Friday, 8 January 2021

शब्दवेध (58) अत

होने को तो अत में आए 'अ' और 'त' दो शब्द हैं - अ - दूर, (जिसे सं. अदस्, अं. अदर में पाया जाता है) और  'त' - स्थान > अत - वह स्थान। पर इसमें आए  'त' को हम 'तर (त्र)' का घिसा रूप कह सकते हैं।

अनेक समुदायों के सभ्य समाज में आकर सेवा के अवसर तलाशने के लिए  अपनी बोलियों के साथ  मिलने और मानक भाषा सीखने तक अपनी बोली और संकेत से काम चलाने  का परिणाम था कि व्यक्तिवाचक सर्वनामाें तथा स्थानवाची क्रियाविशेषणों में खासा हेर-फेर हुआ। 

यह बदलाव नियमित होता तो इस घालमेल का पता भी न चलता, परंतु कहीं तो बदलाव हुआ कहींं छूट गया । अहं में (०इघं/इहं>हम) का 'इ' 'अ' बन गया पर अंग्रेजी आइ   इगो  (I, ego) में इकार और अन्य तथा अदर  other  में दूरी वाला भाव बना रहा, इतर/इत्र में इ का स्थान अ ने ले लिया और ०अतर/अत्र के 'अ' का स्थान 'त' ने ले लिया - तत, तत्र > अं. दैट, दे ( that, they) पर साथ ही दिस,दीज (this, these) जब कि ०इयर/ हियर (here) को ध्यान में रखते  ०इस /इज is (his) होना चाहिए था। पर इज (is) ने अस्ति का स्थान लिया और हिज (his)  ०अस्य.(तस्य) का, परंतु हम यहाँ इन सामुदायिक घालमेल से हुए भाषागत घालमेल पर विचार नहीं कर रहे हैं। 

हम जलवाची शब्दों के प्रसंग में अत्यादि अर्थात् 
अत/अद/अंद/अंध/अन्न,  
इत/इद/इंद/विद/विंद, 
उद/उंद/उद्र, ओत, ओद 
पर  विचार कर रहे हैं, जो सभी जलपरक हैं। यह दूसरी बात है कि हम अनचाहे ही  यहां हम एक आश्चर्यजनक  सचाई के सामने हैं जिसकी अन्यथा कल्पना भी नहीं की जा सकती, और वह है,  हमारे स्थान वाचकों, सर्वनामों और जैसा हम आगे देखेंगे, उपसर्गों का भी नामकरण जल की ध्वनियों और जलपरक  शब्दों पर हुआ है।  हम अभी सत और तत पर विचार नहीं कर रहे हैं, फिर भी यहाँ यह संकेत किया जा सकता है कि वे भी जलपरक ही हैं।

०अत- जल (पर हम अंध और अँधेरे के प्रसंग में विचार कर चुके हैं। अत/अद (अत्ति) - E. eat, eddible (L.edibilis - edere - to eat), अत+इ=अति/इति, अतीत -बीता हुआ > अंत> इन्त(हा) , इंद  E. end, (O.E., Ger. and Dan. ende, Goth. andels); अन्त/ - भीतर, फा.अन्दर E. in,  अध -नीचे ((यो अस्मान् अभिदासति अधरं गमया तमः);   E. under;  अधि- ऊपर;  बीच में;  अन्ति/अन्तिके- पास, E. ante-(L. ante, anti)  anticipate, anterior, 
आदर - ०जल प्रस्तुत करना (तु. अर्घ पाद्य, अर्चना) - सम्मान;  
आतुर - ०प्यास से विकल, अर्धविक्षिप्त; 
भो. अधातुर - अधिक से अधिक खाने को लालायित; 
अत्य - प्रतिस्पर्धा में सबसे आगे/ बढ़ कर, अश्व।  

हम इन सभी शब्दों को जानते हैं, इनका सही प्रयोग करते हैं, पर यह नहीं जानते कि इनको यह अर्थ मिला कैसे।  यह कुछ वैसा ही है जैसे आप किसी संपदा का उपभोग करते हैं, पर यह नहीं जानते कि उसका स्वामित्व आपको मिला कैसे है, क्योंकि संपदा के स्वामित्व के कागजों को सँभालने की चिंता ही न की। उनके अभाव में आपको संपदा के उपभोग में किसी तरह की कोई असुविधा नहीं हुई इसलिए आप ने उन कागजों के सँभालने को बेकार की झंझट समझा।  समस्या तब आती है जब कोई फर्जी गवाहों के साथ आकर यह दावा करे कि यह तो उसकी संपदा है, इसका  उसे अधिकार ही नहीं। उल्टे इतने समय तक इसका  मुफ्त में उपभोग किया है, इसलिए उस पर देनदारी भी बनती है। हमने जो दृष्टांत चुना है वह यथार्थ का प्रतिनिधित्व नहीं करता, इसलिए भ्रामक भी है।  ज्ञान विज्ञान की कोई शाखा नहीं जिसका हमारे जीवन से गहरा संबंध न हो, परंतु उनका ज्ञान सभी को न तो हो सकता है न होने की चिंता होनी चाहिए, फिर भी समाज में कुछ लोग होने चाहिए जो विशेष क्षेत्रों की जानकारी रखते हैं। उस क्षेत्र के कारोबार से जुड़े लोगों में यह जानकारी तो होनी ही चाहिए और उसका अभाव, यहां तक कि उसके प्रति अवज्ञा से  चिंता पैदा होती है।  

मैंने ऊपर  समानार्थी संकुल से संबंधित जिस शब्द संकुल को प्रस्तुत किया हैं, उसके विस्तृत विवेचन में जाना मेरे लिए कष्टदायक और पाठकों के लिए उबाऊ होगा, इसलिए हम उस विस्तार में न जाना चाहेंगे, उनके विषय में इसी तर्क रेखा पर चल कर आप स्वयं शब्द संकुलों की खोज कर सकते हैं और यदि इस प्रेरणा का विस्तार हो सके तो यह एक बड़ी उपलब्धि होगी। 

फिर भी हम एक शब्द, जो इस संकुल में आता है, उसकी चर्चा जरूरी समझते है क्योंकि  हमें लगता है कि उसका अर्थ संभव है आप समझ न पाएँ  यद्यपि इसका प्रयोग करते हुए कोई चूक नहीं करते। 

यह है 'ओतप्रोत'।  इसमें आया ओत ताने  और प्रोत बाने के लिए प्रयोग में आता था जिसमें शब्द वही था पर इसमें पूरक के आशय में प्र उपसर्ग जुड़ गया था । यह वैदिक कालीन पर्याय है जो बाद में चलन में न रहा यदि आर्द्र के लिए भोजपुरी  ओद पर ध्यान दें  तो यह समझ में आएगा कि ओद उद से नहीं इसी संकुल के ओत से निकला है। जैसे रस से रसरी/रस्सी > रश्मि, फा. रसन, रास और रेशम; रज से रज्जु ,  वारि से वरत्र, बरही/ बरहा निकले हैं, उसी तरह ओद- गीला, ओत -जल से धागे के लिए संज्ञा मिली जिसका प्रयोग ताने के लिए  होता था औरे जिसमें प्र उपसर्ग के साथ बाने की संज्ञा तैयार की गई।  ओत के जल वाले आशय से ऊत - निःसंतान, मूर्ख निकला लगता है। तानेबाने के आवरण वाले भाव से ओट- परदा, आड़ और ओढ़ना तथा ओढ़ाना क्रिया को संज्ञा मिली।  क्या औधा (औधे मुँह गिरना) भी इसी से निकला है ?

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )


No comments:

Post a Comment