे सृष्टि के आदि से ही उस देश में हैं, और आप ‘शालीनता’ के मूर्तरूप सिद्ध होने के लिए उनके कहीं से भी आने की कहानी को सच मान भी लेते हैं।
जब इस बात मे प्रमाण मिलते हैं कि लघु एशिया और प्रांतर क्षेत्र में वैदिक भाषा बोलने वालों, वैदिक देवों को मानने वालों, वैदिक मूल्यों पर आचरण करने वालों का समाज में सम्मान और सत्ता पर अधिकार था तो पहले इसे इंडो-आर्यन बताया जाता है, फिर इसको इंडोहित्ताइत की संज्ञा देते हुए इसे भारतीय आर्यभाषा से पुराना बताया जाने लगता है, और सिद्ध किया जाने लगता है कि भारत में वैदिक भाषा बोलने और वेदों की रचना करने वाले वहीं से आए हो सकते हैं, तो दुबारा आप बौद्धिक निष्कृयता वश मान कर उसी के अनुसार सोचने लगते हैं। इंडो हित्ताइत की जननी भाषा - प्रोटाे अनातोलियन की भी कल्पना करके इसके साक्ष्य तैयार किए जाने लगते हैं कि यह सदा से यहीं थीऔर आप भकुआए देखते और मानते चले जाते हैं और उस सचाई पर नजर तक नहीं डालते कि अकाट्य साक्ष्यों के अनुसार अधिक से अधिक 2000 ई.पू. में पहले से चले आ रहे अश्व-व्यापार के चलते असीरियनों को बिचवई से हटा कर इस व्यापार में पहल भारतीय व्पापारी ले लेते हैं और उनके व्यापारिक नगर कानेस (Kanes) पर अपनी आढ़त कायम कर लेते है। मामला व्यापार का है तो इसमें किसी एक जाति - उसे आर्य कहें या क्षत्रिय - का नहीं हो सकता। इसमें स्वामिवर्ग के साथ सहकारी और अनुचर वर्ग भी शामिल था, इसलिए अश्वपालन पर पुस्तिका लिखने वाले का नाम हम किक्कुली पाते हैं जिसकी पहचान बहुत स्पष्ट है। अब समस्या केवल वैदिक भाषा की रह ही नहीं जाती। जैसा हम लगातार याद दिलाते आए हैं इसमें भले संपर्क भाषा वैदिक के निकट रही हो पर अपने दायरे में वे अपनी बोलियाँ बोलते और अपने देवी देवता मानते थे। अतः कोई भी कितने भी जोगाड़ से तैयार किया गया तर्क जो वैदिक भाषा और देवशास्त्र से आगे न बढ़ पाता हो, तैयार करे वह अधर में लटका रहेगा। जब सचाई सामने आएगी तो भारतीय मूलभूमि की पहचान दिन की रोशनी की तरह साफ हो जाएगी।
अब इस संदर्भ में आप उस घोड़े के मुँह से सचाई पर नजर डालिए जिसने यह सारा बखेड़ा शुरू किया था:
..,we come again to the coast the Mediterranean, and the principal nations of antiquity, who first demand our attention, are the Greeks and the Phrygians, who though differing somewhat in manners, and perhaps in dialect, had an apparent affinity in religion and language; the Dorian, Ionian and Elian families having migrated from Europe, to which it is universally agreed that they first passed from Egypt.... I shall only observe, on the authority of the Greeks, that the grand object of mysterious worship in that of the Mother of the Gods, or Nature personified as we see her among the Indians in a thousand forms and under a thousand names. She was called in the Phrysian dialect MA (माँ), and represented in a car drawn by lions, with a drum in her hand, and a towered coronet on her head: her mysteries (which seem to be alluded to in the Masaick law) are solemnized at the autumnal equinox in these provinces where she is named MA (माँ), is adored in all of them, as the Great Mother, is figured sitting on a lion, and appears in some of her temples with a diadem or mitre of turrets: a drum is called dimdima (डिमडिमा) both in Sanskrit and Phrygian and the title of Dindymne seems rather derived from that word, than from the name of a mountain. The Diana of Ephesus was manifestly the same goddess in the character of productive Nature, and the Astarte of the Syrians and Phoenicians (to whom we now return) was I doubt not, the same in another form.
(विलियम जोंस, एशियाटिक रिसर्चेज, खंड 3, Anniversary Discourse, 24 Feb.1791, पृ. 13-14.)
भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )
No comments:
Post a Comment