Wednesday, 13 January 2021

शब्दवेध (71) त्रास/संत्रास

दुख की वह अवस्था जो डरावना रूप ले ले।  इस शब्द का प्रचलन  साठ के दशक में पश्चिम के ताजातरीन लेखन की बराबरी पर आने के प्रयत्न में अस्तित्ववादी लेखन की नकल, अस्तित्ववादी दर्शन की तकनीकी शब्दावली के सुनामी के साथ बढ़ा था। ज्ञानमंडल के कोश में संत्रास - भय, आतंक; संत्रस्त- बहुत डरा हुआ, भय से काँपता हुआ; तथा संत्राण - रक्षण, उद्धार शामिल है।  

त्रास शब्द बहुत पुराना है यह तो त्रसदस्यु- येभिस्तृक्षिं वृषणा त्रासदस्यवं महे क्षत्राय जिन्वथः ।। 8.22.7 , त्रसदस्युः पौरुकुत्सः ,   याभिर्नरा त्रसदस्युमावतं कृतव्ये धने ।

उस व्यथा और  तड़प का न तो कोशों से पता चलता है,  न काव्योक्तियों से, जो शब्दों में छिपी हुई है।

त्रास   तृषा से निकला शब्द है,  परंतु यह तृषा  उस जलवायु की हो सकती है जिसमें वर्ष के कुछ महीनों में प्रचंड गर्मी पड़ती है और प्रतिवर्ष  हजारों लोग लू (सन स्ट्रोक) और घाम (डिहाइड्रेशन) से मरते हैं। पानी के अभाव में मरणासन्न होने की कहानियां  और आर्तनाद  हमारी भाषा और साहित्य की, हमारे संस्कार और शिष्टाचार  की विशेषता है।   उसने मुझे पानी को भी न पूछा यह मुहावरा भारत में ही चल सकता है।  आप किसी के यहां पहुंचते हैं तो बातचीत आरंभ हो इससे पहले ही चाय पानी का इंतजाम हो जाता है पर ऐसा क्यों भारत में होता है  अर्घ्य (माथा धोने) और पाद्य (पाँव धोने) और नैवेद्य / मधु पार्क जैसे शब्द किसी दूसरी संस्कृति के व्यक्ति को समझ में आने पर भी चित्र के रूप में उपस्थित नहीं हो सकते।  यह केवल भारत में होता था।

 आने वाला व्यक्ति  प्यासा  होगा ही।  सबसे पहले उसे पानी दो।  पानी भी संकट पैदा कर सकता है।  

खुसरो की जीवनी में एक प्रसंग आता है जिसमें शत्रु ने उसे युद्धबंदी बना लिया। प्रसंग  याद नहीं आता।  पर जब वे उसे ले कर चले  तो रास्ते में  हुआ यह कि कहीं  पानी नहीं मिला।  प्यास से विकल  अवस्था में  वे एक नदी के पास पहुंचे।  सभी ने झटपट पानी पी लिया,  और परिणाम यह कि हूक  ऐसी उठी  कि  उनमें से अधिकांश तड़प कर मर गए।  खुसरो  कहते हैं,  मुझे तो मालूम था,  मैं तो हिंदुस्तानी था।  मैंने पहले हाथ धोया सिर धोया फिर एक छोटी सी घूँट ली  और फिर पानी पीकर उनको उसी हालत में छोड़कर भाग खड़ा हुआ।

 पानी पीने से पहले हाथ धोने  और मुंह में  बिना कुछ डालें खाली पेट पानी पीने से होने वाले  नुकसान की इसी समस्या का आज तक, परंपरा को समझे बिना भी, निर्वाह होता चला आ रहा है । 

यह परंपरा यदि केवल भारत में है औरत त्रास शब्द  उसी डरावने पन के साथ यूरोप तक फैला हुआ है तो आप समझ  सकते हैं कि :
1 शब्द का और उस भाषा का जिसमें इस शब्द का महत्व है उद्भव कहां हुआ हो सकता है;
2. इतिहास का सच इतने कौनो में छिपा रहता है कि सच को मिटाने वाले यह नहीं जानते कि वह कहीं से भी सामने आकर उनकी सारी योजना को ध्वस्त कर सकता है। 

असाधारण वेदना, दहशत पैदा करने वाला अनुभव (terror/  horror/  torture) या उसकी संभावना के लिए जल से निकले इस शब्द का क्या संबंध है इसे प्राण रक्षा के लिए की जाने वाली गुहार, त्राहि माम्,  पाहि माम् जो  एस ओ एस (SOS - save our soul) का सबसे पुराना रूप है, से समझा जा सकता है और बेकली की उग्रता को व्यक्त करने के लिए जिन शब्दों का प्रयोग होता है वे इस पर मुहर लगाएँगे।   

