रिस /रिष, रोष> रुष् रिस/ रीस, भोजपुरी में रिसिआइल और रूठल।
रि का अर्थ संस्कृत में हिंसा लगाया जाता है, रि हिंसायाम् । इसका दूसरा अर्थ गति है, रि गतौ। रिष का अर्थ भी हिंसा- रुष, रिष हिंसार्था। रुष रिष हिंसायाम्। इनका दो बार उल्लेख इसलिए कि इनकी रूपावली दो तरह चलती थी। एक रूप भ्वादिगण के अनुसार, दूसरी दिवादिगण के अनुसार । यह दो गणों का मामला है, अर्थात् दो भिन्न भाषाई पृष्ठभूमियों से आए जनों (गणों) द्वारा किए जाने वाले प्रयोग हैं। कुछ वैसे ही जैसे हिंदी में कोई कहता है, 'मेरे को जाना है', दूसरा, 'मुझको जाना है', तीसरा, 'मुझे जाना है।'
संस्कृत के विद्वान कल्पना-कृपण और आलसी रहे हैं। शारीरिक निष्क्रियता मानसिक शिथिलता पैदा करती है। वे रटना जानते थे, प्रश्न करना नहीं जानते थे; खोज करना नहीं जानते थे। जो सबसे अच्छा लगता रहा है उसकी पूजा करना आरंभ कर देते रहे हैं। यह सोच ही नहीं सकते थे कि जो सबसे अच्छा लगता है उससे भी कुछ छूट गया हो सकता है, उससे भी कुछ भूलें हुई हो सकती हैं। यदि ऐसा न होता तो किसी ने तो सोचा होता कि एक ही शब्द का एक ही अर्थ में एकाधिक रूपों में प्रयोग क्यों होता है? स्पष्ट लिखा है गणों द्वारा किए जाने वाले प्रयोग। संस्कृत जैसी किताबी भाषा में तो यह तक संभव था कि इनमें से किसी एक को ही शुद्ध मान कर, केवल उसका व्यवहार किया गया होता और शेष को असाधु प्रयोग कह कर हतोत्साहित किया गया होता, तो संस्कृत 'द्वादश वर्ष पठेत् व्याकरणं' वाली बोझिल भाषा न रहती।
यह शिथिलता धातुओं के मामले में ही नहीं, संज्ञाओं के मामले में भी, लिंगभेद के कारण है। संस्कृत में लिंग व्याकरणिक हैं। न केवल उनके भेद हैं, अपितु विकट भेदाभेद हैं। कुछ का एकाधिक लिंगों में प्रयोग होता है। व्याकरणिक लिंग कितनी बड़ी समस्या है इसे इस बात से समझा जा सकता है कि आजीवन हिंदी क्षेत्र में रहने और संवाद में रहने के बाद भी हास्यास्पद भूलें करते हैं। इसकी समस्या बंगालियों के साथ ही क्यों है इसका कारण यह कि बांग्ला में व्याकरणिक लिंगभेद नहीं है। इस विडंबना को रवीन्द्रनाथ टैगोर ने एक कटाक्ष में व्यक्त किया था, “तुम्हारी हिन्दी में यदि स्तन पुलिंग है और मूँछ स्त्रीलिंग तो कोई सही हिंदी कैसे बोल सकता है?” यह समस्या हिंदी में संस्कृत की देन है। संस्कृत में यह अराजकता कहीं अधिक है। बोलियों में यह नहीं है। बांग्ला अपनी व्याकरणिक संरचना में बोलियों जैसी है।
संस्कृत में दस गण क्यों हैं, एक गण जुहोत्यादि की एक मात्र धातु की विविध लकारों में इतनी अराजकता क्यों है, यह न समझ पाना उन विविध भाषाई पृष्ठभूमियों से आए और संस्कृत के निर्माण में योगदान करने वाले गणों की भूमिका को समझने से इन्कार करना है। यह समझने से भी इन्कार करना है कि इनमें यज्ञ और पौरोहित्य को ले कर सबसे अधिक होड़ थी। यही कारण है कि जुहोत्यादि में अलग अलग कालों (लकारों) में रूपावली सबसे अधिक गड़बड़ है। इस