विश्वामित्र के महत्व को घटाने का ऐसा प्रयत्न ब्राह्मणों द्वारा किया गया और उसी तुलना में वशिष्ठ के महत्व को चार चांद लगाने का प्रयत्न किया गया उसकी तुलना बुद्ध और अशोक के अवमूल्यन से ही की जा सकती है और बहुत संभव है कि यह सारा प्रयत्न बौद्ध मत की लोकप्रियता और बौद्ध धर्म को मिले राजकीय संरक्षण के प्रतिशोध में किया गया हो।
वह कन्नौज के राजा गाधि के पुत्र नहीं हो सकते थे। वैदिक काल में जिसके वह ऋषि हैं कन्नौज की कोई प्रतिष्ठा न थी। वह असुर परंपरा से जुड़े थे जिनका कृषि कर्म और यज्ञ में विश्वास न था । इस परंपरा में भृगु, अंगिरा, जमदग्नि आदि आते हैं जिनकी ख्याति उनकी तकनीकी दक्षता के कारण थी। अपनी एक ऋचा में वह अपने को गर्व से भरतकुलीन होने और युद्ध में उत्साह पूर्वक भाग लेने का दावा करते हैं। सुदास स्वयं भरतवंशी हैं - इम इन्द्र भरतस्य पुत्रा अपपित्व चिकितुर्न प्रप्रित्वम् । हिन्वन्ति अश्वं अरणं न नित्यं, ज्यावाजं परि नयन्ति आजौ ।। ऋ. 3.53.24, इसी आधार पर इनको क्षत्रिय और राजवंशी माना गया लगता है। गाधि गाथी या गाथा बद्ध प्राचीन इतिहास की रक्षा करने वाली परंपरा या जिसे बाद में व्यास परंपरा कहां गया, उसके प्रतिनिधि हैं।
विश्वामित्र को सही सही किसी भाषाई, जातीय या नस्लवादी दायरे में रखकर समझने में मुझे कठिनाई होती है। परंतु यह समझने में कम कठिनाई होती है कि उनके व्यक्तित्व और चरित्र को गर्हित बनाने के लिए समस्त प्रयासों के बावजूद उनका व्यक्तित्व दूसरों से अलग दिखाई देता है। पहले उनके साथ हुए अन्याय की बात कर ले। ऋग्वेद में हमें उन परिस्थितियों का पता नहीं चलता जिनमें उन्हें सुदास के पुरोहित के पद से हटाकर निर्वासित किया गया, परंतु सुदास के पुरोधा बनने के बाद, सत्ता और लोभ से विरत, एकांत साधना करने वाले, विश्वामित्र को राज शक्ति का प्रयोग करते हुए अपमानित करने का प्रयत्न स्वयं वशिष्ठ ने किया था, न कि राजा विश्वामित्र ने वशिष्ठ का अपमान किया था।
ऋग्वेद के अनुसार एक भयंकर दुर्भिक्ष में वामदेव गोतम को प्राणरक्षा के लिए खान-पान की वर्जना (व्रत या टैबू) का विचार त्याग कर कुत्ते की अँतड़ियाँ पका कर खानी पड़ी थीं। इसके अतिरिक्त उन्हें एक अन्य अपमान झेलना पड़ा था और वह था अपनी आँखों के आगे अपनी पत्नी का शीलभंग। कवि वामदेव का कहना है, “मैं सभी देवों की गुहार लगाता रहा परन्तु सब व्यर्थ गया, अन्ततः इन्द्र ने ही कृपा की और सुख के दिन लौटे:
अवर्त्या शुनि आन्त्राणि पेचे न देवेषु विविदे मर्डितारम् ।
अपश्यं जायाममहीयमानामधा मे श्येनो मध्वा जभार ।।4.18.13
महाभारत में इस कदाचरण को विश्वामित्र के सिर मढ़ कर पेश किया गया, और इसे अधिक गर्हित बनाने के लिए चांडाल की रसोई में (पक्वणे) घुस कर चोरी करते और पकड़े जाते दिखाया गया। परन्तु रोचक यह है कि यहाँ चांडाल उन्हें ब्राह्मण ही कह कर संबोधित करता है, (दुष्कृती ब्राह्मणं सन्तं यस्त्वाहम उपालभे। महा. 12.139.77) कहें लोकमानस को क्षुब्ध करने वाला कोई भी प्रसंग हो, जैसे हरिश्चंद्र का सपने में दान देना और उनका पालन करने के उस दुर्गति से गुजरना जिससे सभी परिचित हैं, विश्वामित्र के सिर मढ़ा जाता रहा। इस कहानी का वैदिक रूप बिल्कुल अलग था, इसमें विश्वामित्र की भूमिका उद्धारक की थी।