त्रास, संत्रास, त्राण में  साझा अक्षर ‘त्रा’ है जो तृ/तर से निकला है। इसी से  
तरसना - 1. पानी पीने की उत्कट इच्छा, 2. किसी भी वांक्षित वस्तु की अतृप्त लालसा;   
तरणि- 1. जल राशि/धारा को पार करा कराने वाली;  2. रक्षक।[1] 
त्राण/परित्राण -  रक्षा/ हर तरह से रक्षा, आदि शब्द  निकले हैं।  
परंतु स्वय ‘त्रा’  तर>तृ (त्रि/त्रु) जल की क्षीण प्रवाह की ध्वनियाँ हैं यह हम जानते हैं जिनका जल के लिए प्रयोग किया गया और जिनसे 
तृषा - प्यास,  
तृप्ति - प्यास का पूरी तरह बुझने का संबंध है।  तृषा अपने उग्रतम रूप में 
त्रास / संत्रास बन जाती है।  इसका अगला चरण है इसका जानलेवा हो जाना। मरणासन्न जिसके घावों से शरीर का बहुत सारा रक्त निकल गया है, अपने सारे दुखों को भूल कर, क्षीण स्वर में कहता है, ‘पानी!’ तो इसके दो अर्थ होते हैं:
1. दूसरे सभी कष्टों से अधिक उग्र है तृषार्तता;
‘2, पानी पिलाओ,’  त्राहि। इसका ही अर्थविस्तार है “मेरे प्राण बचाओ’ जो अपने विशिष्ट संदर्भ से अलग होकर ‘बचाओ’, और ‘रक्षा करो’ का व्यापक अर्थ ग्रहण कर लेता है और 
त्राण, परित्राण/ त्राता
में देखने में आता है, और मूल ‘त्र’ में लौट कर भी त्राण और त्राता का आशय प्रकट करता है। रक्षा का भाव अंसत्र - कंधे की रक्षा करने वाला;  पदत्र या पादत्राण, शिरस्त्राण/सरोपा, यजत्र आदि में दिखाई देता है। 

इस ‘त्र/तर’ का एक दूसरा भाव वह पद है जिसे गंतव्य कह सकते हैं। एक नाली जैसे प्रवाह से उठती आवाज और एक बूंद जो किसी पत्ती पर गिर कर ढरकती है, जिसका अंतरण पसीने की बूँदो के लिए भी हो सकता है। तर ढरकना भी है और वह जगह भी जहां इसे गिरना है। एक के भाे, तरे> सं./हिं. तले, ढलान (तराई),, स्थान -त. तरै/धरा बना। इन दोनों का भेद भो. ‘धइल बा’ और ‘राखल बा’ में मिलता है। अर्थात स्थान पा जाना और संकटमुक्त हो जाना, सुरक्षित हो जाना में बुनियादी समानता है इसके कारण स्थान या  स्थिति सूचक पदों के अर्थ को समझने में पंडितों से भी चूक होती है।  

अंसत्र का अर्थ कंधे की रक्षा करने वाला है या कंधे पर रखा या टिका हुआ (हथियार -    अंसेषु वः ऋष्टयः पत्सु खादयः), यह अंतर उलझन पैदा करता है। यत्र, तत्र , सर्वत्र, कुत्र, आदि में ( में स्थानवाची (locative) भाव है, जो E. टेरा  terra, teritory, terestrial  आदि में देखने में आता है। terrific, terror आदि में जल के अभाव से उत्पन्न  संताप या त्रास का भाव है। 

ऋ. में तस्य त्राता भवसि तस्य सखा . या त्राध्वं नो देवा निजुरो वृकस्य त्राध्वं कर्तादवपदों यजत्राः, त्रातारमिन्द्रमवितारमिन्द्रं हवे-हवे सुहवं शूरमिन्द्रम् ,  में रक्षा का भाव मुखर है. पर यत्र, कुत्र, तत्र आदि में स्थानीयता का। 

यह कुछ उलझाने वाली बात है कि पानी पिलाओ वाले स्पष्ट आशय में त्रा का स्थान पा ने ले लिया: पाहि पिलाओ ।  इंद्र ये प्रथम सवन के सोम तुम्हारे लिए पेरे गए है, पहले की तरह आज इन नई वंदनाओं के साथ आ कर इनका पान करो - पिबा वर्धस्व तव घा सुतास इन्द्र सोमासः प्रथमा उतेमे  । यथापिबः पूर्व्याँ  इन्द्र सोमाँ एवा पाहि पन्यो अद्या नवीयान्  ।। 3.36.3 
और पाहि - प्राण रक्षा करो :
आजीवन मेरी भली भाँति रक्षा करना,   पाहि सदमिद् विश्वायुः ।। 1.27.3;  अग्निदेव, हिंसक राक्षसों, हेगामा करनेवाले धूर्तों से बचाना... -  पाहि नो अग्ने रक्षसः पाहि धूर्तेरराव्णः । पाहि रीषत उत वा जिघांसतो बृहद्भानो यविष्ठ्य ।। 1.36.15

यातना की पराकाष्ठा के लिए प्रयोग में आने वाले शब्द जल के अभाव, प्राणघाती पिपासा के द्योतक हैं:
तड़पना < त. तण्, सं. तड़ = जल; तड़ाग = जलाशय। टाँड़ा - लकड़ी खा कर पुरानी धरन आदि को खोखला कर देने वाला एक कीड़ा।  ताड़ना - भाँपना ; >ताड़ना देना - तातना देना, > प्रतारणा।             
छटपटाना < छर, छट - जल: छटा - हरियाली, प्राकृतिक सौंदर्य।
आकुल/ विकल/ बेकल < कलकल= जल प्रवाह का नाद; कल -1. जल, 2. सुंदर, 3.कलश - जलपात्र; 4. क्लेश, 5. कलुष -दाग।

भगवान सिंह 
( Bhagwan Singh )


No comments:

Post a Comment