होड़ की पुष्टि विश्वामित्र- वसिष्ठ की खुली और अगस्त्य की दबी प्रतिस्पर्धा और भृगुओं के विद्रोह में देखा भी जा सकता है। संस्कृत अभिजात भाषा थी, इसलिए इसमें सबसे अधिक घालमेल हुआ। ब्राह्मण वर्ण और उसमें भी पौरोहित्य सम्मान की दृष्टि से सर्वोपरि था इसलिए उसमें घालमेल सबसे अधिक हुआ और तीन कनौजिया तेरह चूल्हा प्रतीक रूप में जिस यथार्थ को ध्वनित करता है वह यही है। सामाजिक प्रतिष्ठा के अनुरूप घालमेल सभी में हुआ।
हम एक शब्द की व्युत्पत्ति तलाशते भाषा की बनावट पर पहुँच गए जो भटकाव प्रतीत हो सकता है, पर यही तो हमारी समस्या है। जो भी हो, खेद की बात यह कि आरोपित वर्णवादी अहंकार में हम अपनी ही पहचान भूल गए। एक तरह से अपने पितरों को ही भूल गए। अपनी ऊर्जा के स्रोत को भूल गए जो शूद्र से लेकर विपरीत क्रम में ब्राह्मणों तक प्रवाहित है और सच कहें तो आज राष्ट्रवाद की बढ़ चढ़ कर बात करने वाले अपनी जातीयता को भूल गए हैं।
संस्कृत का नाम आने पर विह्वल हो जाने वाले न संस्कृत के जीवट को जानते हैं न इसकी व्याधियों को जिनका निवारण कर दिया जाय तो यह विश्व भाषा बन सकती है। ये उपाय हैं, 1. गणभेद को मिटा कर सबमें एकरूपता; 2. व्याकरणिक लिंग की समाप्ति; 3. द्विवचन की समाप्ति, 4. संहित पाठ की जगह विच्छिन्न पाठ (पद पाठ), और कसाव को कम करने की समझ। कोई समझदार व्यक्ति फालतू बोझ लाद कर तेजी से आगे नहीं बढ़ सकता। समृद्ध होने और बोझिल होने में अंतर है। दुनिया की कोई भाषा सचेत रूप में अपने को दुरूह नहीं बनाती। संस्कृत को लोकप्रिय और व्यावहारिक भाषा बनाना है तो यह करना होगा। शास्त्रीय ग्रीक और माडर्न ग्रीक की तरह शास्त्रीय संस्कृत की सुविधा शोध आदि के लिए होनी चाहिए और आधुनिक संस्कृत को आधुनिक विषयों की शिक्षा के अनुरूप विकसित किया और अंतर्देशी संचार और व्यवहार की भाषा बनाया जाना चाहिए। औपनिवेशिक भाषा का विस्थापन उसके माध्यम से सर्वमान्य रूप मे हो सकता है।
दूसरी कमियों की तरह संस्कृत व्याकरण की सबसे बड़ी सीमा थी वैदिक भाषाविमर्श से कट जाना जिसमें भाषा का उद्भव जल से (मम योनिः अप्सु अन्तःसमुद्रे) माना गया है जिसे आधार बना कर हम अपना विवेचन कर रहे हैं। उस दशा में धातुओं की उद्भावना करने की जगह मूल स्रोत को पकड़ पाते। तब रस, रिस/रिष, रुष रोष में एकसूत्रता दिखाई देती और अर्थ अधिक स्पष्ट होता। साथ ही हमें rush, rash, का भी संबंध दिखाई देता।
रस -सजल, रसा- जलवती>रिस(रिसना, रिसाव>रुस/रुष/रुश यस्या रुशन्तो अर्चयः , अस्थुरपां नोर्मयो रुशन्तः । आ गन्ता मा रिषण्यत प्रस्थावानो माप स्थाता समन्यवः; .सहस्रदा ग्रामणीर्मा रिषन्मनुः; श्रुधी हवं इन्द्र मा रिषण्यः स्याम ते दावने वसूनाम् । न दानो अस्य रोषति ।.आदि। क्रोध को भी अपनी संज्ञा जल से मिली, हमारे लिए यही पर्याप्त है।
भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )
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