हम इस तरह की कहानियों में आए हुए बदलाव के पीछे काम करने वाली मानसिकता पर कुछ नहीं कहना चाहते जो ब्राह्मणों के दिमाग में आज तक बनी रह गई हैं, याद केवल यह दिलाना चाहते हैं चरित्रहनन इतने प्रयासों के बाद भी उसी में से उनकी महिमा का भी परिचय मिलता है जिसकी समकक्षता में कोई दूसरा ठहर नहीं सकता और वशिष्ठ के महिमामंडन के बाद भी उनके उसी महिमा गान से उनकी कुटिलता प्रकट हो जाती है जिसकी ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया। उनकी गाय नंदिनी की महिमा, वह गो-ब्राह्मण साम्य, बौद्ध धर्म के योजनाबद्ध विरोध का दस्तावेज है। उदाहरण के लिए विश्वामित्र को पराजित करने के लिए नंदिनी के गोबर,मूत, फेन सभी से जो सृष्टि कराई गई है:
असृजत् पह्लवान् पुच्छात सकृतः शबराल् कशान्।
मूत्रतः च अपसृजत् चापि यवनान् क्रोधमूर्छिताः।
पुंड्रान् किरातान् द्रविडान् सिंहलान् बर्बरान् तथा।।
तथैव दरदान् म्लेच्छान् फेनात् ससर्ज ह।।1. 165.35-36
उससे मौर्य साम्राज्य के उच्छेदन में ब्राह्मणों की छिपी साठ-गांठ की झलक मिलती है जिसकी एक ओर तो खुली घोषणा : ब्रह्मक्षत्रे च विहिते ब्रह्मतेजो विशिष्यते ।। महा. 1.155. 27; धिग् बलं क्षत्रिय बलं ब्रह्मतेजो बलं बलम् । बलाबलं विनिश्चत्य तप एव परं बलम् ।1.165.42 की जाती रही। यदि तप ही सर्वोपरि है तो विश्वामित्र तपस्या के लिए जाने जाते रहे हैं और वशिष्ठ अपने पौरोहित्य के लिए।
यहां हम उस संघर्ष की याद दिलाना चाहते हैं जिसमें एक ओर वैदिक काल में आविष्कारकों, कलाकारों और कुशल कर्मियों की महिमा का गान है तो दूसरी ओर ब्राह्मणों के बीच सम्मान की प्रतिस्पर्धा चल रही है जिसकी एक झलक - गृणाना जमदग्निवत् स्तुवाना च वसिष्ठवत् ।। 7.96.3 में मिलती है । एक ओर नए आविष्कार, नई सूझ और दक्षता है तो दूसरी ओर कर्मकांड पर एकाधिकार जहां कोई नवीनता नहीं है। जिसका कोई प्रत्यक्ष आर्थिक लाभ समाज को प्राप्त नहीं हो रहा था इसलिए असुर परंपरा से आए हुए तकनीकी पक्ष में असाधारण योग्यता रखने वाले लोगों और पहले से कृषि संपदा पर और बाद में संपदा के दूसरे सभी रूपों पर एकाधिकार करने वाले लोगों के बीच प्रतिस्पर्धा चल रही थी जिसकी प्रकृति का पूरा अनुमान करने की स्थिति में हम नहीं है।
इसे आज की भाषा में वर्ग संघर्ष के न सही, वर्ग हित के तनाव के रूप में समझने का प्रयत्न करें तो बात आसानी से सामने आ जाएगी। एक ओर ब्रह्मा के नजदीक पहुंचने वाले 3 सिरों वाले, सभी प्रकार के भोगों में लिप्त रहते हैं दूसरी ओर व्यापारियों के हित का प्रतिनिधित्व करने वाले इंद्र उनका गला काट देते हैं।
हम यह याद दिलाना चाहते हैं भारतीय स्रोतों का अध्ययन तुलनात्मक ढंग से करने के बाद ही हम उनके स्रोत और उन में की गई विकृतियों को समझ सकते हैं। वशिष्ठ विश्वामित्र का द्वन्द्व ब्राह्मण क्का्तरष द्वन्द्व नहीं है, ब्राह्मणत्व के दावेदार दो प्रतिस्पर्धियों की है, जिनमें से एक प्राचीन कृषि व्यवस्था से जुड़ा हुआ है दूसरा कृषि विरोधी पूर्व परंपरा का जिसके उत्तराधिकारी दक्षक्रतु या कुशलकर्मी हैं जिसके तकनीकी योगदान के बिना भारतीय सभ्यता अपनी उस ऊंचाई पर नहीं पहुंच सकती थी, जिस पर पहुंची थी। एक का गहरा लगाव कर्मकांड से है, इसके प्रधान देवता यज्ञ या विष्णु हैं। दूसरे का साधना, प्रौद्योगिकी और दक्षता पर है। यदि विश्वामित्र और वशिष्ठ में कोई निर्णायक भेद था तो इसमें विश्वामित्र साधना और मंत्र शक्ति में विश्वास रखते थे । शेष कथा के विषय में सूचना का अभाव है ।
हम अपनी चर्चा लिपि के विकास पर कर रहे हैं और इस क्रम में विश्वामित्र की भूमिका के विषय में जो सूचनाएं हमें उपलब्ध है, या जिनके भरोसे हम यह प्रस्ताव रखने का साहस कर रहे हैं उसे बिंदुवार रखना उपयोगी होगा।
1, विश्वामित्र के विषय में यह किंबदंती है कि उन्होंने ब्रह्मा की सृष्टि के समानांतर एक अपनी सृष्टि की और इसमें कुछ भी न छूटा। इसका एक ही अर्थ है कि विश्वामित्र ने भाषा का आविष्कार किया। भाषा वस्तु जगत की प्रतीकात्मक उपस्थित है। परंतु यह संभव नहीं । इसलिए इसका दूसरा विकल्प बचता है उन्होंने अंकन की ऐसी प्रणाली का आविष्कार किया जिससे श्रव्य भाषा को दृश्य भाषा में बदला जा सके। अर्थात् उन्होंने लेखन का आविष्कार किया। परंतु लेखन की परंपरा बहुत लंबी और उलझी हुई है। विश्वामित्र स्वयं कहते हैं कि उन्हें लिपि का ज्ञान, या ससर्परी लिपि का ज्ञान जमदग्नि ने कराया था ( ससर्परी या जमदग्नि दत्ता)। ऐसी स्थिति में वह लिपि के आविष्कारक भी नहीं हो सकते.
2. इसके साथ ही हमें यह भी मालूम है कि कि यद्यपि ब्राह्मी, लीनियर बी , और सामी लिपयों के चिन्हों में गहरी समानता है, इनको परस्पर अनुप्रेरित करने वाले किसी सूत्र का पता न था, या जैसा हम देख आए हैं. था तो उनकी उपेक्षा करते हुए एक नकली निर्वात तैयार किया गया।
3. जिस तीसरे तथ्य से हम परिचित हैंं, वह यह कि सैंधव लिपि के चिन्हों की संख्या किसी अन्य समकालीन लिपि को देखते हुए बहुत कम है परंतु ब्राह्मी की अपेक्षाओं को देखते हुए बहुत अधिक है। यही स्थिति लीनियर बी की ब्राह्मी और सैंधव लिपि के सन्दर्भ में । बहुमिश्र (कंपोजिट) सैंधव लिपि को जिसमें कुछ चिन्ह मात्रिक रूप ले चुके थे, शब्दलेखों, भावलेखोंं के अनुपात में अधिक होने के कारण, इनका सरलीकरण करते हुए मात्रिक (सिलैबिक) रूप प्रदान किया था, जिससे वस्तु, उसकी संज्ञा और लिखित रूप का अंतर समाप्त हो गया था और यही उनकी कीर्ति का आधार था।
4. यहाँ उस परंपरा पर भी ध्यान देना होगा जो अधिक प्राचीन न होते हुए भी हमारे लिए तो प्राचीन है ही। ललितविस्तर में बोधिकत्व के शालाप्रवेश से पहले से ही 64 प्रकार की लेखन विधियों का ज्ञान था, उसमें उनको अक्षर ज्ञान कराने वाले गुरु के रूप में विश्वामित्र का उल्लेख है जो गौतम बुद्ध के बाल रूप को देखकर, चमत्कृत होकर उनके चरणों पर गिर गए थे। अर्थात बहुत बाद की परंपरा तक इस बात का स्मरण हमारे जातीय मानस में था कु लिपि के विकास में विश्वामित्र का विशेष स्थान है।
भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )
No comments:
Post a Comment